आजादी के राष्ट्रीय पर्व का जश्न तो बचपन में ही धूम मनाते थे। अब तो बस खानापूर्ति हो रही है। स्कूल हो या सरकारी तफ्तर तिरंगा फहरा दिया गया। आजादी के महानायकों पर फूलमाला चढ़ा दी गई। बस हो गई कर्तव्यों से इतिश्री। लेकिन पहले ऐसा नहीं होता था। हम सही में आजादी का जश्न दिल से और धूमधाम से मनाते थे।
15 अगस्त हो या 26 जनवरी दो-तीन दिन पहले से ही घर में अम्मा जी और बहन को कविताएं सुना-सुनाकर बोर कर दिया करते थे। तालाब के किनारे से 'सेठा' काट ले आते, उसमें सादे कागज पर बनाया हुआ तिरंगा लपेटते और एक दिन पहले ही गलियों-कूचों में गाते घूमते 'झंडा ऊंचा रहे हमारा'। 15 अगस्त के अवसर पर पापा की साइकिल में, बरामदे में बने छप्पर पर पूरे दिन हमारा तिरंगा लहराया करता था। केवल मैं ही नहीं, बल्कि पूरे गांव में ऐसा ही होता था। हर घर की छत पर कम से कम एक तिरंगा तो दिख ही जाता था और हर घर में 15 अगस्त की तैयारियां।
मुझे याद है जब मैं अपने गांव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ा करता था। अगस्त शुरू होते ही स्कूल में पंडित जी (अध्यापक) स्वतंत्रता दिवस की तैयारियों में मशगूल हो जाते थे। छात्रों को रोज वंदे मातरम्, देशभक्ति की कविताएं रटाई जाती थीं। भाषण भी तैयार कराए जाते थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, महात्मा गांधी, रानी लक्ष्मीबाई सभी के चहेते नायक हुआ करते थे। सभी बच्चों को इन महान देशभक्तों के बारे में बहुत कुछ पता रहता था। पता नहीं अब ऐसा होता है या नहीं।
आखिर वह दिन आ जाता था, जिसके लिए पिछली रात को ठीक से नींद नहीं आई थी। अम्मा भी कहतीं, जाओ स्कूल में कविताएं बढ़िया से सुनाना। चूंकि मैं ब्राम्हण परिवार से हूं इसलिए संस्कृत के श्लोक भी ठीक-ठाक आते थे। पापा के दैनिक श्लोक पाठ को हम भाई लोगों पहले ही रट लिया था। उन दिनों स्कूल-कॉलेजों में संस्कृत को अंग्रेजी से कमतर तो कतई नहीं आंका जाता था। पर अब सभी अंग्रेजी चाहिए।
खैर छोड़िए, इन बातों में क्या रखा है। हम तो बात कर रहे थे 'तब की आजादी' की। 15 अगस्त को हम सुबह ही स्कूल में पहुंच जाते। पंडित जी सभी को झाड़ू पकड़ा देते। सभी बड़े मन से स्कूल साफ करते। भूल जाते कि अम्मा ने कितना समझाकर भेजा था कि भइया कविता सुनाने से पहले कपड़े गंदे मत करना।
सबसे पहले प्राइमरी स्कूल में ही ध्वजारोहण का कार्य संपन्न हो जाया करता था। क्योंकि पास में ही 100 मीटर की दूरी इण्टर कॉलेज था। जहां ऐसे अवसरों पर लाउडस्पीकर लगता था, जिसकी कानफोड़ू आवाज हमें हमारे स्कूल में सुनाई देती थी।
15 अगस्त के दिन सबसे पहले हमारे नाखून चेक किए जाते। कपड़े साफ पहनें हैं या नहीं, यह भी चेक किया जाता। इसके बाद ईश्वर प्रार्थना, ध्वजारोहण, राष्ट्रगान होता फिर कविताओं का दौर चलता। लेकिन इन सबसे पहले स्कूल के पंडित जी या मुंशी जी एक लंबा सा भाषण देने से नहीं चूकते कि कितनी मुश्किल परिस्थितियों में हमें आजादी मिली। राष्ट्रीय पर्वों पर बच्चों में बांटने के लिए हेडमास्टर जी बताशे मंगाते थे, जो हम सबके बीच बांट दिए जाते थे। हर छात्र को एक-एक मुट्ठी बताशा मिलता था। लेकिन हमें तो जलेबी खानी होती थी। वह मिलती थी पड़ोस वाले इंटर कॉलेज में।
