बुधवार, 26 जून 2013

देवभूमि के देवदूत

उत्तराखंड में क़ुदरत के रौद्र ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। देवभूमि में प्राकृतिक आपदा ने हर तरफ लाशों का अंबार लगा दिया। उत्तरकाशी,केदारनाथ,रुद्रप्रयाग,चमोली,पिथौरागढ़,अल्मोड़ा और बागे·ार में बादल फटने, बाढ़ और भूस्खलन से जो तबाही का मंजर दुनिया के सामने आया,उसकी कल्पना शायद किसी ने नहीं की होगी। प्रकृति के आगे लोग बेबस और असहाय दिख रहे हैं,उत्तराखंड पूरी तरह बर्बाद,तबाह हो गया है।
किसी के मां-बाप तो किसी की बेटी - बेटा, रिश्तेदार या फिर किसी का पूरा परिवार चार धाम की यात्रा में गया हुआ था, मंजर ये है कि उनमें से  किसी की लाश मिली है तो कईयों पता ही नहीं चल पाया है। ऐसे समय में सेना ने मोर्चा संभाला है और सेना की मदद से कई लोग अपने परिवार से मिलने में सफल हो सके हैं। उत्तराखंड की त्रासदी से पूरे भारत में हाहाकार मचा हुआ है, चाहे राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश या बिहार हो या फिर भारत के दूसरे राज्य , हर सूबा अपने निवासियों की कुशलता को लेकर, भगवान से प्रार्थना कर रहा है, कि वो सुरक्षित एवं सकुशल हों।
आज चारों तरफ चीख-पुकार मची हुई है, हर कोई उम्मीद लगाए बैठा है कि उसके परिजन घर कब आएंगे, उसकी उम्मीद भगवान और सेना पर टिकी है। लेकिन उसे उम्मीद देवभूमि में बचाव कार्य में लगे सेना के देवदूतों से है, जो अपनी जान की परवाह किए बिना पीड़ितों की हरसंभव मदद कर रहे हैं। हमारी आर्मी, हमारी अपनी शान है। जब-जब देशवासी मुश्किल में रहे हैंं, तब तब हमारे जवानों ने बिना किसी स्वार्थ के हर समय सहायता के लिए खड़े नजर आए हैं।
बात चाहे पड़ोसी मुल्कों के नापाक मंसूबों को नाकामयाब करने की हो या फिर देश के अंदर के अनियंत्रित हालातों को नियंत्रित करने की, भारतीय जवान अपनी मातृभूमि और देशवासियों की रक्षा के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर करने के लिए सदैव तत्पर रहे हैं।
उत्तराखंड की त्रासदी से प्रभावित इलाकों में सड़क मार्ग पूरी तरह ध्वस्त हो चुके हैं, सब कुछ तहस-नहस हो चुका है। हजारों लोग मौत के मुंह में समा गए, जो बचे हैं, वे भूख और प्यास से बेहाल दम तोड़ने पर विवश हैं। ऐसे में प्रशासन के सामने सबसे बड़ी चुनौती है उनकी हिफाजत करना ,राहत सामग्री पुहंचाना, और उन्हे सकुशल घर पहुंचाना,, लेकिन प्रशासन ने टूटे हुए रास्ते,खराब मौसम का बहाना बनाकर इन लोगों को भगवान भरोसे छोड़ दिया, तो इस काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया हमारी जाबाज सेना के साहसी और निर्भीक जवानों ने।
उत्तराखंड में आई आपदा में अगर बड़ी संख्या में लोगों को बचाया जा सका है, तो इसका सबसे ज्यादा श्रेय हमारी सेना को जाता है। सेना ने हजारों लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया है। चाहे केदारनाथ हो, बदरीनाथ हो, गंगोत्री-यमुनोत्री हो या फिर हेमकुंड साहिब, सभी जगह सेना के जवान तत्परता से पहुंचे और लोगों को राहत पहुंचाई।मौसम विभाग की चेतावनी के बावजूद सेना के जवान पूरी भावुकता के साथ अपना सबकुछ झोंककर तेजी से प्रभावित लोगों को बचाने में लगे रहे। खराब मौसम के चलते वायुसेना का एमआई-17 हेलीकॉप्टर क्रैश हो जाने से दर्जन भर से ज्यादा जवान शहीद हो गये। लेकिन फिर भी सेना का जज्बे को देखिये। जवानों ने कहा चाहे कुछ भी हो जाए,चाहे जितना भी मौसम खराब हो जाए, राहत कार्यों में कोई भी बाधा नहीं पहुंचेगी,लोगों को सेवा में जी जान से लगे रहेंगे। 
आज अगर हम देशवासी सुरक्षित अपने घरों में सो रहे हैं तो इसका श्रेय सीमा पर डटे हमारे जवानों को जाता है जो रात दिन जागकर पहरेदारी कर रहे हैं। हमें जीवित रहने के लिए जो खाद्य सामग्री मिल पा रही है उसके लिए लिए दो वक्त की रोटी के लिए हाड तोड़ मेहनत करता किसान है।इनके दोनों के महत्व को समझते हुए ही भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने जय जवान,जय किसान का नारा दिया था।लेकिन विडम्बना देखिए आज हमारे देश में दोनों की स्थिति विचारणीय है। हजारों की संख्या में देश के गरीब किसान आत्महत्या करने को विवश हैंं। हमारे देश के कर्ता-धर्ताओं को जवानों की सुध तब आती है जब देश को उनकी जरूरत पड़ती है। ऐसी भी दिल दहला देने वाली खबरें आती हैं कि देश हित में शहीद हुए जवानों के परिजन दर-दर की ठोकरें खा रहे हैंं, कोई भी उनकी खैरख्वाह लेने वाला कोई नहीं। धन्य है वो मां जिसकी कोख से ऐसे वीर, साहसी सपूत जन्म लेते हैं जो हंसते हुए देशहित में कभी भी जान लुटाने को तैयार रहते हैं। सेना के जवान उत्तराखंड में अपनी जान पर खेलकर त्रासदी में फंसे लोगों को राहत सामग्री पहुंचा रहे हैं, लोगों को उनके परिजनों से मिलवा रहे हैं। तभी तो ऐसे वीर साहसी और देशभक्त जवानों के लिए माखनलाल चतुर्वेदी  ने लिखा है...मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने ,जिस पथ जाएं वीर अनेक....देश के ऐसे वीर सिपाहियों को कोटि-कोटि प्रणाम और सत-सत नमन।

