वैसे तो राजनैतिक लोग और राजनीतिक दल हर कदम फूंक-फूंक कर ही रखते हैं,कभी भी कोई काम ऐसा नहीं करते, किसी भी ऐसे कानून को सहमति नहीं देते, जिसके तहत कोई उन पर उंगली उठाने का साहस कर सके। ऐसे ही हर नियम और कानून का समर्थन करते हैं जिससे वो परे हों, लेकिन अनजाने में ही उनसे एक गलती हो गई और भूलवश जनता के हाथ में एक ऐसा हथियार थमा बैठे जिसने नौकरशाहों के साथ-साथ उनकी नाक में भी दम कर दिया। यह बात तो जगजाहिर है कि कितने दबावों के बाद उन्हे आरटीआई लाने को विवश होना पड़ा। खैर ये मामला दूसरा है कि किन परिस्थितियों के चलते उन्हे इस कानून को पारित करवाना पड़ा था। लेकिन उन्होने ऐसा सोचा भी नहीं था कि सूचना के अधिकार कानून के तहत कभी उन्हे अपने ही बनाये मकड़जाल में फंसना पड़ सकता है।
राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार से बाहर रखने के लिए आनन-फानन में तमाम कोशिशें की जाने लगीं। आखिरकार, प्रधानमंत्री आवास पर केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में उनकी मुराद पुरी हो गई और बैठक में राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार से बाहर रखने की मंजूरी मिल गई। केंद्रीय कैबिनेट ने सूचना के अधिकार के कानून में संशोधन के प्रस्ताव को मंजूर करते हुए आपस में सहमत हो गये।
अब आम और ख़ास लोगों के मन में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि खुद को जनता का सेवक कहलाने वाले, अपने को लोकतंत्र का मसीहा बताने वाले जननेताओं और उनके दलों में ऐसा क्या है, जिसे वे सार्वजनिक नहीं करना चाहते। इसका मतलब कि आपकी पार्टी में लेनदेन की व्यवस्था पाक-साफ नहीं है, आपकी पार्टी में कुछ ऐसी गतिविधियां जरूर चल रही हैं, जिसे आप जनता के सामने नहीं लाना चाहते। देश के कथित कर्णधारों से जनता जानना चाहती है कि आपके दल में ऐसा क्या चल रहा है जिसको छुपाने के लिए सूचना के अधिकार कानून में ही बदलाव करने पर सहमत हो गये।
चुनाव सुधारों की दिशा में वैसे तो चुनाव आयोग द्वारा समय-समय पर कई कोशिशें की गईं। चुनावी दलों को निष्पक्ष चुनावी प्रक्रियाओं के लिए चुनाव आयोग ने कई सुझाव भी दिए, लेकिन हमेशा की तरह राजनीतिक दलों न मानना था और न ही माने। आखिरकार सीआईसी यानि मुख्य सूचना आयुक्त ने कहा, कि सूचना के अधिकार के दायरे में तमाम बड़े राजनीतिक दल भी आने चाहिए। चुनावी दल भी जनता के प्रति जवाबदेह हैं, इसलिए उसे जानने का हक है कि खुद को जनता का सेवक कहलाने वाले राजनीतिक दलों के पास पैसे कहां से आते हैं, किन मदों से आते हैं, और इन पैसों का सियासी दल किस तरह से इस्तेमाल करते हैं।
फैसले से राजनीतिक हलकों में हडकंप मच गया,चारों तरफ तमाम तरह की बयानबाजियों का दौर शुरू हो गया। आश्चर्य था कि एक-दूसरे से कभी किसी मुद्दे पर सहमत न रहने वाले तमाम सियासी सूरमा एक ही सुर में राग अलापने लगे। भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, शिक्षा जैसे मुद्दों पर कभी एकमत न रहने वाले नेता आरटीआई के मुद्दे पर जरूर सहमत दिख रहे हैं। उन दलों के नेतागण जिनकी पार्टियों को सूचना के अधिकार के दायरे में आना था खुलकर इसके विरोध में आ गये। खुद को गरीबों का हिमायती, आम आदमी की आवाज और जनसेवक बताने वाले धुरंधरों की असलियत आखिरकार सामने आ ही गई। राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार से बाहर रखने के लिए आनन-फानन में तमाम कोशिशें की जाने लगीं। आखिरकार, प्रधानमंत्री आवास पर केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में उनकी मुराद पुरी हो गई और बैठक में राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार से बाहर रखने की मंजूरी मिल गई। केंद्रीय कैबिनेट ने सूचना के अधिकार के कानून में संशोधन के प्रस्ताव को मंजूर करते हुए आपस में सहमत हो गये।
अब आम और ख़ास लोगों के मन में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि खुद को जनता का सेवक कहलाने वाले, अपने को लोकतंत्र का मसीहा बताने वाले जननेताओं और उनके दलों में ऐसा क्या है, जिसे वे सार्वजनिक नहीं करना चाहते। इसका मतलब कि आपकी पार्टी में लेनदेन की व्यवस्था पाक-साफ नहीं है, आपकी पार्टी में कुछ ऐसी गतिविधियां जरूर चल रही हैं, जिसे आप जनता के सामने नहीं लाना चाहते। देश के कथित कर्णधारों से जनता जानना चाहती है कि आपके दल में ऐसा क्या चल रहा है जिसको छुपाने के लिए सूचना के अधिकार कानून में ही बदलाव करने पर सहमत हो गये।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें