डॉलर के मुकाबले जिस तरह रुपया लगातार गिरता जा रहा है, साफ दिखता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही है। राजनीति में नैतिकता की तरह रुपये का पतन होता जा रहा है। अभी तक डॉलर के मुकाबले रुपया कभी इतना कमजोर नहीं हुआ था और न ही कभी इससे पहले रुपये की ऐसी दुर्गति हुई थी। अर्थव्यवस्था मेंं मुद्रा स्फीति से कोहराम मचा हुआ है। देशी-विदेशी लोगों का भारतीय अर्थव्यवस्था से वि·ाास उठता जा रहा है, उनमें भय का माहौल बना हुआ है। रुपये की दोहरी मार से भारतीय अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है। निवेशक बाजार में लगा अपना पैसा खींच ले रहे हैं। जिसके चलते भारतीय बाजार धड़ाम से गिरा जा रहा है।
आज जैसे हालात बने हुए हैं हाल फिलहाल नहीं लगता है कि जल्दी ही स्थिति सुधरेगी। भारतीय बाजारों से तेजी से विदेशी मुद्रा का पलायन हो रहा है, जिससे लगातार मुद्रा का अवमूल्यन होता जा रहा है। जिसका प्रभाव सकल घरेलू उत्पाद यानि की जीडीपी की ग्रोथ पर पड़ा है और जीडीपी में भी काफी में काफी गिरावट आई है। मुद्रा स्फीति के लिए कई महत्वपूर्ण कारण हैंं जिन पर बिना ध्यान दिये स्थायी तौर पर मुद्रा अवमूल्यन की समस्या से नहीं निबटा जा सकता है। हालांकि सरकार मुद्रा की रोकथाम के लिए आरबीआई के साथ मिलकर कई ठोस कदम उठाने की बात कह रही है जो शायद नाकाफी हैं।
दो साल पहले रुपये की कीमत लगभग पैंतालिस रुपये थी आज जिसकी कीमत 65 रुपये तक पुहंच गई है। ऐसी हालत केवल भारत की ही नहीं बल्कि और भी कई देशों की है। लेकिन उनकी अर्थव्यवस्था इस कदर औंधे मुंह नहीं गिरी, क्योंकि उनकी विदेशी निर्यात नीति मजबूत है।
भारतीय अर्थव्यवस्था उधारी मुनाफे पर टिकी हुई है। इसको सीधे शब्दों में समझें तो भारत का राजकोषीय घाटा सीधे-सीधे विदेशी कंपनियों के मुनाफे पर आधारित है। हम जो भी मुनाफा कमा रहे हैं विदेशी कंपनियों के जरिये ही कमा रहे हैं और उसके मुनाफे से ही हमारी जीडीपी में विकास हुआ है। भारत निर्यात के मामले में अन्य देशों से बहुत ही पिछड़ा है। विदेशी खासकर अमेरिकी कंपनियों के भारत से हाथ खींचने के चलते भी मुद्रा का अवमूल्यन हो रहा है। शायद हम वि·ा के उन देशों तक अपना माल (स्वनिर्मित) पहुंचाने में सफल नहीं हो पा रहे हैंं जहां हमारे सामान की जबरदस्त जरूरत और मांग है।
जिस देश के प्रधानमंत्री एक जानेमाने अर्थशास्त्री हों वहां की अर्थव्यवस्था की ऐसी दुर्दशा शायद हास्यास्पद ही लगती है। हमारे अर्थशात्री दीर्घकालिक लाभ के लिए शायद कोई ठोस योजना बनाने में सफल नहीं हो सके हैं। जिसके चलते आज रुपया रो रहा है, रुपये की सेहत में सुधार कब होगा कहना मुश्किल है और शायद हमारी निर्यात नीति एकदम फेल हो चुकी है। आजादी के समय रुपया और डॉलर की कीमत लगभग एक बराबर थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के 66 सालों बाद बाद रुपया 77 के आंकड़ों को छूने को लालायित दिखता है।
अधिकांशत: भारतीय अर्थव्यवस्था लघु उद्योगों और कृषि क्षेत्र पर आधारित है और उसी पर निर्भर करती है। हमेशा से ही कृषि और लघु उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था की बैकबोन यानि की रीढ़ की हड्डी रहे हैं। फिर हमने इस हकीक़त से मुंह क्यों मोड लिया है ? हमारे नीति नियंताओं ने इस तरफ से आंखे क्यों मूंद लीं ? इस तथ्य को समझते हुए भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था। आज हमारे देश में जवानों की हालत किसी से छिपी नहीं है और किसानों की हालत अत्यंत दयनीय और सोचनीय है। कृषि प्रधान देश में कर्ज के बोझ तले दबे हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, या करने को मजबूर हैं। भारत में लघु उद्योग लगभग बंद होने की कगार पर हैं। हमारे नीति नियंता अमेरिकी चकाचौंध में इस बेसिक नीड को ही भुला चुके हैं। शायद यही कारण है कि आज भारतीय बाजार धड़ाम से औंधे मुंह गिरा हुआ है और बाजार में कोहराम छाया हुआ है।
