शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

कोरोना महामारी : चुनौतियां और समाधान


23 मार्च को जनता कर्फ्यू के दौरान हम सुबह घर से ऑफिस के लिए निकले थे। सड़कों पर सन्नाटा था और जगह-जगह पुलिस का पहरा। उस वक्त हमारे पास कोई 'पास' तो था नहीं, ऊपर से ऑफिस का आईडी कार्ड भी 2017 तक ही वैलिड था। लेकिन जाना ही था। हम निकले भी और रास्ते में कवरेज भी करते गये। हमने चारबाग रेलवे स्टेशन, विधानसभा और बापू भवन आदि की न केवल तस्वीरें खींची, बल्कि वीडियो भी बनाए जो उस दिन हमारे ग्रुप में सबसे पहले लगे भी। रोके जाने का डर भी था! इसलिए जहां पुलिसवाले ज्यादा दिखते, मोबाइल निकालकर वीडियो बनाने लगता। तमाम विजुअल्स लेकर करीब नौ बजे ऑफिस पहुंच गया था। अब जिम्मेदारी जल्द से जल्द वेबसाइट पर आंखों देखे हालात वीडियो और तस्वीरों के साथ अपडेट करने की थी। और किया भी। 11 बजेफिर तीन लोगों की टीम के साथ पत्रिका की आईडी लेकर फील्ड में निकल गया और हजरतगंज व चौक चौराहे से फेसबुक पेज पर लाइव किया। ऑफिस लौटकर खबरें व वीडियो लगाए और शाम होते-होते पता चला कि अगले दिन से लॉकडाउन शुरू हो जाएगा।

लॉकडाउन लागू हुआ तो घर से लेकर ऑफिस तक तमाम तरह की चिंताएं बढ़ गईं। कोरोना के डर के साथ ऑफिस जाने की चिंता भी थी। सुबह ही घर से निकले। 12 किमी दूर ऑफिस तक जाने में करीब 15 जगह पुलिस की तगड़ी चेकिंग थी। जगह-जगह बैरिकेडिंग लगी थी। दो-तीन जगहों से पास हो गया, लेकिन आगे रोक लिया गया। क्योंकि मेरे पास आईडी कार्ड नहीं था। घर लौटना ही मजबूरी थी। वापस लौटते वक्त थोड़ा मायूस जरूर था, लेकिन ताजा हालात के फोटो लेना नहीं भूला था। उस दिन घर से ही काम शुरू किया। अगले दिन ऑफिस से प्रेसकार्ड बनकर आ गया था। एक दो दिन में सूचना से पास भी मिल गया। उसी रुटीन के साथ नियमित ऑफिस जाने लगा। रास्ते के फोटो और वीडियो लेते जाना और फिर ऑफिस पहुंचते ही उन्हें खबर में लगाना। इस दौरान घर परिवार को लेकर चिंता भी बढ़ गई थी, डर लगता था कि मेरे घर में कहीं मैं ही कोरोना का कैरियर न बन जाऊं। बहरहाल सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए सावधानी से ऑफिस जाता रहा।

लॉकडाउन का अगला चरण शुरू हो चुका था। महामारी बढ़ने के साथ ही कोरोना का खौफ और चुनौतियां भी बढ़ती जा रही थीं। इस बीच मेरा एक्सीडेंट हो गया, जिसके चलते दाहिने हाथ की हथेली तीन जगह से फ्रैक्चर हो चुकी थी, लेकिन मैं घर में नहीं बैठना चाहता था। डेढ़ महीने के लिए प्लास्टर चढ़ा था। डॉक्टर से बात कर प्लास्टर ऐसे चढ़वाया कि हाथ की उंगली और अंगूठा खुला रहे। तीन दिन के बाद फिर से ऑफिस जाने लगा। सड़कें खाली होने की वजह से बाइक चलाने में खास दिक्कत नहीं हुई। धीरे-धीरे प्लास्टर वाला हाथ  माउस पकड़ने का अभ्यस्त हो गया और आम दिनों की तरह काम करने लगा। कई बार हाथ में दर्द होती तो काम बंद कर देता और थोड़ी देर बाद फिर से काम शुरू कर देता। भले ही तमाम मुश्किलें आईं, लेकिन हर दिन शिद्दत से काम करता रहा और अपना टारगेट अचीव किया।

45 दिनों बाद प्लास्टर कटा तो फिर दो दिन की छुट्टी ली। इसके बाद बाद वर्क फ्रॉम होम शुरू किया, क्योंकि डॉक्टर ने हफ्ते भर तक बाइक चलाने से मना किया था। वर्क फ्रॉम होम का अलग ही अनुभव था। सुबह से शाम तक घर वालों के बीच होते हुए भी न हो पाना। लगातार काम पर फोकस। घर से ही प्रियोरिटी, डे प्लान, ई-पेपर न्यूज प्लान, टीम क्वार्डिनेशन जैसे तमाम कामों के बीच काम करना आसान नहीं था। वर्क फ्रॉम होम में काम के घंटे बढ़ा दिये थे। नंबर ऑफ न्यूज पूरा करने के लिए कभी-कभी सुबह चार बजे उठकर ही खबरें करने लगता, सात बजे तक करीब पांच खबरें लगाकर ही उठता। उसके बाद फिर दैनिक काम से निवृत्त होकर नौ बजे से काम पर लग जाता। बीच-बीच में सड़क पर जाकर फोटो और वीडियो भी लाता। हालांकि, इंटरनेट और लाइट भी खूब इम्तिहान लेती रही। लैपटॉप मोबाइल से ही चलाते थे। घर में सबसे बोल दिया था कि नेट हमारे लिए बचा के रखना। कभी हमारा पैक खत्म हो जाता तो घर में वाइफ का या फिर बड़े दादा आदि के वाईफाई से काम चलाता। इस सबका मकसद एक ही था कि काम बाधित न हो और नहीं हुआ। वर्क फ्राम होम में भी हर टारगेट अचीव किया।

