मंगलवार, 3 नवंबर 2020

Nautanki : खत्म होता यूपी का लोकनृत्य, नगाड़े का नाद और तबले की ताल अब नहीं सुनाई देती

 


- पहले वीसीआर-टीवी ने और फिर मोबाइल ने खत्म किया Nautanki का क्रेज

- प्रेरणादायक कहानियों की बजाय बढ़ती फूहड़ता और अश्लीलता ने कम की नौटंकी की लोकप्रियता

- राजा हरिश्चंद्र, श्रवण कुमार, आल्हा-ऊदल, सुल्ताना डाकू और फूलन देवी जैसे पात्रों की कहानियां दिखाई जाती थीं

- नौटंकी में कविता और साधारण बोलचाल की भाषा इस्तेमाल की जाती थी, संवाद में तुकबंदी भी

- नौटंकी में सारंगी, तबले, हारमोनियम और नगाड़े जैसे वाद्य यंत्र इस्तेमाल होते हैं।

- अब नौटंकी न तो नौटंकी के कलाकार बचे हैं और न ही कद्रदान


Nautanki. नौटंकी उत्तर प्रदेश का लोकनृत्य (Uttar Pradesh Folk dance Nautanki) है जो अब विलुप्त सा होता जा रहा है। आज से दो दशक पहले नौटंकी ही लोगों के मनोरंजन का महत्वपूर्ण साधन हुआ करती थी। शादी-बारात हो या फिर कोई अन्य मांगलिक कार्यक्रम लोग अपनी खुशियां सेलिब्रेट करने के लिए नौटंकी का आयोजन करवाते थे। सहालग पर ग्रामीण इलाकों में कोई ऐसा दिन नहीं होता था, जब दो-चार कोस पर हर दिन नौटंकी के नगाड़े नहीं गूंजते हों। इसके अलावा भी लोग चंदा जमाकर हफ्ते भर के लिए नौटंकी का आयोजन करवाते थे। राजा हरिश्चंद्र, श्रवण कुमार, आल्हा-ऊदल के अलावा सुलताना डाकू और फूलन देवी जैसे कई पात्रों की कहानियां विशेष शैली में गा-गाकर दिखाई जाती थीं। लोग मजे-मजे लेकर नौटंकी देखा करते थे। हरदोई जिले के कोथावां ब्लॉक निवासी राम खेलावन बताते (55) हैं कि बचपन में अक्सर नौटंकी देखने जाते थे। पुराने दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं कि शाम होते ही जैसे नगाड़े की आवाज कानों में गूंजती, उनसे रहा नहीं जाता था। दोस्तों के साथ वह चुपके से निकल जाते थे नौटंकी देखने, फिर चाहे वह कितनी ही दूर क्यों न हो। सुबह खत्म होते ही वह घर लौट आते थे।

वैसे तो पूरे उत्तर प्रदेश में नौटंकी खूब देखी जाती, लेकिन कानपुर, इलाहाबाद और लखनऊ इसके प्रमुख केंद्र थे। धीरे-धीरे नौटंकी में फूहड़ता ने जगह बना ली। अब यहां प्रेरणादायक कहानियों की बजाय अश्लीलता परोसी जाने लगी। समाज के उच्च-दर्जे के लोग इसे 'सस्ता' और 'अश्लील' समझने लगे। वीसीआर (वीडियो कैसेट रिकॉर्डर) और टीवी (टेलिविजन) के अधिक चलन ने नौटंकी को हाशिये पर पहुंचा दिया। दूर संचार क्रांति और हर हाथ में मोबाइल के चलन की वजह लोग नौटंकी ही भूल गये। नौटंकी के सामानों के बड़े विक्रेताओं ने भी दुकानें बंद कर दीं। ऐसा ही एक नाम था लखनऊ के कुक्कू जी का, जिनके जिक्र के बिना अवध में नौटंकी के विकास या इतिहास की बात करना बेमानी था। स्व.कक्कू जी ने केवल भारत के विभिन्न स्थानों पर ही नहीं बल्कि विदेशों (लाहौर, करांची, नेपाल) में भी नौटंकी की है। नौटंकी विधा को लोकप्रिय बनाने व विकास करने के लिए भारत सरकार द्वारा कई पुरस्कार दिए गए। 

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एक-एक शो के लिए आते थे 20 हजार तक दर्शक

वर्ष 1920 में कक्कू जी ने लखनऊ के यहियागंज में नौटंकी के सामान की एक दुकान खोली। उनकी दुकान लगभग पिछले 100 वर्षों से भी अधिक समय से चल रही है। गांव हो या शहर नौटंकी का हर कलाकार या उससे जुड़ा व्यक्ति कक्कू जी और उनकी दुकान को जानता व पहचानता था। हालांकि, अब कोई नियमित तो वहां नहीं बैठता, लेकिन कस्टमर पहुंचने पर उनके बेटे सामान देने आ जाते हैं। 90 के दशक में कक्कू जी के स्वर्गवास के बाद उनके पुत्र बालकिशन जी दुकान चलाते हैं। बालकिशन जी बताते हैं कि पिताजी के समय पर ग्राहकों की लाइन लगी रहती थी अब तो कभी-कभी ही कोई ग्राहक आ जाता है। दुकान लगभग बंद कर दी है। अब उन्होंने बर्तन दुकान खोल ली है और नौटंकी के सामान को उठाकर घर में रख दिया है। जब कभी कोई ग्राहक आता है तो उसे घर ले जाकर सामान दे देते हैं। वह बताते हैं कि पिता जी के समय में लोगों के मनोरंजन का एकमात्र साधन नौटंकी ही था। दर्शक टिकट के लिए मारपीट तक कर देते थे। टिकटों की पहले ही बुकिंग हो जाती थी। एक शो के लिए 20,000 तक दर्शक आ जाते थे।

अब न कलाकर बचे और न ही कद्रदान

अब नौटंकी क्रेज खत्म हो गया है, जिसके चलते न तो कलाकार बचे हैं और न ही कद्रदान। कलाकारों ने नौटंकी की बजाय अब दूसरा पेशा चुन लिया। आखिर उन्हें भी तो अपनी रोजी-रोटी चलानी है। नौटंकी में कविता और साधारण बोलचाल की भाषा इस्तेमाल की जाती थी। तुकबंदी के जरिए संवाद किया जाता। नौटंकी में सारंगी, तबले, हारमोनियम और नगाड़े जैसे वाद्य इस्तेमाल होते हैं। तुकबंदी को उदाहरण से समझिए- सुल्ताना डाकू है बड़ा होशियार, पुलिस भी जाती है उससे हार..


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