आज एक बार फिर से वही कहानी दोहराई गयी,एक और बम धमाका,एक और दर्दनाक हादसा,एक बार और असहाय सरकार का असहाय बयान,झूठी सहानुभूति । सब कुछ पुराने जैसा देखने को मिला । लेकिन इस बार मृतकों और घायलों की संख्या में थोड़ा परिवर्तन देखने मिला ,इस बार ग्यारह बेगुनाहों को अपनी जान गंवानी पड़ी और लगभग सौ लोग घायल हो गये । उनका कसूर केवल इतना था कि वे उस भारत में रहते थे (जहाँ लोगों को अतिथि समझकर उनको सम्मान किया जाता ऱहा है अपनी जान देकर उनकी सुरक्षा की जाती रही है,आज उसी भारत की लगभग परिभाषा बदल सी गई है ,लोगों को खुद की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं रह गयी है ।)
वह भी दिल्ली में । जहां एक के बाद एक हादसे होते रहते हैं कभी राजनीतिक घोटाला तो कभी कभी आतंकी हमला । सरकारी नुमाइंदे,जिन पर सरकारी खजाने को लूटने के अलावा,लोगों के जान-माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी है ,उसके मंत्री,नेता धमाकों के समय कोई कैबरे में मस्त होता है तो कोई कैटवाक के मजे ले रहा होता है,तो कहीं कोई नये तरीके से देश के सबसे बड़े घोटाले को अंजाम देने की योजना बना रहा होता है ।
दूसरे शहरों की भला बात ही क्या है दिल्ली तो राजधानी है भारत की,या कहें दिल है भारत का,या फिर यह कहें दिल्ली वह शहर है जहाँ एक से बढ़कर एक छोटे-बड़े नेता सुरक्षा के कसीदे पढ़ते मिल जायेंगे ।
ये तो भला हो आतंकियों का कि हर बार दिल्ली,मुंबई जैसे महानगरों को ही निशाना बनाते हैं,या फिर दूसरे शब्दों में यह कहें कि हर बार सीने पर आकर वार करते हैं । क्योंकि यदि आप दिल्ली,मुंबई जैसे सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत शहरों की सुरक्षा नहीं कर सकते तो आम शहरों की बिसात ही क्या है..ऐसा लगता है जैसे आतंकी हर बार हमें मुँह चिढ़ाकर चले जाते है्ं और हम छोटे बच्चों की तरह पड़ोस वाले अंकल के घर शिकायत लेकर पहुँच जाते है । हमारे स्वायम्भू कर्णधार हमले में हुई चूक ढ़ूढ़ने के बजाय दूसरों पर आरोप लगाने से नहीं चूकते ।
पक्ष हो या विपक्ष आतंकी हमले पर केवल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिेए एक दूसरे पर आरोप लगाते रहते है्ं । शासन की तरफ से एक रटा-रटाया थका सा भाषण दे दिया जाता है,घायलों और मृतकों के परिजनों को चन्द पैसों का झुनझुना पकड़ा दिया जाता है और हम फिर से एक नये हमले, एक नये घोटाले का इन्तजार करने लगते हैं ।
आखिर कब तक यू्ं ही भारत का सीना छलनी होता रहेगा,कब तक आतंकी बेधड़क यूं ही भारत में मौत का नंगा नाच खेलते रहेंगे और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे,कब तक 'मुझे बचाओ-मुझे बचाओ' कहकर पश्चिचमी देशों के तलवे चाटते रहेंगे और कब हमारे खेवनहारों में इतनी हिम्मत आयेगी कि वे आतंक के खिलाफ कोई ठोस कदम उठा सकें । क्या सचमुच हम इतने कमजोर हो गये हैं कि अपनी सुरक्षा खुद नहीं कर सकते,या फिर जंग लग गयी है हमारे पूरे सिस्टम को या फिर कर्णधारों के पास फुरसत नहीं है देश की तरफ सोचने,देखने की ।
राजनीतिज्ञों के संबंध में बचपन में मेरा एक मित्र कहा करता था जो अब सही लगती है..