सरकार की मानें तो लोगों द्वारा सोने की अधिक खरीददारी करने के चलते बाजार की हालत खस्ता हो चली है। जिसको लेकर सोने के आयात पर रोक भी लगा दी गई है। लेकिन क्या इससे रुपये की हालत सुधरी ? सोचने वाली बात यह भी है आज लोग सोने में निवेश क्यों कर रहे है ? आज भी सोना ही निवेश करने के लिए उचित माध्यम क्यों बना हुआ है ? दरअसल बाजार की हकीकत किसी से छिपी नहीं है ऐसे में शेयर बाजार में पैसे लगाना या बैंकों में किसी भी फंड के तहत पैसे जमा करना आज मूर्खतापूर्ण कदम हो सकता है, जबकि सोने में निवेश में किसी भी प्रकार से नुकसान की गुंजाइश नहीं है।
बढ़ती महंगाई के लिए मुद्रा स्फीति भी काफी हद तक जिम्मेदार रही है। मौजूदा समय में महंगाई इस कदर हावी है कि लोगों को बैंक में पैसे डालना या जमा रखना कितना मुश्किल हो रहा है। भारतीय बाजार में इस कदर महंगाई हावी है कि आम आदमी का जीना मुहाल हो गया है। पिछले कई दशकों से गरीबों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है, गरीब और गरीब होते गये, जबकि पूंजीपतियों की संख्या बढने के कारण पूंजीवाद को बढ़ावा मिला है। इसके अवाला उदारीकरण की नीति भी मुद्रा अवमूल्यन के लिए उत्तरदायी है।
आज हमारे अर्थशास्त्रियों को रुपये की मजबूती के लिए दीर्घकालिक योजनाएं बनाने की जरूरत है। अमेरिका की तरह आगामी पचास वर्षों के लिए आर्थिक नीति बनाना चाहिए न कि चुनावी फायदे के लिए अल्पकालिक। आर्थिक क्षेत्र में क्रांति लाने के लिए हर हालत में महंगाई पर काबू पाना होगा, बाजार व्यवस्था पर लोगों का भरोसा कायम कराना होगा, विदेश नीति में सुधार करना होगा और साथ ही भारत को कृषि क्षेत्र में नित नये आयामों को भी छूना होगा। जब तक भारत लघु उद्योगों और कृषि के क्षेत्र में उन्नति नहीं करेगा हमारी उन्नति की कल्पना करना भी बेईमानी है।
आज जैसे हालात बने हुए हैं हाल फिलहाल नहीं लगता है कि जल्दी ही स्थिति सुधरेगी। भारतीय बाजारों से तेजी से विदेशी मुद्रा का पलायन हो रहा है, जिससे लगातार मुद्रा का अवमूल्यन होता जा रहा है। जिसका प्रभाव सकल घरेलू उत्पाद यानि की जीडीपी की ग्रोथ पर पड़ा है और जीडीपी में भी काफी में काफी गिरावट आई है। मुद्रा स्फीति के लिए कई महत्वपूर्ण कारण हैंं जिन पर बिना ध्यान दिये स्थायी तौर पर मुद्रा अवमूल्यन की समस्या से नहीं निबटा जा सकता है। हालांकि सरकार मुद्रा की रोकथाम के लिए आरबीआई के साथ मिलकर कई ठोस कदम उठाने की बात कह रही है जो शायद नाकाफी हैं।
दो साल पहले रुपये की कीमत लगभग पैंतालिस रुपये थी आज जिसकी कीमत 65 रुपये तक पुहंच गई है। ऐसी हालत केवल भारत की ही नहीं बल्कि और भी कई देशों की है। लेकिन उनकी अर्थव्यवस्था इस कदर औंधे मुंह नहीं गिरी, क्योंकि उनकी विदेशी निर्यात नीति मजबूत है।
भारतीय अर्थव्यवस्था उधारी मुनाफे पर टिकी हुई है। इसको सीधे शब्दों में समझें तो भारत का राजकोषीय घाटा सीधे-सीधे विदेशी कंपनियों के मुनाफे पर आधारित है। हम जो भी मुनाफा कमा रहे हैं विदेशी कंपनियों के जरिये ही कमा रहे हैं और उसके मुनाफे से ही हमारी जीडीपी में विकास हुआ है। भारत निर्यात के मामले में अन्य देशों से बहुत ही पिछड़ा है। विदेशी खासकर अमेरिकी कंपनियों के भारत से हाथ खींचने के चलते भी मुद्रा का अवमूल्यन हो रहा है। शायद हम वि·ा के उन देशों तक अपना माल (स्वनिर्मित) पहुंचाने में सफल नहीं हो पा रहे हैंं जहां हमारे सामान की जबरदस्त जरूरत और मांग है।
