शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

वो सुहाने दिन..

दीपावली का त्यौहार आने वाला है,हर किसी के मन में रहता है कि पर्व को परिवार और अपने लोगों के साथ मनाए।जो जिस संस्थान में काम कर रहा है,चाहता है किसी प्रकार उसे छुट्टी मिल जाए और वो अपने गांव अपने शहर जाकर अपनी बचपन की यादों को ताजा कर सके।मैं भी ऐसी चाह रखने वालों में से एक हूं, लेकिन अफसोस पिछले दो साल से मुझे दीपावली घर से बाहर ही मनानी पड़ रही है।अंतिम दीपावली 2010  में मैने अपने परिवार और दोस्तों के साथ मिलकर दीपावली मनाई थी। पता नहीं क्यूं मुझे ऐसा लगता है जैसे अब धीरे-धीरे दीपावली की रौनक फीकी पड़ती जा रही है।त्यौहारों को लेकर लोगों की सोच में परिवर्तन होता जा रहा है, गांव हो या शहर किसी के पास किसी के लिए थोड़ा भी समय नहीं बचा है। मुझे याद है जब हम सब बचपन में महीनों पहले दीपावली का इंतजार किया करते थे,जेबखर्च के लिए मिले पैसों को कंजूसी करके दीपावली को पटाखे छुटाने के लिए बचा लिया करते थे।क्योंकि पापा या भाई घर में जो पटाखे लाते वो दीवाली के दिन ही लाते थे और कहते थे पटाखे कोई नहीं छुटाएगा। हम लोग को केवल सांप वाली टिक्की और छुरछुरिया ही दी जाती छुटाने के लिए। लेकिन हम भी कम ना थे,बचत के उन्ही पैसों से दो दिन पहले ही पटाखे ले आते और उन्हे खूब दगाते और दोस्तों से होड़ लगाते मेरे पटाखे में तेज आवाज है वो कहता मेरे में।मुझे याद है किस तरह से डर-डरकर हम पटाखे छुटाते, एक छोटा सा बम होता था जिसे हम सुतली बम कहते थे,जो सामान्य पटाखों की अपेक्षा थोड़ा महंगा मिलता था लेकिन आवाज बहुत करता था इसलिए हमारी पहली पसंद हुआ करता था। लेकिन उसे छुटाने में उतना ही डर लगता। कई बार तो उस पटाखे को एक पत्थर पर रखकर दियासलाई से आग लगाना चाहते पर जैसे ही जलती हुई तीली पास ले जाते लगता पलीते ने आग पकड़ लिया है और हम भाग खड़े होते लेकिन बाद में पता चलता कि मैं डरकर पहले ही भाग आया हूं।फिर उसको कागज के टुकड़े पर रखकर आग लगा देते।अगर कोई राहगीर निकल रहा हो तो धोखे से पटाखे छुटाकर उसको चौंकाने में बड़ा मजा आता। लखनऊ की अपेक्षा मुझे अपने गांव में दीपावली  मनाना बहुत ही पसंद आता है,गांव में वो धमाचौकड़ी,दोस्तों के साथ खेलना,साथ में सभी का इकट्ठे होकर खूब मस्ती करना अपने आप में सुखद अहसास था।
दीपावली से पहले से ही हम सब भाई मिलकर घर की पूरी तरह से सफाई,रंगाई और पुताई करते।दीपावली वाले दिन पूरे घर मे घी के दीये जलाए जाते,एक-एक दीवार में कई डिजाईनदार आले होते हर आले में दीपक रखे जाते।यहां तक छत के छज्जों पर भी दीपक जलाए जाते। हालांकि अब उन दीयों का स्थान मोमबत्ती ने ले लिया है। शाम को गणेश लक्ष्मी का पूजन किया जाता है और एक रश्म के तहत मक्का,अरहह और पुआल से लाठीनुमा मोटे- मोटे बंडल बनाये जाते हैं जिन्हे पूजन वाले दीपक से जलाकर घर के हर कोने से निकालकर इस मान्यता के साथ ले जाते हैं कि घर की सारी बुराईयां दूर हो जाएंगी,घर से निकालकर हम गांव वालों के साथ उन जलते बंडलों को गांव से दूर ले जाते और वहीं पर जलाते और पटाखे भी छोड़ते।और वहां पर सभी लोग इकट्ठे होकर धू-धू कर जलते आग के उस ढेर में ही पटाखे डालते और भगवान के जयकारे लगाते हुए घर वापस लौट आते।लेकिन अब तो महज खानापूर्ति ही बची है किसी के पास इतना समय ही नहीं है को वहां ज्यादा देर रुके,लोगों में एक-दूसरे के प्रति प्यार की भावना समाप्त होती जा रही है।
जब तक हम वापस आते माताजी पूजा कर चुकी होतीं, हम सब प्रसाद खाकर पटाखे लेकर बड़े से आंगन में इकट्ठे हो जाते। पापा मम्मी,भइया,भाभी हम सभी लोग इकट्ठे होकर पटाखे,राकेट,चक्कर छुटाते।रात में देर तक पटाखे छुटाते रहते हालांकि माताजी बार-बार खाने के लिए बुलातीं पर हम उन मिठाईयों को खाकर ही पटाखे छुटाने के मजे लेते रहते जो दीपावली पर विशेष तौर से बनाई जाती थी।
देर रात सोने के बावजूद भी सुबह जल्दी उठकर सिर्फ एक ही काम रहता, पूरे गावं में दौड-दौड़कर दिये इकट्ठे करना।हममें दीये इकट्ठे करने की होड़  लगी रहती कौन कितने दीये इकट्ठे करता है।साथ ही रात में छुटाए गये पटाखों को खोजते कि कौन सा पटाखा रात में नहीं चला उसे उठाते और फिर छुटाते।
अब घर जाकर त्यौहार मनाने में उतना मजा नहीं आता जितना कि पहले आता था, आजकल ना तो दोस्तों के पास समय है और ना ही पहले वाली वो बात ही रही है। आज जबभी कोई त्यौहार आता है मैं पुराने दिनों को याद करके ही उन पलों में खो जाता हूं और भगवान से प्रार्थना करता हूं काश कोई मेरे वो दिन मुझे लौटा दे।

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