रुपयों की लूट है लूट सके तो लूट
अंत समय पछतायेगा जब कुर्सी जायेगी छूट ।
आतंकी हमलों के समय हमारे गृहमंत्री जी सोते रहते हैं,कभी रामदेव और उनके निरपराध समर्थकों को आधी रात के समय पीट-पीटकर भगा दिया जाता है,तो कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने वाले अन्ना और उनके समर्थकों को जेल में भर दिया जाता है । लेकिन जब सरेआम दिनदहाड़े आतंकी हमला होता है,कई मासूमों को अपने परिवारों से और जान से हाथ धोना पड़ता है,कईयों के सुहाग मिट जाते हैं और कई बूढे मां-बाप अपने जीवन के इकलौते सहारे को खो देते हैं । तब कहां चले जाते हैं हमारे सियासी शेर,आखिर कब तक हम इन निरपराध बेगुनाहों के खून से धरती को लाल होते देखते रहेंगे, कौन है इस सबका असली जिम्मेदार,'आतंकी' या सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार हमारे अधिकारी और नेतागण । आखिर कब हमारे गृहमंत्री साहब जागेंगे और कोई ठोस रणनीति बनाने की कोशिश करेंगे ।
आज अगर भारत जैसा विशाल लोकतांत्रिक देश आतंकी हमलों से जूझ रहा है तो इसका श्रेय हमारे शासन तंत्र या कह लीजिए भ्रष्ट तंत्र को ही जाता है न कि आतंकियों को,वो तो हमे आईना दिखा रहें हैं और हमारी सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोल रहे हैं ।
हमारे देश में भ्रष्टाचार की मुहिम चलाने वाले अन्ना को गिरफ्तार कर,रामदेव और उनके समर्थकों को आधी रात में मार भगाना बहुत आसान है । लेकिन सरकार कई लोगों की सरेआम जान लेने वाले आतंकियों का बाल-बांका भी नहीं कर पाती । कसाब,अफजल गुरू और खूंखार आतंकियों के खिलाफ भारत सरकार कितनी मजबूर है,उन पर सालों से मुकदमें चल रहें हैं,आज भी उन पर आम कैदियों की अपेक्षा कई गुना ज्यादा पैसे खर्च कर उन्हे सरकारी दामाद बनाये हुए है । वो कई बेगुनाह भारतीयों की जान लेकर भी भारत की ही जेल में मजे कर रहें हैं,उन्हे देखकर हमारा खून क्यों नहीं खौलता,क्यों इतने लाचार हो गये हैं हम..
यहाँ पर लक्ष्मण जी द्वारा कही एक चौपाई चरितार्थ होती है---
कादर मन कहुँ एक अधारा
दैव-दैव आलसी पुकारा ।।
जब तक हम खुद से कुछ नहीं करेंगे,कोई ठोस कदम नहीं उठायेंगे तब तक यूं ही खूनी खेल खेला जाता रहेगा,और हम लाचार मूक-दर्शक की भांति केवल देखते भर रहेंगे । जो देश या प्रशासन अपने नागरिकों की हिफाजत नहीं कर सकता उसे सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है ।
जिनके पास हम अपना दुखड़ा लेकर रोने जाते हैं क्या हमें उनसे सीख नहीं लेनी चाहिेए ।अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर एक बार हमला होता है,एक ही हमले से अमेरिकी सरकार,जो अपने नागरिकों के प्रति संवेदनशील है,बदले में अमेरिका ने ऐसी कार्रवाई की जिसे हम सब जानते हैं ।
आज हममें इतनी हिम्मत क्यों नहीं कि हम खुद अपने दुश्मनों को सबक सिखा सकें । अगर हमने शीघ्र ही कोई ठोस कदम नहीं उठाये तो वह दिन भी दूर नहीं जब हमारी हालत पाकिस्तान,अफगानिस्तान जैसी हो जायेगी ।
आज हमारा भारत देश बाहरी और भीतरी दोनो ही तरह के दुश्मनों के मकड़जाल में फंसता जा रहा है । ऐसा लगता है जैसे यह तन्त्र देश और नागरिक सुरक्षा के मामले में बिल्कुल ही संवेदनहीन हो गया है या फिर नपुंसक...
