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शुक्रवार, 5 जून 2020

एक अधूरी लव स्टोरी...


Love Story
आठवीं कक्षा का रिजल्ट आ चुका था। इस बार भी मैं क्लास में अव्वल आया था। सबसे ज्यादा खुश अम्मा-पापा थे, क्योंकि हमारे क्लास टीचर ने पापा को मार्कशीट देते हुए कहा था, पंडित जी आपका लड़का पढ़ने में बहुत अच्छा है। रिजल्ट लेकर पापा घर आये औऱ सबके सामने ऐलान कर दिया कि अब वह मुझे आगे की पढ़ाई करने के लिए लखनऊ भेजेंगे। सुनकर मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा। खुशी के मारे खून दोगुनी गति से शरीर में दौड़ने लगा। पल भर में ही गांव के सत्तू, कल्लू और सुशील जैसे दर्जन भर लड़कों से खुद को विशेष महसूस करने लगा। दौड़-दौड़कर गांव में सबसे बता आया कि अब मैं लखनऊ में पढ़ूंगा। मेरे पांव तो जैसे जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। खुशी के मारे पागल हुआ जा रहा था, बिना यह सोचे कि मेरे किसान पापा इतने बड़े शहर में पढ़ने का खर्च कैसे उठाएंगे, जबकि दो बड़े भाई पहले से ही लखनऊ में रहकर पढ़ाई कर रहे थे। सबसे बड़े भाई सरकारी नौकरी में थे। बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। छोटी दो बहनें और तीन बड़े भाई गांव में ही पढ़ते थे। सबकी पढ़ाई का जिम्मा पापा और बड़े भइया के कंधों पर ही था।

आखिर वह दिन आ ही गया जब मुझे बड़े भाई के साथ लखनऊ जाना था। अम्मा ने पराठे और आलू की सब्जी बनाकर बांध दी थी। आम का अचार भी रखा था। इसके अलावा मैदा की नमकीन और लड्डू भी बांध दिये थे। कहा, अपना ध्यान रखना। पापा ने मन लगाकर पढ़ाई करनी की नसीहत देते हुए मुस्कराकर विदा किया। गांव से एक किलोमीटर दूर मेन सड़क थी, जहां लखनऊ की बस मिलनी थी। तमाम दोस्त छोड़ने आये थे। बस में बैठे-बैठे दिमाग में सिर्फ लखनऊ की ही तस्वीर घूम रही थी। प्रवेश परीक्षा के बाद विज्ञान वर्ग से मेरा एडमीशन इंटर कॉलेज में हो गया था जो न ज्यादा लोअर था और न हाई। शुरुआती दौर में स्कूल में एडजेस्ट करने में थोड़ी दिक्कत जरूर हुई, लेकिन फिर सब सामान्य हो गया। मैं मन लगाकर पढ़ाई करने लगा, लेकिन पता नहीं कैसे मेरे दिल में किसी के लिए जगह बनती जा रही थी। सामने के किरायेदार की बेटी को मैं मन ही मन चाहने लगा था। उसे देखते ही मेरे दिल का इंजन धक-धक का स्टार्ट हो जाता।


भाई ने पुराने लखनऊ में किराये का मकान ले रखा था जो तीन मंजिला था, जिसमें एक फ्लोर पर दो किरायेदार रहते थे। मकान मालिक का घर दूसरे मोहल्ले में था। वह केवल किराया लेने ही आता था। हम दूसरे तल पर रहते थे जिसमें एक गुप्ता परिवार रहता था। वे लोग काफी व्यवहार कुशल थे। मिस्टर गुप्ता जिनकी उम्र लगभग 42 वर्ष थी, सोनार की दुकान पर काम करते थे। उनके दो बेटे और अलख सबसे छोटी थी। बड़ा भाई प्राइवेट जॉब करता था और छोटा भाई पढ़ाई। आठवीं में पढ़ रही अलख नटखट और बेहद सुन्दर थी। घर में वह सबकी चहेती थी। उसकी मम्मी का स्वभाव बहुत ही अच्छा था। मेरे भोलेपन, सीधे और शर्मीले स्वभाव के कारण वह मुझे प्यार से 'चिन्कू' कहती थीं।