मंगलवार, 11 जून 2013

ये कैसे भीष्म पितामह ?

हर अच्छा खिलाड़ी एक अच्छा कैप्टन हो जरूरी नहीं है। उसमें खेलने के सारे गुर तो हो सकते हैं,लेकिन उसमें ऊंचे दर्जे की नेतृत्व क्षमता, टीम को जिताने की काबिलियत और एक लीडर के रूप में आगे बढ़कर प्रदर्शन करने की क्षमता हो यह भी जरूरी नहीं  है। इसका सीधा उदाहरण हैं क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले दुनिया के महान बल्लेबाज सचिन रमेश तेंदुलकर। सचिन खिलाड़ी तो अव्वल दर्जे के हैं, ग्राउंड के चारों तरफ शॉट खेलने में भी माहिर हैं, सचिन भले ही दुनिया के गेंदबाजों के लिए भय का पर्याय रहे हों लेकिन वह कभी एक अच्छे कप्तान के रूप में खुद को साबित नहीं कर पाये हैं। ऐसा नहीं कि उन्हे मौका नहीं मिला, मौके मिले भी पर वो कभी खुद को एक सफल कप्तान के रूप में साबित नहीं कर पाये।
वही हाल आडवाणी जी का है, फर्क सिर्फ इतना है कि वो उन्हे अभी इसका एहसास तक नहीं है। ऐसा नहीं कि उनके पास मौके नहीं थे, मौके मिले भी पर उन्होने अपनी पार्टी को मुश्किल समय में आशानुरूप सफलता नहीं दिला पाई। हमेशा पीएम इन वेटिंग के रूप में पहचाने जाने वाले आडवाणी जी को खुद को कब तक वेटिंग में रखेंगे, किसी दूसरे को भी वेटिंग में आने दो भाई,कब तक आप कप्तान के रूप में ही खुद को देखना पसंद करते रहेंगे,कब आपको हकीकत का एहसास होगा। ऐसा नहीं है कि आडवाणी जी की जरूरत अब बीजेपी को नहीं है,अभी पार्टी को आडवाणी जी की जरूरत पहले से अधिक है फर्क सिर्फ इतना है कि अब उनकी भूमिका बदल चुकी है। उन्हे अब नये जिम्मेदार कंधो पर भार डालकर खुद को एक पितामह के रूप में साबित करना चाहिए।
लोग उन्हे भाजपा के भीष्म पितामह की उपाधि दिए जा रहे हैं पर कैसे भीष्म पितामह हैं वो एक वो महाभारत में भीष्म पितामह थे जो आजीवन हस्तिनापुर की रक्षा के लिए तत्पर रहते थे।उन्होने अपना सारा जीवन हस्तिनापुर के विकास, उसकी खुशहाली और उसकी उन्नति के लिए न्यौछावर कर दिया। कभी भी उनके मन में सम्राट बनने की इच्छा जागृत नहीं हुई और एक सच्चे सिपाही की तरह हस्तिनापुर की सेवा में लगे रहे। एक बीजेपी के तथाकथित भीष्म पितामह आडवाणी जी हैं जो शुरू से ही मन में प्रधानमंत्री बनने के सपने संजोए हुए हैं। सपने देखना गलत बात नहीं है पर एक समय तक ही सपने देखना उचित है क्योंकि एक ऐसा समय भी आता है जहां पर आपके सपने अपनी दम तोड़ते नजर आते हैंं।
आडवाणी जी ने इस्तीफा देकर अपनी उस छवि को ही धूमिल कर दिया है जिसे लोग कहते हैं कि आडवाणी बीजेपी की बुनियाद रखने वाले नेताओं में से एक हैं। इसका क्या मतलब हुआ कि आपने एक पेड़ लगाया और जब वह विशालकाय पेड़ हरा भरा हो गया लेकिन उसे अब और अधिक खाद -पानी की जरूरत है जो आप नहीं दे पा रहे हो, ऐसे में यदि कोई इस जिम्मेदारी को संभालने के लिए सक्षम है तो आपका धर्म है कि आप उसे करने दें।