वह भी दिल्ली में । जहां एक के बाद एक हादसे होते रहते हैं कभी राजनीतिक घोटाला तो कभी कभी आतंकी हमला । सरकारी नुमाइंदे,जिन पर सरकारी खजाने को लूटने के अलावा,लोगों के जान-माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी है ,उसके मंत्री,नेता धमाकों के समय कोई कैबरे में मस्त होता है तो कोई कैटवाक के मजे ले रहा होता है,तो कहीं कोई नये तरीके से देश के सबसे बड़े घोटाले को अंजाम देने की योजना बना रहा होता है ।
दूसरे शहरों की भला बात ही क्या है दिल्ली तो राजधानी है भारत की,या कहें दिल है भारत का,या फिर यह कहें दिल्ली वह शहर है जहाँ एक से बढ़कर एक छोटे-बड़े नेता सुरक्षा के कसीदे पढ़ते मिल जायेंगे ।
ये तो भला हो आतंकियों का कि हर बार दिल्ली,मुंबई जैसे महानगरों को ही निशाना बनाते हैं,या फिर दूसरे शब्दों में यह कहें कि हर बार सीने पर आकर वार करते हैं । क्योंकि यदि आप दिल्ली,मुंबई जैसे सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत शहरों की सुरक्षा नहीं कर सकते तो आम शहरों की बिसात ही क्या है..ऐसा लगता है जैसे आतंकी हर बार हमें मुँह चिढ़ाकर चले जाते है्ं और हम छोटे बच्चों की तरह पड़ोस वाले अंकल के घर शिकायत लेकर पहुँच जाते है । हमारे स्वायम्भू कर्णधार हमले में हुई चूक ढ़ूढ़ने के बजाय दूसरों पर आरोप लगाने से नहीं चूकते ।
पक्ष हो या विपक्ष आतंकी हमले पर केवल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिेए एक दूसरे पर आरोप लगाते रहते है्ं । शासन की तरफ से एक रटा-रटाया थका सा भाषण दे दिया जाता है,घायलों और मृतकों के परिजनों को चन्द पैसों का झुनझुना पकड़ा दिया जाता है और हम फिर से एक नये हमले, एक नये घोटाले का इन्तजार करने लगते हैं ।
आखिर कब तक यू्ं ही भारत का सीना छलनी होता रहेगा,कब तक आतंकी बेधड़क यूं ही भारत में मौत का नंगा नाच खेलते रहेंगे और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे,कब तक 'मुझे बचाओ-मुझे बचाओ' कहकर पश्चिचमी देशों के तलवे चाटते रहेंगे और कब हमारे खेवनहारों में इतनी हिम्मत आयेगी कि वे आतंक के खिलाफ कोई ठोस कदम उठा सकें । क्या सचमुच हम इतने कमजोर हो गये हैं कि अपनी सुरक्षा खुद नहीं कर सकते,या फिर जंग लग गयी है हमारे पूरे सिस्टम को या फिर कर्णधारों के पास फुरसत नहीं है देश की तरफ सोचने,देखने की ।
राजनीतिज्ञों के संबंध में बचपन में मेरा एक मित्र कहा करता था जो अब सही लगती है..