जिस देश के प्रधानमंत्री एक जानेमाने अर्थशास्त्री हों वहां की अर्थव्यवस्था की ऐसी दुर्दशा शायद हास्यास्पद ही लगती है। हमारे अर्थशात्री दीर्घकालिक लाभ के लिए शायद कोई ठोस योजना बनाने में सफल नहीं हो सके हैं। जिसके चलते आज रुपया रो रहा है, रुपये की सेहत में सुधार कब होगा कहना मुश्किल है और शायद हमारी निर्यात नीति एकदम फेल हो चुकी है। आजादी के समय रुपया और डॉलर की कीमत लगभग एक बराबर थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के 66 सालों बाद बाद रुपया 77 के आंकड़ों को छूने को लालायित दिखता है।
अधिकांशत: भारतीय अर्थव्यवस्था लघु उद्योगों और कृषि क्षेत्र पर आधारित है और उसी पर निर्भर करती है। हमेशा से ही कृषि और लघु उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था की बैकबोन यानि की रीढ़ की हड्डी रहे हैं। फिर हमने इस हकीक़त से मुंह क्यों मोड लिया है ? हमारे नीति नियंताओं ने इस तरफ से आंखे क्यों मूंद लीं ? इस तथ्य को समझते हुए भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था। आज हमारे देश में जवानों की हालत किसी से छिपी नहीं है और किसानों की हालत अत्यंत दयनीय और सोचनीय है। कृषि प्रधान देश में कर्ज के बोझ तले दबे हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं, या करने को मजबूर हैं। भारत में लघु उद्योग लगभग बंद होने की कगार पर हैं। हमारे नीति नियंता अमेरिकी चकाचौंध में इस बेसिक नीड को ही भुला चुके हैं। शायद यही कारण है कि आज भारतीय बाजार धड़ाम से औंधे मुंह गिरा हुआ है और बाजार में कोहराम छाया हुआ है।
सरकार की मानें तो लोगों द्वारा सोने की अधिक खरीददारी करने के चलते बाजार की हालत खस्ता हो चली है। जिसको लेकर सोने के आयात पर रोक भी लगा दी गई है। लेकिन क्या इससे रुपये की हालत सुधरी ? सोचने वाली बात यह भी है आज लोग सोने में निवेश क्यों कर रहे है ? आज भी सोना ही निवेश करने के लिए उचित माध्यम क्यों बना हुआ है ? दरअसल बाजार की हकीकत किसी से छिपी नहीं है ऐसे में शेयर बाजार में पैसे लगाना या बैंकों में किसी भी फंड के तहत पैसे जमा करना आज मूर्खतापूर्ण कदम हो सकता है, जबकि सोने में निवेश में किसी भी प्रकार से नुकसान की गुंजाइश नहीं है।
बढ़ती महंगाई के लिए मुद्रा स्फीति भी काफी हद तक जिम्मेदार रही है। मौजूदा समय में महंगाई इस कदर हावी है कि लोगों को बैंक में पैसे डालना या जमा रखना कितना मुश्किल हो रहा है। भारतीय बाजार में इस कदर महंगाई हावी है कि आम आदमी का जीना मुहाल हो गया है। पिछले कई दशकों से गरीबों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है, गरीब और गरीब होते गये, जबकि पूंजीपतियों की संख्या बढने के कारण पूंजीवाद को बढ़ावा मिला है। इसके अवाला उदारीकरण की नीति भी मुद्रा अवमूल्यन के लिए उत्तरदायी है।
आज हमारे अर्थशास्त्रियों को रुपये की मजबूती के लिए दीर्घकालिक योजनाएं बनाने की जरूरत है। अमेरिका की तरह आगामी पचास वर्षों के लिए आर्थिक नीति बनाना चाहिए न कि चुनावी फायदे के लिए अल्पकालिक। आर्थिक क्षेत्र में क्रांति लाने के लिए हर हालत में महंगाई पर काबू पाना होगा, बाजार व्यवस्था पर लोगों का भरोसा कायम कराना होगा, विदेश नीति में सुधार करना होगा और साथ ही भारत को कृषि क्षेत्र में नित नये आयामों को भी छूना होगा। जब तक भारत लघु उद्योगों और कृषि के क्षेत्र में उन्नति नहीं करेगा हमारी उन्नति की कल्पना करना भी बेईमानी है।
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