कोई चपरासी तो होता नहीं था, इसलिए जल्दी से हम लोग कुर्सी-मेज वगैरह इंटर कॉलेज की तरफ सरपट भाग जाते थे। वहां कोई बाउंड्री वॉल तो थी नहीं, इसिलए मैदान में ही कार्यक्रम का आयोजन होता था। वहीं, सभी छात्र अपनी कविताएं सुनाते थे। प्राइमरी वालों की भीड़ देखते ही तुरंत इंटर कॉलेज के एक मास्टर साहेब डंडी लेकर आ जाते और हम सबको लाइन से बिठाते। हम भी चुपचाप बैठकर कविताएं सुनते, जैसे ही शोरगुल होता मास्टर जी का डंडा सटक जाता था।
कॉलेज में छात्रों के लिए कागज के एक लिफाफे में जलेबियां आती थीं, जिन्हें उनके बीच बांट दिया जाता था। साथ ही प्राइमरी के छात्रों को भी जलेबी के दो-दो छत्ते दिए जाते। जिन्हें लेकर हम तुरंत घर की तरफ भाग जाते। रास्ते में देखते जाते कि किसके पास ज्यादा जलेबी और ज्यादा बताशे हैं।
राष्ट्रीय पर्व के मौके पर एकमात्र गांव में उपलब्ध दूरदर्शन चैनल 2 बजे से किसी देशभक्ति की फिल्म का प्रसारण करता था, जिसे हम देखे बिना हिलते तक नहीं थे। लाइट तो गांव में थी नहीं, इसलिए पहले से ही बैटरी भरवा ली जाती थी। पूरा दिन देशभक्ति के गीत गुनगुनाने में, शहीदों को याद करने में ही निकल जाता था। पर अब ऐसा नहीं होता।
अब तो बस लकीर का फकीर बने हुए हैं। ऐसा लगता है कि अब कोई आजाद नहीं है, न ही किसी प्रकार की आजादी है। हर कोई किसी न किसी तरह की गुलामी में जकड़ा हुआ है। अब तो बस फेसबुक और व्हाट्सएप पर happy Independence day, जय हिंद, जय भारत जैसे स्लोगन लिखकर या तिरंगे की तस्वीर भेज कर इतिश्री कर लेते हैं। अब सिर्फ यही है हमारी देशभक्ति का जज्बा, जुनून और आजादी का मतलब!
15 अगस्त हो या 26 जनवरी दो-तीन दिन पहले से ही घर में अम्मा जी और बहन को कविताएं सुना-सुनाकर बोर कर दिया करते थे। तालाब के किनारे से 'सेठा' काट ले आते, उसमें सादे कागज पर बनाया हुआ तिरंगा लपेटते और एक दिन पहले ही गलियों-कूचों में गाते घूमते 'झंडा ऊंचा रहे हमारा'। 15 अगस्त के अवसर पर पापा की साइकिल में, बरामदे में बने छप्पर पर पूरे दिन हमारा तिरंगा लहराया करता था। केवल मैं ही नहीं, बल्कि पूरे गांव में ऐसा ही होता था। हर घर की छत पर कम से कम एक तिरंगा तो दिख ही जाता था और हर घर में 15 अगस्त की तैयारियां।
मुझे याद है जब मैं अपने गांव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ा करता था। अगस्त शुरू होते ही स्कूल में पंडित जी (अध्यापक) स्वतंत्रता दिवस की तैयारियों में मशगूल हो जाते थे। छात्रों को रोज वंदे मातरम्, देशभक्ति की कविताएं रटाई जाती थीं। भाषण भी तैयार कराए जाते थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, महात्मा गांधी, रानी लक्ष्मीबाई सभी के चहेते नायक हुआ करते थे। सभी बच्चों को इन महान देशभक्तों के बारे में बहुत कुछ पता रहता था। पता नहीं अब ऐसा होता है या नहीं।
आखिर वह दिन आ जाता था, जिसके लिए पिछली रात को ठीक से नींद नहीं आई थी। अम्मा भी कहतीं, जाओ स्कूल में कविताएं बढ़िया से सुनाना। चूंकि मैं ब्राम्हण परिवार से हूं इसलिए संस्कृत के श्लोक भी ठीक-ठाक आते थे। पापा के दैनिक श्लोक पाठ को हम भाई लोगों पहले ही रट लिया था। उन दिनों स्कूल-कॉलेजों में संस्कृत को अंग्रेजी से कमतर तो कतई नहीं आंका जाता था। पर अब सभी अंग्रेजी चाहिए।
खैर छोड़िए, इन बातों में क्या रखा है। हम तो बात कर रहे थे 'तब की आजादी' की। 15 अगस्त को हम सुबह ही स्कूल में पहुंच जाते। पंडित जी सभी को झाड़ू पकड़ा देते। सभी बड़े मन से स्कूल साफ करते। भूल जाते कि अम्मा ने कितना समझाकर भेजा था कि भइया कविता सुनाने से पहले कपड़े गंदे मत करना।
सबसे पहले प्राइमरी स्कूल में ही ध्वजारोहण का कार्य संपन्न हो जाया करता था। क्योंकि पास में ही 100 मीटर की दूरी इण्टर कॉलेज था। जहां ऐसे अवसरों पर लाउडस्पीकर लगता था, जिसकी कानफोड़ू आवाज हमें हमारे स्कूल में सुनाई देती थी।
15 अगस्त के दिन सबसे पहले हमारे नाखून चेक किए जाते। कपड़े साफ पहनें हैं या नहीं, यह भी चेक किया जाता। इसके बाद ईश्वर प्रार्थना, ध्वजारोहण, राष्ट्रगान होता फिर कविताओं का दौर चलता। लेकिन इन सबसे पहले स्कूल के पंडित जी या मुंशी जी एक लंबा सा भाषण देने से नहीं चूकते कि कितनी मुश्किल परिस्थितियों में हमें आजादी मिली। राष्ट्रीय पर्वों पर बच्चों में बांटने के लिए हेडमास्टर जी बताशे मंगाते थे, जो हम सबके बीच बांट दिए जाते थे। हर छात्र को एक-एक मुट्ठी बताशा मिलता था। लेकिन हमें तो जलेबी खानी होती थी। वह मिलती थी पड़ोस वाले इंटर कॉलेज में।
कोई चपरासी तो होता नहीं था, इसलिए जल्दी से हम लोग कुर्सी-मेज वगैरह इंटर कॉलेज की तरफ सरपट भाग जाते थे। वहां कोई बाउंड्री वॉल तो थी नहीं, इसिलए मैदान में ही कार्यक्रम का आयोजन होता था। वहीं, सभी छात्र अपनी कविताएं सुनाते थे। प्राइमरी वालों की भीड़ देखते ही तुरंत इंटर कॉलेज के एक मास्टर साहेब डंडी लेकर आ जाते और हम सबको लाइन से बिठाते। हम भी चुपचाप बैठकर कविताएं सुनते, जैसे ही शोरगुल होता मास्टर जी का डंडा सटक जाता था।
कॉलेज में छात्रों के लिए कागज के एक लिफाफे में जलेबियां आती थीं, जिन्हें उनके बीच बांट दिया जाता था। साथ ही प्राइमरी के छात्रों को भी जलेबी के दो-दो छत्ते दिए जाते। जिन्हें लेकर हम तुरंत घर की तरफ भाग जाते। रास्ते में देखते जाते कि किसके पास ज्यादा जलेबी और ज्यादा बताशे हैं।
राष्ट्रीय पर्व के मौके पर एकमात्र गांव में उपलब्ध दूरदर्शन चैनल 2 बजे से किसी देशभक्ति की फिल्म का प्रसारण करता था, जिसे हम देखे बिना हिलते तक नहीं थे। लाइट तो गांव में थी नहीं, इसलिए पहले से ही बैटरी भरवा ली जाती थी। पूरा दिन देशभक्ति के गीत गुनगुनाने में, शहीदों को याद करने में ही निकल जाता था। पर अब ऐसा नहीं होता।
अब तो बस लकीर का फकीर बने हुए हैं। ऐसा लगता है कि अब कोई आजाद नहीं है, न ही किसी प्रकार की आजादी है। हर कोई किसी न किसी तरह की गुलामी में जकड़ा हुआ है। अब तो बस फेसबुक और व्हाट्सएप पर happy Independence day, जय हिंद, जय भारत जैसे स्लोगन लिखकर या तिरंगे की तस्वीर भेज कर इतिश्री कर लेते हैं। अब सिर्फ यही है हमारी देशभक्ति का जज्बा, जुनून और आजादी का मतलब!
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सबकी पहचान है , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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