लखनऊ में तीन भाई और चाचा के लड़के साथ में रहते थे। खाना हम सभी को खुद ही खाना बनाना पड़ता था, जिसमें नमक कम कभी ज्यादा हो जाता था। कई बार बड़े भाई की डांट भी सुननी पड़ती थी। शुरू-शुरू में खाना बनाने में मुझे गांव की याद आ जाती थी। अक्सर मैं खिचड़ी ही बना लेता था जोकि सबसे सरल काम था। अलख की मम्मी कभी-कभी खाना बनाने में मेरी मदद कर देती थीं और कभी-कभी अलख से ही काम करवा देती थीं। हमारे घर में टीवी तो थी नहीं, क्योंकि हम सब पढ़ाई करते थे। घर में जब मैं अकेला होता तो अक्सर अलख की मम्मी मुझे सीरियल देखने के लिए अपने घर में बुला लेती थीं। मैं मेन गेट बंद करके देखता कि कहीं भाई न आ जायें और मुझे डांट खानी पड़े। क्योंकि वह चाहते थे कि मेरा ध्यान केवल पढ़ाई पर रहे।


ऐसा चलता रहा और पता नहीं कब मेरे दिल में प्यार का कमल खिलने लगा। पता नहीं कब मेरे दिल में अलख के प्रति अजीब सा आकर्षण पैदा हो गया था। अब मुझे भाइयों के बाहर जाने और सीरियल आने का इंतजार रहता कि कब हम अलख के घर टीवी देखने जाएं और कनखियों से उसे देखता रहूं। वह भी ऐसा करती थी, लेकिन जब कभी हमारे नैना दो-चार होते, नजरें झुक जातीं और सांसों की धौंकनी तेज-तेज चलने लगती। कई बहानों से मैं अलख को अपने घर बुलाता और चाहता कि वह अधिक से अधिक नजदीक रहे और मैं उसके सामीप्य को महसूस करता रहूं। मन ही मन मैं उसे चाहने लगा था। उसे देखते ही मेरे मन में पटाखे छूटने लगते पर कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। डर था कहीं उसे बुरा न लग जाये और मेरे भाइयों को पता न चल जाये।


धीरे-धीरे समय बीतता गया। मुझे महसूस होने लगा कि उसके दिल में भी मेरे प्रति कुछ तो जरूर है। कहीं न कहीं वह भी मेरा इंतजार करती थी। अक्सर वह भी किसी बहाने मेरे पास आना चाहती थी, ऐसा मुझे महसूस होने लगा था। हम लोग एक दूसरे को समझने के बावजूद कभी कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। वह भी मेरी तरह अपने घरवालों से डरती थी। हमने कभी एक-दूजे से भले ही कभी कुछ बोला नहीं, पर तड़प महसूस जरूर करते थे। लगभग हर महीने के अंत में गांव जाता था, पर जबसे उससे नजदीकियां बढ़ीं गांव आने का मन नहीं करता था। आता भी तो मुश्किल से 1-2 दिन ही रुकता। पढ़ाई का नुकसान होने की बात कहकर फिर लखनऊ चला जाता। धीरे-धीरे मैं उसे बहुत चाहने लगा था, पर कभी कह नहीं सका कि तुम मेरे दिल पर राज करती हो।


उसके स्कूल में एनुअल फंक्शन था, जिसमें उसका डांस था। झांकी में उसे सरस्वती का रोल मिला था। कार्यक्रम से दो दिन पहले शाम को वह चुपके से मुझे मिली और कार्यक्रम में आने का आग्रह किया। मेरा मन सागर के लहरों की तरह हिलोरे लेता बेसब्री से उस दिन का इंतजार कर रहा था। मैं यह सोच-सोचकर पागल हुआ जा रहा था मुझे उससे अकेले में घंटों बात करने, उसे देखने को मिलेगा। वह पल बेहद करीब था, जिसका मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा था। पक्का याद है कि उस रात मुझे ठीक से नींद नहीं आई थी। पूरी रात करवट बदलते ही बीती थी। मैं सुबह तीन बजे ही उठ कर बैठ गया। बेचैनी बढ़ी तो पढ़ने की कोशिश, लेकिन न तो पढ़ने में मन लग रहा था और न नींद ही आ रही थी। चार बजे के करीब अलख के फ्लैट में बत्ती जली। आहट सुनी तो जाना कि वह अलख ही थी जो चहक-चहक कर सबको जगा रही थी। करीब घंटे भर बाद वह मुझे दिखी। उस वक्त वह लगभग तैयार हो चुकी थी। स्कूल जाने से पहले धीरे से मेरे पास आई और कहा, प्लीज आना जरूर। अंधा और क्या चाहे...