ऐसा नहीं कि आप उस पेड़ की बुनियाद मिटाने पर ही लग जाएं। हां अगर आपको लगता है कि ये गलत हो रहा है तो पार्टी में अभी भी आपका उतना ही सम्मान है जितना कभी था। आडवाणी जी की प्रतिष्ठा के लिए सही होता अगर वो खुद को एक बुजर्ग पार्टी हितैषी की तरह पेश करते। जैसे कि एक गार्जियन जब देखता है कि उसके उत्तराधिकारी योग्य हो गये हैं जिम्मेदारी निभाने में सक्षम हैं तो वह अपने जीवित रहते ही अपने काबिल बच्चों को हंसते-हंसते सारी जिम्मेदारी सौंप देता है और एक मुखिया के रूप में उनका मार्गदर्शन करता है। लेकिन आडवाणी जी तो उस बाप की तरह व्यवहार कर रहे हैं मरते-मरते अपनी गुल्लक किसी को नहीं सौंपना चाहता है। नतीजन उसके बच्चे आजीवन लड़ते-झगड़ते रहते हैं और पूरा परिवार में बिखराव की नौबत आ जाती है।
आडवाणी जी को साबित करना चाहिए था कि सच में वो पार्टी के सच्चे लौह पुरुष हैं, उनके लिए उनकी पार्टी ही सर्वोपरि है ना कि निजी स्वार्थ।
भाजपा आज बदलाव के दौर से गुजर रही है ऐसे में पार्टी को किसी सच्चे और योग्य मार्गदर्शक की जरूरत है जो निसंदेह ही अटल जी के बाद आडवाणी जी के कंधों पर आ टिकी है। अगर आडवाणी जी को लगता है कि मोदी में वो काबिलियत नहीं है उनमें जरूरी नेतृत्व क्षमता नहीं है तो इस बात को बैठक में शामिल होकर सबके सामने अपनी बात रखनी चाहिए ना कि उस बच्चे कि तरह "जाओं मैं रूठ गया"। इससे क्या होगा कि वर्षों तक आपने जिस पार्टी के लिए काम किया है,जिसकी सेवा करते-हुए आपने अपने जीवन के कीमती समय को न्यौछावर कर दिया है आज उसी की जड़ खोदने का काम कर रहे हैं। बीजेपी की अगर आज सत्ता में किसी तरह से वापसी हो सकती है या कोई पार्टी के फेवर में बड़ा जनसमूह खड़ा कर सकता है तो वो फिलहाल केवल नरेंद्र मोदी ही दिखाई पड़ते हैं। इस हकीकत को पार्टी कार्यकर्ता से लेकर भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी जानते हैं।
अब भाजपा में मोदी विरोधी खेमा सक्रिय हो चला है,जबकि हर किसी को पता है कि भाजपा का जनाधार लगातार कम होता जा रहा है,आज भारतीय जनता पार्टी भारतीय झगड़ालू पार्टी का रूप लेती जा रही है। ऐसा भी नहीं है कि  लालकृष्ण आडवाणी जी ने पहली बार पार्टी पर अपने इस्तीफे का दबाव बनाया है, इससे पहले भी भाजपा के लौह पुरुष कहे जाने वाले आडवाणी जी ने पिछले आठ सालों में तीन बार इस्तीफा दिया है,, पहली बार आडवाणी ने 7 जून 2005 जिन्ना की तारीफ करने के मामले में तूल पकडने के कारण इस्तीफा दिया था। काफी मान-मनौवल करवाने के बाद उन्होने इस्तीफा वापस लिया था। दूसरी बार आडवाणी जी ने 31 दिसंबर 2005 में भी इस्तीफा दिया था,तब राजनाथ सिंह को भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया था। वहीं तीसरी बार रविवार को गोवा में बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक में मोदी को चुनाव प्रचार का प्रभारी बनाए जाने से दुखी होकर आडवाणी जी ने एक बार फिर से इस्तीफा दिया है। अब ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या हर बार कि तरह इस बार भी भाजपा के लौहपुरुष पिघल जाएंगे और इस्तीफा वापस लेंगे।
फिलहाल भाजपा भूचाल में घिरी हुई है और अब सबकी नजर कृष्ण को खोज रही हैं कहां हैं कृष्ण और भूचाल को कैसे शांत किया जाए सबकी नजर कृष्ण पर पर टिकी हुई है।लेकिन कृष्ण की भूमिका कौन निभाएगा अभी तक ये यक्ष प्रश्न बना हुआ है।


रविवार, 12 मई 2013

हैप्पी मदर्स डे.. मां

मां... केवल स्मरण मात्र से मां के कोमल, ममतामयी स्पर्श की अनुभूति होती है। ई·ार ने हमें मां के रूप में एक ऐसा अनमोल तोहफा दिया, जिसकी ममतामयी छांव के लिए भगवान भी सदा लालायित रहता है। मां तमाम कष्टों को झेलती हुई भी अपनी संतान पर हमेशा अपना प्यार लुटाती रहती है। एक मां कई बच्चों को तो पाल सकती है लेकिन कई बच्चे मिलकर भी एक मां को नहीं पाल सकते। पूरी दुनिया बदल सकती है पर मां और उसका नि:स्वार्थ प्यार कभी नहीं बदलता।
जब आप अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते थे, आपको चल नहीं पाते थे, तब सबसे पहले मां ने हमें उंगली पकड़कर चलना सिखाया। जब हमें बोलना नहीं आता था, हम पानी मांगना भी नहीं जानते थे, तब हमारी मां हमारे इशारों और हाव-भावों से ही हमारी जरूरतों को समझ लेती थी, लेकिन आज हम अपनी मां से कहते हैं मां तुम मेरी फीलिंग्स को नहीं समझ सकती हो।
मां अनमोल है उसको न तो पैसे से तोला जा सकता है और न ही किसी भी तरह के लालच में उसे बहकाया जा सकता है। मां की कीमत उस अभागे से पूंछो जिसके पास मां रूपी अनमोल धरोहर नहीं है।
बेटे सपूत हों या कपूत त्याग की प्रतिमूर्ति मां हमेशा अपने लख्ते जिगरों पर अपनी छत्रछाया बनाए रखती है, अपने बेटों पर प्यार, आशीर्वाद और स्नेह की बरसात करती रहती है। इसीलिए कहा भी गया है पूत कपूत सुने हैं पर नहीं माता सुनी कुमाता

रविवार, 21 अप्रैल 2013

बस अब और नहीं...


दिल्ली में मासूम बच्ची से जिस तरह की दरिंदगी हुई, घिनौने काम को अंजाम दिया गया, इंसानियत शर्मसार हुई। राजधानी समेत पूरे देश में बेटियों के समर्थन में एक साथ हजारों हाथ उठ खड़े हुए। बिल्कुल वैसे ही जैसे 16 दिसंबर को दामिनी के लिए पूरा देश एक जाज़म पर खड़ा नज़र आ रहा था,तब लग रहा था जैसे देश में महिलाओं की सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाये जाएंगे। कदम उठे भी और सख्त कानून भी बने, लेकिन नतीजा !  फिर वही ढ़ाक के तीन पात। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि क्या कानून बनाने भर से बेटियों को बचाया जा सकेगा ? उनकी हिफाजत की जा सकेगी ?। बात केवल दामिनी या गुड़िया की नहीं है,  जिनके साथ दरिंदों ने हैवानियत की सारी सीमाएं तोड़ दीं,  बल्कि पूरे देश में जिस तरह से आए दिन बहन,बेटियों को हवस का शिकार बनाया जा रहा है, बेहद शर्मनाक है ।
कानून बनाना ही किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता, जब तक हर नागरिक के मन में कानून और उसके मूल भावों के प्रति आदर भाव ना हो। जब तक हम सच्चे मन से महिलाओं के विभिन्न स्वरूपों का सम्मान करना नहीं सीखेंगे, हम चाहे जितने भी कानून बना लें, कुछ नहीं हो सकता।
पिछले कुछ मामलों में जिस तरीके से पुलिस का गैर जिम्मेदाराना रवैया रहा है, चिंता का विषय है। बात चाहे हरियाणा की हो, अलीगढ़ की हो, या फिर कहीं और की , ऐसे मामलों में ना केवल आम नागरिकों को बल्कि पुलिस को भी संवेदना दिखानी होगी।उसे भी अपने रवैये में बदलाव करना ही पड़ेगा, तभी हम एक आदर्श और भयमुक्त समाज के निर्माण की कल्पना कर पाएंगे।

सोमवार, 26 नवंबर 2012

कौन बनेगा लक्ष्मण...

जिस तरह से दूसरे टेस्ट मैच में भारतीय टीम की दुर्गति हुई, जैसे हालात बने, जिस तरह से दबाव में पूरी भारतीय क्रिकेट टीम बिखर गई, टीम के शेर अपने ही घर में भीगे चूहे की तरह नजर आये,उससे एक बहस भी छिड़ी और एक "स्पेशल" खिलाड़ी की कमी भी खली।एक ऐसा खिलाड़ी जो अक्सर भारत की निश्चित दिख रही हार को ना केवल बचा लेता बल्कि उस मैच में जीत की संभावनाएं भी बढ़ा देता था। वो स्पेशल खिलाड़ी हमेशा ऐसी ही परिस्थितियों में भारत का संकटमोचक बनकर विकेट पर लंगर डाल कर खड़ा हो जाता था,दुनिया के किसी भी गेंदबाज को वह स्पेशल खिलाड़ी अपने स्पेशल प्रदर्शन के दम पर नतमस्तक कर देता। फिर चाहे वो ऑॅस्ट्रेलिया हो या दुनिया की कोई और टीम । वो "स्पेशल" पर्सन कोई और नहीं बल्कि भारतीय टीम का दिग्गज बल्लेबाज रह चुका वीवीएस लक्ष्मण है जिसे पूरी दुनिया वेरी-वेरी स्पेशल लक्ष्मण के नाम से जानती है। जब भी कोई विदेशी टीम भारत में आई लाख कोशिशों के बावजूद इस स्पेशल बल्लेबाज पर लगाम नहीं लगा सकी। लक्ष्मण की सबसे बड़ी खासियत दबाव में बल्लेबाजी करनी थी। कोलकाता के ईडन गार्डन में ऑॅस्ट्रेलिया के खिलाफ हुए उस मैच को कौन भुला सकता है जिसमें कंगारुओं के शानदार प्रदर्शन के आगे भारत की हार को तय माना जा रहा था,कहते हैं क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है इसे सार्थक किया लक्ष्मण के शानदार प्रदर्शन ने।जिससे भारत उस मैच को बचाने में ना केवल सफल हुआ बल्कि भारत ने ऐतिहासिक जीत भी दर्ज की। लक्ष्मण भारतीय टीम के पास एक ऐसा रामबाण था, जिसने मुश्किल परिस्थितियों में हमेशा आगे बढ़कर प्रदर्शन किया। भारत दौरे पर आने वाली सभी टीमें खासकर ऑॅस्ट्रेलिया, इंग्लैंड दक्षिण अफ्रीका जैसी दिग्गज टीमें लक्ष्मण के खिलाफ होमवर्क करके आती थीं लेकिन स्पेशल लक्ष्मण को किसी लक्ष्मण रेखा में बांध पाना किसी भी टीम और उसके थिंक टैंक के लिए मुश्किल होता।
लक्ष्मण ने हमेशा सुर्खियों से दूर रहते हुए खामोशी से अपने काम को अंजाम दिया है। हालांकि ये बात दूसरी है कि सचिन,गांगुली और द्रविड़ के रहते उन्हे उतनी हाईप नहीं मिल सकी जिसके वो हकदार थे। लेकिन जब कभी टीम संकट में होती हर किसी की जुबान पर सिर्फ एक ही नाम होता वीवीएस लक्ष्मण का। इस बात को पूर्व कप्तान गांगुली ने भी स्वीकारा था और कहा था कि अगर लक्ष्मण को ऊपर बल्लेबाजी में मौका मिलता तो आज उनके नाम भी कई शतक होते । उसके बाद भी जिस तरह से लक्ष्मण का विदाई हुई थी किसी से छुपा नहीं है।
आज टेस्ट क्रिकेट में जिस तरह से भारतीय टीम प्रदर्शन कर रही है एक सवाल उठना लाजिमी है कि कौन बनेगा लक्ष्मण...क्या कोई ऐसा बल्लेबाज है जो इस स्टाईलिश कलात्मक बल्लेबाज का स्थान ले सके।

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

वो सुहाने दिन..

दीपावली का त्यौहार आने वाला है,हर किसी के मन में रहता है कि पर्व को परिवार और अपने लोगों के साथ मनाए।जो जिस संस्थान में काम कर रहा है,चाहता है किसी प्रकार उसे छुट्टी मिल जाए और वो अपने गांव अपने शहर जाकर अपनी बचपन की यादों को ताजा कर सके।मैं भी ऐसी चाह रखने वालों में से एक हूं, लेकिन अफसोस पिछले दो साल से मुझे दीपावली घर से बाहर ही मनानी पड़ रही है।अंतिम दीपावली 2010  में मैने अपने परिवार और दोस्तों के साथ मिलकर दीपावली मनाई थी। पता नहीं क्यूं मुझे ऐसा लगता है जैसे अब धीरे-धीरे दीपावली की रौनक फीकी पड़ती जा रही है।त्यौहारों को लेकर लोगों की सोच में परिवर्तन होता जा रहा है, गांव हो या शहर किसी के पास किसी के लिए थोड़ा भी समय नहीं बचा है। मुझे याद है जब हम सब बचपन में महीनों पहले दीपावली का इंतजार किया करते थे,जेबखर्च के लिए मिले पैसों को कंजूसी करके दीपावली को पटाखे छुटाने के लिए बचा लिया करते थे।क्योंकि पापा या भाई घर में जो पटाखे लाते वो दीवाली के दिन ही लाते थे और कहते थे पटाखे कोई नहीं छुटाएगा। हम लोग को केवल सांप वाली टिक्की और छुरछुरिया ही दी जाती छुटाने के लिए। लेकिन हम भी कम ना थे,बचत के उन्ही पैसों से दो दिन पहले ही पटाखे ले आते और उन्हे खूब दगाते और दोस्तों से होड़ लगाते मेरे पटाखे में तेज आवाज है वो कहता मेरे में।मुझे याद है किस तरह से डर-डरकर हम पटाखे छुटाते, एक छोटा सा बम होता था जिसे हम सुतली बम कहते थे,जो सामान्य पटाखों की अपेक्षा थोड़ा महंगा मिलता था लेकिन आवाज बहुत करता था इसलिए हमारी पहली पसंद हुआ करता था। लेकिन उसे छुटाने में उतना ही डर लगता। कई बार तो उस पटाखे को एक पत्थर पर रखकर दियासलाई से आग लगाना चाहते पर जैसे ही जलती हुई तीली पास ले जाते लगता पलीते ने आग पकड़ लिया है और हम भाग खड़े होते लेकिन बाद में पता चलता कि मैं डरकर पहले ही भाग आया हूं।फिर उसको कागज के टुकड़े पर रखकर आग लगा देते।अगर कोई राहगीर निकल रहा हो तो धोखे से पटाखे छुटाकर उसको चौंकाने में बड़ा मजा आता। लखनऊ की अपेक्षा मुझे अपने गांव में दीपावली  मनाना बहुत ही पसंद आता है,गांव में वो धमाचौकड़ी,दोस्तों के साथ खेलना,साथ में सभी का इकट्ठे होकर खूब मस्ती करना अपने आप में सुखद अहसास था।
दीपावली से पहले से ही हम सब भाई मिलकर घर की पूरी तरह से सफाई,रंगाई और पुताई करते।दीपावली वाले दिन पूरे घर मे घी के दीये जलाए जाते,एक-एक दीवार में कई डिजाईनदार आले होते हर आले में दीपक रखे जाते।यहां तक छत के छज्जों पर भी दीपक जलाए जाते। हालांकि अब उन दीयों का स्थान मोमबत्ती ने ले लिया है। शाम को गणेश लक्ष्मी का पूजन किया जाता है और एक रश्म के तहत मक्का,अरहह और पुआल से लाठीनुमा मोटे- मोटे बंडल बनाये जाते हैं जिन्हे पूजन वाले दीपक से जलाकर घर के हर कोने से निकालकर इस मान्यता के साथ ले जाते हैं कि घर की सारी बुराईयां दूर हो जाएंगी,घर से निकालकर हम गांव वालों के साथ उन जलते बंडलों को गांव से दूर ले जाते और वहीं पर जलाते और पटाखे भी छोड़ते।और वहां पर सभी लोग इकट्ठे होकर धू-धू कर जलते आग के उस ढेर में ही पटाखे डालते और भगवान के जयकारे लगाते हुए घर वापस लौट आते।लेकिन अब तो महज खानापूर्ति ही बची है किसी के पास इतना समय ही नहीं है को वहां ज्यादा देर रुके,लोगों में एक-दूसरे के प्रति प्यार की भावना समाप्त होती जा रही है।
जब तक हम वापस आते माताजी पूजा कर चुकी होतीं, हम सब प्रसाद खाकर पटाखे लेकर बड़े से आंगन में इकट्ठे हो जाते। पापा मम्मी,भइया,भाभी हम सभी लोग इकट्ठे होकर पटाखे,राकेट,चक्कर छुटाते।रात में देर तक पटाखे छुटाते रहते हालांकि माताजी बार-बार खाने के लिए बुलातीं पर हम उन मिठाईयों को खाकर ही पटाखे छुटाने के मजे लेते रहते जो दीपावली पर विशेष तौर से बनाई जाती थी।
देर रात सोने के बावजूद भी सुबह जल्दी उठकर सिर्फ एक ही काम रहता, पूरे गावं में दौड-दौड़कर दिये इकट्ठे करना।हममें दीये इकट्ठे करने की होड़  लगी रहती कौन कितने दीये इकट्ठे करता है।साथ ही रात में छुटाए गये पटाखों को खोजते कि कौन सा पटाखा रात में नहीं चला उसे उठाते और फिर छुटाते।
अब घर जाकर त्यौहार मनाने में उतना मजा नहीं आता जितना कि पहले आता था, आजकल ना तो दोस्तों के पास समय है और ना ही पहले वाली वो बात ही रही है। आज जबभी कोई त्यौहार आता है मैं पुराने दिनों को याद करके ही उन पलों में खो जाता हूं और भगवान से प्रार्थना करता हूं काश कोई मेरे वो दिन मुझे लौटा दे।