रुपयों की लूट है लूट सके तो लूट
अंत समय पछतायेगा जब कुर्सी जायेगी छूट ।
आतंकी हमलों के समय हमारे गृहमंत्री जी सोते रहते हैं,कभी रामदेव और उनके निरपराध समर्थकों को आधी रात के समय पीट-पीटकर भगा दिया जाता है,तो कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने वाले अन्ना और उनके समर्थकों को जेल में भर दिया जाता है । लेकिन जब सरेआम दिनदहाड़े आतंकी हमला होता है,कई मासूमों को अपने परिवारों से और जान से हाथ धोना पड़ता है,कईयों के सुहाग मिट जाते हैं और कई बूढे मां-बाप अपने जीवन के इकलौते सहारे को खो देते हैं । तब कहां चले जाते हैं हमारे सियासी शेर,आखिर कब तक हम इन निरपराध बेगुनाहों के खून से धरती को लाल होते देखते रहेंगे, कौन है इस सबका असली जिम्मेदार,'आतंकी' या सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार हमारे अधिकारी और नेतागण । आखिर कब हमारे गृहमंत्री साहब जागेंगे और कोई ठोस रणनीति बनाने की कोशिश करेंगे ।
आज अगर भारत जैसा विशाल लोकतांत्रिक देश आतंकी हमलों से जूझ रहा है तो इसका श्रेय हमारे शासन तंत्र या कह लीजिए भ्रष्ट तंत्र को ही जाता है न कि आतंकियों को,वो तो हमे आईना दिखा रहें हैं और हमारी सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोल रहे हैं ।
हमारे देश में भ्रष्टाचार की मुहिम चलाने वाले अन्ना को गिरफ्तार कर,रामदेव और उनके समर्थकों को आधी रात में मार भगाना बहुत आसान है । लेकिन सरकार कई लोगों की सरेआम जान लेने वाले आतंकियों का बाल-बांका भी नहीं कर पाती । कसाब,अफजल गुरू और खूंखार आतंकियों के खिलाफ भारत सरकार कितनी मजबूर है,उन पर सालों से मुकदमें चल रहें हैं,आज भी उन पर आम कैदियों की अपेक्षा कई गुना ज्यादा पैसे खर्च कर उन्हे सरकारी दामाद बनाये हुए है । वो कई बेगुनाह भारतीयों की जान लेकर भी भारत की ही जेल में मजे कर रहें हैं,उन्हे देखकर हमारा खून क्यों नहीं खौलता,क्यों इतने लाचार हो गये हैं हम..
यहाँ पर लक्ष्मण जी द्वारा कही एक चौपाई चरितार्थ होती है---
कादर मन कहुँ एक अधारा
दैव-दैव आलसी पुकारा ।।
जब तक हम खुद से कुछ नहीं करेंगे,कोई ठोस कदम नहीं उठायेंगे तब तक यूं ही खूनी खेल खेला जाता रहेगा,और हम लाचार मूक-दर्शक की भांति केवल देखते भर रहेंगे । जो देश या प्रशासन अपने नागरिकों की हिफाजत नहीं कर सकता उसे सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है ।
जिनके पास हम अपना दुखड़ा लेकर रोने जाते हैं क्या हमें उनसे सीख नहीं लेनी चाहिेए ।अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर एक बार हमला होता है,एक ही हमले से अमेरिकी सरकार,जो अपने नागरिकों के प्रति संवेदनशील है,बदले में अमेरिका ने ऐसी कार्रवाई की जिसे हम सब जानते हैं ।
आज हममें इतनी हिम्मत क्यों नहीं कि हम खुद अपने दुश्मनों को सबक सिखा सकें । अगर हमने शीघ्र ही कोई ठोस कदम नहीं उठाये तो वह दिन भी दूर नहीं जब हमारी हालत पाकिस्तान,अफगानिस्तान जैसी हो जायेगी ।
आज हमारा भारत देश बाहरी और भीतरी दोनो ही तरह के दुश्मनों के मकड़जाल में फंसता जा रहा है । ऐसा लगता है जैसे यह तन्त्र देश और नागरिक सुरक्षा के मामले में बिल्कुल ही संवेदनहीन हो गया है या फिर नपुंसक...
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