मंगलवार, 11 जून 2013

ये कैसे भीष्म पितामह ?

हर अच्छा खिलाड़ी एक अच्छा कैप्टन हो जरूरी नहीं है। उसमें खेलने के सारे गुर तो हो सकते हैं,लेकिन उसमें ऊंचे दर्जे की नेतृत्व क्षमता, टीम को जिताने की काबिलियत और एक लीडर के रूप में आगे बढ़कर प्रदर्शन करने की क्षमता हो यह भी जरूरी नहीं  है। इसका सीधा उदाहरण हैं क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले दुनिया के महान बल्लेबाज सचिन रमेश तेंदुलकर। सचिन खिलाड़ी तो अव्वल दर्जे के हैं, ग्राउंड के चारों तरफ शॉट खेलने में भी माहिर हैं, सचिन भले ही दुनिया के गेंदबाजों के लिए भय का पर्याय रहे हों लेकिन वह कभी एक अच्छे कप्तान के रूप में खुद को साबित नहीं कर पाये हैं। ऐसा नहीं कि उन्हे मौका नहीं मिला, मौके मिले भी पर वो कभी खुद को एक सफल कप्तान के रूप में साबित नहीं कर पाये।
वही हाल आडवाणी जी का है, फर्क सिर्फ इतना है कि वो उन्हे अभी इसका एहसास तक नहीं है। ऐसा नहीं कि उनके पास मौके नहीं थे, मौके मिले भी पर उन्होने अपनी पार्टी को मुश्किल समय में आशानुरूप सफलता नहीं दिला पाई। हमेशा पीएम इन वेटिंग के रूप में पहचाने जाने वाले आडवाणी जी को खुद को कब तक वेटिंग में रखेंगे, किसी दूसरे को भी वेटिंग में आने दो भाई,कब तक आप कप्तान के रूप में ही खुद को देखना पसंद करते रहेंगे,कब आपको हकीकत का एहसास होगा। ऐसा नहीं है कि आडवाणी जी की जरूरत अब बीजेपी को नहीं है,अभी पार्टी को आडवाणी जी की जरूरत पहले से अधिक है फर्क सिर्फ इतना है कि अब उनकी भूमिका बदल चुकी है। उन्हे अब नये जिम्मेदार कंधो पर भार डालकर खुद को एक पितामह के रूप में साबित करना चाहिए।
लोग उन्हे भाजपा के भीष्म पितामह की उपाधि दिए जा रहे हैं पर कैसे भीष्म पितामह हैं वो एक वो महाभारत में भीष्म पितामह थे जो आजीवन हस्तिनापुर की रक्षा के लिए तत्पर रहते थे।उन्होने अपना सारा जीवन हस्तिनापुर के विकास, उसकी खुशहाली और उसकी उन्नति के लिए न्यौछावर कर दिया। कभी भी उनके मन में सम्राट बनने की इच्छा जागृत नहीं हुई और एक सच्चे सिपाही की तरह हस्तिनापुर की सेवा में लगे रहे। एक बीजेपी के तथाकथित भीष्म पितामह आडवाणी जी हैं जो शुरू से ही मन में प्रधानमंत्री बनने के सपने संजोए हुए हैं। सपने देखना गलत बात नहीं है पर एक समय तक ही सपने देखना उचित है क्योंकि एक ऐसा समय भी आता है जहां पर आपके सपने अपनी दम तोड़ते नजर आते हैंं।
आडवाणी जी ने इस्तीफा देकर अपनी उस छवि को ही धूमिल कर दिया है जिसे लोग कहते हैं कि आडवाणी बीजेपी की बुनियाद रखने वाले नेताओं में से एक हैं। इसका क्या मतलब हुआ कि आपने एक पेड़ लगाया और जब वह विशालकाय पेड़ हरा भरा हो गया लेकिन उसे अब और अधिक खाद -पानी की जरूरत है जो आप नहीं दे पा रहे हो, ऐसे में यदि कोई इस जिम्मेदारी को संभालने के लिए सक्षम है तो आपका धर्म है कि आप उसे करने दें।ऐसा नहीं कि आप उस पेड़ की बुनियाद मिटाने पर ही लग जाएं। हां अगर आपको लगता है कि ये गलत हो रहा है तो पार्टी में अभी भी आपका उतना ही सम्मान है जितना कभी था। आडवाणी जी की प्रतिष्ठा के लिए सही होता अगर वो खुद को एक बुजर्ग पार्टी हितैषी की तरह पेश करते। जैसे कि एक गार्जियन जब देखता है कि उसके उत्तराधिकारी योग्य हो गये हैं जिम्मेदारी निभाने में सक्षम हैं तो वह अपने जीवित रहते ही अपने काबिल बच्चों को हंसते-हंसते सारी जिम्मेदारी सौंप देता है और एक मुखिया के रूप में उनका मार्गदर्शन करता है। लेकिन आडवाणी जी तो उस बाप की तरह व्यवहार कर रहे हैं मरते-मरते अपनी गुल्लक किसी को नहीं सौंपना चाहता है। नतीजन उसके बच्चे आजीवन लड़ते-झगड़ते रहते हैं और पूरा परिवार में बिखराव की नौबत आ जाती है।
आडवाणी जी को साबित करना चाहिए था कि सच में वो पार्टी के सच्चे लौह पुरुष हैं, उनके लिए उनकी पार्टी ही सर्वोपरि है ना कि निजी स्वार्थ।
भाजपा आज बदलाव के दौर से गुजर रही है ऐसे में पार्टी को किसी सच्चे और योग्य मार्गदर्शक की जरूरत है जो निसंदेह ही अटल जी के बाद आडवाणी जी के कंधों पर आ टिकी है। अगर आडवाणी जी को लगता है कि मोदी में वो काबिलियत नहीं है उनमें जरूरी नेतृत्व क्षमता नहीं है तो इस बात को बैठक में शामिल होकर सबके सामने अपनी बात रखनी चाहिए ना कि उस बच्चे कि तरह "जाओं मैं रूठ गया"। इससे क्या होगा कि वर्षों तक आपने जिस पार्टी के लिए काम किया है,जिसकी सेवा करते-हुए आपने अपने जीवन के कीमती समय को न्यौछावर कर दिया है आज उसी की जड़ खोदने का काम कर रहे हैं। बीजेपी की अगर आज सत्ता में किसी तरह से वापसी हो सकती है या कोई पार्टी के फेवर में बड़ा जनसमूह खड़ा कर सकता है तो वो फिलहाल केवल नरेंद्र मोदी ही दिखाई पड़ते हैं। इस हकीकत को पार्टी कार्यकर्ता से लेकर भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी जानते हैं।
अब भाजपा में मोदी विरोधी खेमा सक्रिय हो चला है,जबकि हर किसी को पता है कि भाजपा का जनाधार लगातार कम होता जा रहा है,आज भारतीय जनता पार्टी भारतीय झगड़ालू पार्टी का रूप लेती जा रही है। ऐसा भी नहीं है कि  लालकृष्ण आडवाणी जी ने पहली बार पार्टी पर अपने इस्तीफे का दबाव बनाया है, इससे पहले भी भाजपा के लौह पुरुष कहे जाने वाले आडवाणी जी ने पिछले आठ सालों में तीन बार इस्तीफा दिया है,, पहली बार आडवाणी ने 7 जून 2005 जिन्ना की तारीफ करने के मामले में तूल पकडने के कारण इस्तीफा दिया था। काफी मान-मनौवल करवाने के बाद उन्होने इस्तीफा वापस लिया था। दूसरी बार आडवाणी जी ने 31 दिसंबर 2005 में भी इस्तीफा दिया था,तब राजनाथ सिंह को भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया था। वहीं तीसरी बार रविवार को गोवा में बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक में मोदी को चुनाव प्रचार का प्रभारी बनाए जाने से दुखी होकर आडवाणी जी ने एक बार फिर से इस्तीफा दिया है। अब ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या हर बार कि तरह इस बार भी भाजपा के लौहपुरुष पिघल जाएंगे और इस्तीफा वापस लेंगे।
फिलहाल भाजपा भूचाल में घिरी हुई है और अब सबकी नजर कृष्ण को खोज रही हैं कहां हैं कृष्ण और भूचाल को कैसे शांत किया जाए सबकी नजर कृष्ण पर पर टिकी हुई है।लेकिन कृष्ण की भूमिका कौन निभाएगा अभी तक ये यक्ष प्रश्न बना हुआ है।


रविवार, 12 मई 2013

हैप्पी मदर्स डे.. मां

मां... केवल स्मरण मात्र से मां के कोमल, ममतामयी स्पर्श की अनुभूति होती है। ई·ार ने हमें मां के रूप में एक ऐसा अनमोल तोहफा दिया, जिसकी ममतामयी छांव के लिए भगवान भी सदा लालायित रहता है। मां तमाम कष्टों को झेलती हुई भी अपनी संतान पर हमेशा अपना प्यार लुटाती रहती है। एक मां कई बच्चों को तो पाल सकती है लेकिन कई बच्चे मिलकर भी एक मां को नहीं पाल सकते। पूरी दुनिया बदल सकती है पर मां और उसका नि:स्वार्थ प्यार कभी नहीं बदलता।
जब आप अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते थे, आपको चल नहीं पाते थे, तब सबसे पहले मां ने हमें उंगली पकड़कर चलना सिखाया। जब हमें बोलना नहीं आता था, हम पानी मांगना भी नहीं जानते थे, तब हमारी मां हमारे इशारों और हाव-भावों से ही हमारी जरूरतों को समझ लेती थी, लेकिन आज हम अपनी मां से कहते हैं मां तुम मेरी फीलिंग्स को नहीं समझ सकती हो।
मां अनमोल है उसको न तो पैसे से तोला जा सकता है और न ही किसी भी तरह के लालच में उसे बहकाया जा सकता है। मां की कीमत उस अभागे से पूंछो जिसके पास मां रूपी अनमोल धरोहर नहीं है।
बेटे सपूत हों या कपूत त्याग की प्रतिमूर्ति मां हमेशा अपने लख्ते जिगरों पर अपनी छत्रछाया बनाए रखती है, अपने बेटों पर प्यार, आशीर्वाद और स्नेह की बरसात करती रहती है। इसीलिए कहा भी गया है पूत कपूत सुने हैं पर नहीं माता सुनी कुमाता

रविवार, 21 अप्रैल 2013

बस अब और नहीं...


दिल्ली में मासूम बच्ची से जिस तरह की दरिंदगी हुई, घिनौने काम को अंजाम दिया गया, इंसानियत शर्मसार हुई। राजधानी समेत पूरे देश में बेटियों के समर्थन में एक साथ हजारों हाथ उठ खड़े हुए। बिल्कुल वैसे ही जैसे 16 दिसंबर को दामिनी के लिए पूरा देश एक जाज़म पर खड़ा नज़र आ रहा था,तब लग रहा था जैसे देश में महिलाओं की सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाये जाएंगे। कदम उठे भी और सख्त कानून भी बने, लेकिन नतीजा !  फिर वही ढ़ाक के तीन पात। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि क्या कानून बनाने भर से बेटियों को बचाया जा सकेगा ? उनकी हिफाजत की जा सकेगी ?। बात केवल दामिनी या गुड़िया की नहीं है,  जिनके साथ दरिंदों ने हैवानियत की सारी सीमाएं तोड़ दीं,  बल्कि पूरे देश में जिस तरह से आए दिन बहन,बेटियों को हवस का शिकार बनाया जा रहा है, बेहद शर्मनाक है ।
कानून बनाना ही किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता, जब तक हर नागरिक के मन में कानून और उसके मूल भावों के प्रति आदर भाव ना हो। जब तक हम सच्चे मन से महिलाओं के विभिन्न स्वरूपों का सम्मान करना नहीं सीखेंगे, हम चाहे जितने भी कानून बना लें, कुछ नहीं हो सकता।
पिछले कुछ मामलों में जिस तरीके से पुलिस का गैर जिम्मेदाराना रवैया रहा है, चिंता का विषय है। बात चाहे हरियाणा की हो, अलीगढ़ की हो, या फिर कहीं और की , ऐसे मामलों में ना केवल आम नागरिकों को बल्कि पुलिस को भी संवेदना दिखानी होगी।उसे भी अपने रवैये में बदलाव करना ही पड़ेगा, तभी हम एक आदर्श और भयमुक्त समाज के निर्माण की कल्पना कर पाएंगे।