गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

फसल नुकसान पर मुआवज़े का ‘झुनझुना’

उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान हो या फिर अन्य कोई राज्य फसल नुकसान के सदमे ने सैकड़ों किसानों को मौत के मुंह में धकेल दिया। हर साल सैकड़ों किसान आत्महत्या की मूक गवाही देने वाले देश में किसान आत्महत्या का मीटर तेजी से बढ़ने के लिए इतनी तबाही काफी थी

हालांकि मोदी सरकार के मंत्री दावा कर रहे हैं कि वह बर्बाद हुए किसान के साथ खड़े हैं। इतना ही नहीं, खुद केन्द्र और राज्य ने नियमों से परे जाकर किसानों को मदद की बात कही थी, पर सच यह है कि अब तक किसानों को कोई मदद नहीं मिली है। बारिश-ओलावृष्टि से से आहत हुए किसानों का अब सरकारी लीपापोती से भरोसा उठने लगा है। सब्र जवाब दे रहा है। क्योंकि राहत का झुनझुना अभी भी किसानों से कोसों दूर है। यह हाल तो तब है जब सरकार खुद किसानों का दर्द जानने खेतों तक पहुंची थी। सैकडों विधायकों को विधानसभा से छुट्टी देकर उनके क्षेत्रों में भेजा गया। लेकिन रिजल्ट वही ढाक के तीन पात


मुआवज़ा कितना और कब मिलेगा? और क्या फसल बीमा की तमाम योजनाएं वाकई किसान के काम आएंगी?  सवाल का जवाब देते हुए लगातार विरोध प्रदर्शन में जुटे भारतीय किसान यूनियन के बुंदेलखंड अध्यक्ष बताते हैं, ''अभी तो किसानों को पिछले साल रबी सीजन में हुए नुकसान के चेक ही आ रहे हैं.'' ऐसे में अब हफ्ते-दस दिन में राहत राशि मिलने की उम्मीद जताना बेइमानी होगा। यही हाल देश के तमाम राज्यों का है।

मुआवज़ा देने की एक तय प्रक्रिया है। थोड़े बहुत अंतर के साथ सभी राज्यों में यही दास्तान है। बीमा या फसलों की बर्बादी का मुआवजा तभी मिलता है जब एक ब्लॉक के 70 प्रतिशत भूमि पर नुकसान हुआ हो। झांसी के ही किसान रामनरेश बताते हैं कि हर खेत में पचास प्रतिशत नुकसान का होना ज़रूरी है तभी मुआवज़े की राशि तय होगी। पटवारी मानता ही नहीं है कि सत्तर प्रतिशत खेतों में नुकसान हुआ है। अगर वो मान भी लिया तो हर खेत के नुकसान को 50 प्रतिशत से कम बता देता है जिससे मुआवज़े पर दावेदारी कम हो जाती है। मुआवज़ा मिल भी गया तो 20 या पचास रुपये से ज्यादा नहीं मिलता है।

सरकारों ने एकड़ के हिसाब से जो मुआवज़ा तय कर रखा है वो साढ़े तीन हज़ार के आस पास ही है। जबकि एक एकड़ ज़मीन में गेहूं बोने पर आठ से दस हज़ार की लागत आती है। आलू का खर्चा पंद्रह हज़ार के करीब बैठता है। फसल अच्छी हो कमाई तीस से पचास हज़ार के बीच होने की उम्मीद रहती है। यानी राहत या बीमा की राशि इनती कम हो कि लागत भी न निकले।

देश में मुआवजा बांटने की प्रक्रिया ही इतनी पुरानी और सुस्त है कि किसान कितना भी धरना-प्रदर्शन कर लें, मुआवजा मिलने में महीनों और पूरा मुआवजा मिलने में सालों लग जाएंगे। क्योंकि मुआवजे का सर्वे लेखपाल ही करते हैं और उनकी कार्यप्रक्रिया किसी से भी छिपी नहीं है। चलिए माना कि वो जांच में थोड़ी पारदर्शिता दिखाते भी हैं तो कितने दिनों में वे ऐसा कर पाएंगे।

मिसाल के तौर पर झांसी जिले को ही ले लें। यहां कोई 600 राजस्व गांव हैं, जिनमें करीब 2.5 लाख किसान हैं और उनका सर्वे करने के लिए मात्र लगभग 200 लेखपाल तैनात हैं। यानी एक लेखपाल के पास औसतन 3 राजस्व गांव और डेढ़ से दो हजार खाते हैं। नियम के मुताबिक लेखपाल को एक-एक खेत में जाकर वहां हुए नुकसान का सर्वे करना होता है। ऐसे में हफ्ते भर के अंदर अगर कोई लेखपाल हर खेत में हुए नुकसान का पूरा ब्योरा दर्ज कर लेता है तो दुनिया का आठवां अजूबा ही माना जाएगा।


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