उस दिन मैं बहुत खुश था। बार-बार आइने के सामने खुद को निहार रहा था, पर भाइयों की नजरें बचाकर। पेट दर्द का बहाना बनाकर आज मैंने स्कूल भी मिस कर दिया था। भाई गये तो मैं भी बन-ठनकर उसके स्कूल पहुंच गया। गेट पर ही गार्ड ने मुझे रोक लिया क्योंकि वह गर्ल्स कॉलेज था। मैं मायूस लौटने ही वाला था कि वह दौड़ती हुई आई जो शायद बेसब्री से मेरा ही इंतजार कर रही थी। उसने गार्ड से कहा, यह मेरे दोस्त हैं मैंने बुलाया है। पहली बार उसके मुंह से दोस्त शब्द सुना तो जेठ की भरी दुपहरी में भी मेरा मन मयूर नाच उठा था। स्टेज के सामने मैं सबसे आगे बैठ गया। तभी सरस्वती के वेष में वह हरे किनारे वाली सफेद साड़ी में लिपटी मुझे जमाने की सबसे खुबसूरत परी लग रही थी। मैं अवाक एकटक उसे ही देखे जा रहा था। मुझे देखकर वह हल्के से मुस्कराई, मानों मुझे जहां की खुशियां मिल गई हों। 


झांकी के बाद डांस प्रोग्राम शुरू हुआ, जिसमें वह लाल रंग का लहंगा चुनरी पहने हुई थी। डांस करने वाली 7 लड़कियों में वह ग्रुप लीडर थी। पता नहीं कब मैं खड़ा होकर तालियां बजाने लगा। सब मेरी तरफ आश्चर्य से देखे जा रहे थे। मैं बेखबर मंत्रमुग्ध सा तालियां बजाता रहा। एक स्कूल टीचर ने जब मेरे पास आकर बैठने को कहा तो मुझ पर घड़ों सा पानी पड़ गया था। मैं चुपचाप बैठ गया पर उसे ही देखे जा रहा था। जिस गाने पर उसने डांस किया था वह आज भी मुझे याद है। गाना याद आते ही मेरी आंखों के सामने वह मनोरम सा दृश्य घूम जाता है। उस गाने के बोल थे- 'अपन देखि कै खलिहन्वा मोरा जियरा जुड़ाय'...


कार्यक्रम जैसे ही संपन्न हुआ वह मेरे पास आई और पूछने लगी डांस कैसा था? भला मुझे और क्या कहना था..? आज वह इतनी सुन्दर लग रही थी कि मैं उसे सामने से देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। थोड़ी देर बातें की। फिर उसने कहा, चलो घर चलें। मैंने उससे कहा, यार मेकअप धुल लो। आज तुम इतनी सुन्दर लग रही हो कि मुझे साथ चलने में शर्म लग रही है।


उसके बाद हम अधिकतम समय साथ-साथ बिताते और चुपके से वह मुझे कुछ न कुछ खिलाती रहती। ऐसा महीनों चलता रहा, लेकिन हम दोनों एक दूसरे को कभी प्रपोज नहीं कर पाये। एक दिन मैंने सारी हिम्मत जुटाकर धड़कते दिल से उसके सामने प्यार का इजहार कर ही दिया। उस वक्त दिल इतनी तेजी से धाड़-धाड़ धड़क रहा था मानो पसलियों को तोड़कर बाहर आ जाएगा। वह बिना कुछ बोले वहां से चली गई और मुझसे दो दिनों तक बात नहीं की। लगा कि नाराज हो गई है। डर भी था कि कहीं भाई से न कह दे। मैंने भगवान से खूब प्रार्थना की और मन्नतें मांगी। एक दिन वह चुपके से आई और मुस्कराते हुए आई लव यू टू (I Love You Too) बोलकर भाग गई। आज मैं खुद को शाहंशाह से कम नहीं समझ रहा था क्योंकि मेरी मुमताज ने मेरे लव प्रपोजल को एक्सेप्ट किया था। धीरे-धीरे हम दोनों एक दूजे की जान होते गए। दिन में जब तक दूसरे को देखते नहीं चैन नहीं मिलता अक्सर हम छिप-छिपकर मिलते रहते। शायद उसके भाई को शक था, इसलिए वह निगरानी किये रहता था। उसकी अनुपस्थिति का फायदा उठाकर हम दोनों मिलते। बातें करते और उसकी गोद में सिर रखकर लेटा रहता। वह मेरे बालों में उंगलियों से कंघी करती जाती। हम दोनों अपने सतरंगी सपनों में खोये रहते।


हमारा प्रेम एक पवित्र प्रेम था। दोनों दिल की गहराइयों से एक-दूसरे को प्यार करते थे। आजकल जैसे जमाने की हवा चल रही है, वैसा तो बिल्कुल भी नहीं था। मैंने कभी उसे टच करने की कोशिश नहीं की और न ही हम दोनों ने कभी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया था जिससे हम समाज और खुद की नजरों में गिर जाते। दोनों का एक-दूसरे के सामने होना ही हमें सारे जहां की खुशियां दे जाता था। वह मेरे जीवन का पहला प्यार और सुखद एहसास था। चोरी-छिपे हमारे मिलन का सिलसिला यूं ही लगातार चलता रहा। कभी हम रूठते तो कभी वह। ऐसा करते-करते पता नहीं कब 18 महीने गुजर गये।


बोर्ड एग्जाम शुरू हो चुके थे। मेरा पूरा फोकस पढ़ाई पर ही था। वह भी कहती पढ़ाई करो। कभी-कभी हम समय निकाल कर मिल जरूर लेते थे। परीक्षा होने के बाद वह क्षण आ गया जिसे मैं नहीं आने देना चाहता था। पापा का सन्देश आया कि पेपर हो गये हैं, कुछ दिन घर पर रहो आकर। भैंस भी दूध दे रही है। मन उदास, आंखें नम और दिल में अथाह पीड़ा थी। जल्द आने का वादा कर बुझे मन से अलख से विदा ली। वह खिड़की के पीछे से मुझे जाते हुए देखती रही। इस बार गांव में अच्छा नहीं लग रहा था। जैसे-तैसे वक्त कटा और फिर वह समय आ ही गया जब मुझे लखनऊ जाना था। दोस्तों और घरवालों से विदा लेकर निकल पड़ा। रास्ते भर सिर्फ अलख के बारे में ही सोचता रहा। उसकी यादों को दिल समेटे मैं जल्दी-जल्दी लखनऊ पहुंचना चाहता था। बस से उतरते ही मैं घर की ओर भागा। मेरे कान उसकी आवाज सुनने को बेताब थे और आंखें जल्द से जल्द उसका दीदार करना चाहती थीं। धीरे से मेन गेट धकेला, क्योंकि उसे सरप्राइज देना चाहता था। गांव से उसके लिए स्पेशल पेड़े जो लेकर आया था। अलख का फ्लैट बंद देखा तो मेरे पैरों से जमीं खिसक गई और मुझे चक्कर सा आने लगा। उसके दरवाजे में ताला पड़ा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं? मैं बुझे मन से अपने फ्लैट में गया। भाई से पूछा सामने वाले अंकल कहां गये? उन्होंने बताया कि उनके छोटे बेटे ने मोहल्ले में मारपीट की थी जिससे ज्यादा विवाद हो गया और वह लोग रात में ही सामान लेकर चले गए थे। यह भी नहीं कि कहां गये। उन दिनों आज की तरह मोबाइल की भी सुविधा नहीं थी।


अगले दिन मैं उस दुकान पर गया जहां, अलख के पापा और भाई काम करते थे। पता चला कि वे लोग कई दिनों से यहां आये ही नहीं। कई बार स्कूल गया, पता चला कि उसका नाम अटेंडेंस रजिस्टर से कट चुका था। उससे मिलने की आस लगातार धूमिल होती जा रही थी। मेरी पढ़ाई चौपट हो रही थी। उसकी याद में मेरी आंखों से अक्सर गंगा-जमुनी की धार सी बह निकलती। छिप-छिपकर मैं रोता रहता। दवा लेने के बावजूद मेरी तबियत खराब होती जा रही थी। पापा के कहने पर भाई ने गांव भेज आये। मेरा तो जैसे सब लुट ही चुका था। दोस्तों ने बहुत समझाया, पर मुझे रह-रहकर उसकी याद मुझे बेचैन करती रही। तबियत ठीक हुई तो मुझे फिर से लखनऊ भेज दिया गया, क्योंकि मेरी पढ़ाई चौपट हो रही थी।


अलख के फ्लैट में दूसरे किरायेदार आ चुके थे, लेकिन मेरी दुनिया उजड़ सी चुकी थी। वापस आने के बाद मैं पूरा लखनऊ छानता रहा कि शायद वह या उसके घर का कोई भी सदस्य मुझे मिल जाये, पर कुछ भी पता न चल सका। मुझे जहां भी पता चलता कि कोई मकान किराये पर है, जाकर पता लगाता कि शायद वे लोग यहां रह रहे हों। लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। मैं वर्षों उसका इंतजार करता रहा, शायद किसी मोड़ पर मिल जाये पर ऐसा आज तक न हो सका। पता नहीं क्या हुआ और कहां चले गए वो लोग? 


मेरी तरह उसकी शादी भी हो गयी होगी और खुशी-खुशी अपना जीवन व्यतीत कर रही होगी, लेकिन उसे मेरी याद जरूर आती होगी। मुझे तो आज भी जब वह याद आती है, मन विचलित सा हो जाता है। उसकी वही शरारती और सुंदर छवि मेरी आंखों में घूम जाती है। लगता है कि शायद उससे कहीं मुलाकात हो जाये। अब तो सिर्फ इसी गाने पर भरोसा है- छोटी सी दुनिया पहचाने रास्ते हैं कभी तो मिलोगे पूछेंगे हाल...