लॉकाडाउन के बाद अनलॉक का दौर शुरू हो चुका था। अब तक तमाम तरह की चुनौतियां बढ़ चुकी थीं। लोग कम हो रहे थे और काम बढ़ता जा रहा था। अब यूपी से चार पेज (डिजिटल+ईपेपर) बनने थे। अखबार के लिए खबरें भी निकालनी थीं और वीडियो भी बनाने थे। जिलों से क्वार्डिनेशन करना था। डिजिटल और पेज प्लान भी करना था। चुनौती यह भी थी कि खबरों की संख्या कम न हो और यूवी-पीवी भी मेनटेन रहे। कम से कम दो स्पेशल खबरें भी हों, जिनमें सभी मानक पूरे हों। यह सब इतना आसान नहीं था। लेकिन हर मुश्किल की तरह इसका भी रास्ता निकला। यूवी-पीवी वाली कम से कम एक खबर मैं रोजाना ऑफिस निकलने से पहले करने लगा और कम से कम दो दिमाग में, जिन पर ऑफिस में काम करना था। ऑफिस पहुंचते ही सबसे पहले घर से बनाकर लाई गई खबर को पोस्ट करता हूं, ताकि पूरे दिन यूवी-पीवी का झंझट खत्म हो सके। और ऐसा ही हुआ भी। करीब 70 फीसदी ऐसी खबरें थी, जिन्होंने रियल टाइम में कमाल किया।

अब सड़कों, बाजारों में बढ़ती भीड़ और संक्रमितों के आंकड़े डरा रहे हैं। परिवार की भी चिंता है और काम का प्रेशर भी। इस सबके बीच सैलरी कटने की टेंशन अलग। सैलरी कटी तो लगा ये क्या, हम तो फिर पिछले पांच साल वाले सैलरी स्ट्रक्चर पर आ गये। शुरुआत में मानसिक तौर पर अधिक पीड़ा हुई, पर इंडस्ट्री का हाल देखकर लगा कि चलो कम से कम ही नौकरी बची है, यही कम है क्या? क्योंकि हर दिन किसी न किसी की जाती नौकरी हमें खुद की चिंता करने पर विवश कर देती। रोजाना यही लगता कि कहीं अगला नंबर मेरा तो नहीं है। कई बार ज्यादा तनाव होने पर साथियों और वरिष्ठों से बात की जो मोटिवेट करते कि बदलाव ही कुदरत का नियम है। धैर्य रखो, कोरोना संकट भी खत्म होगा और एक दिन सब पहले जैसा होगा ही। बस आज को जीते हुए अपना बेस्ट करते जाइए। अब इसी फॉर्मूले पर और हर दिन बेहतर करने की उम्मीद के साथ आगे बढ़ते जा रहे हैं। परिस्थितियां कैसी भी रही हों, कितनी भी बड़ी चुनौतियां आईं पर कभी काम प्रभावित नहीं होने दिया। हर दिन और हर महीने बेस्ट देता रहा और आगे भी देता रहूंगा। 

शुक्रवार, 12 जून 2020

जुलाई तक और भयावह हो सकता CoronaVirus का संक्रमण, रहें सतर्क



Corona Virus प्रतिदिन 200-250 देशवासियों की जान ले रहा है। आशंका है कि जुलाई के अंत तक हर रोज होने वाली मौतों का आंकड़ा 3000 से 4000 तक पहुंच सकता है। महामारी की चपेट में आकर आम आदमी से लेकर नेता और डॉक्टर तक मौत के मुंह में समा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के अंबेडकरनगर में सीएमएस डॉ. संत प्रकाश गौतम की मौत हमें और सजग करती है। वह कोरोना वारियर्स थे और शिद्दत से वायरस को हराने में जुटे थे, खुद को नहीं बचा सके। हर दिन ऐसे तमाम केस सामने आ रहे हैं, जिन्हें कोरोना महामारी ने निगल लिया। यह संख्या हर दिन बढ़ती जा रही है। अस्पतालों में ट्रीटमेंट की क्या स्थिति है किसी से छिपा नहीं है।

मेरा मकसद आपको डराना नहीं, बल्कि सावधान करना है। वैक्सीन की खोज तक हमें खुद अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा करनी होगी। सावधानी पूर्वक हमें कोरोना के साथ ही जीने की आदत डालनी होगी। विशेषज्ञों का मानना है कि प्राथमिक स्तर वाले कोरोना संक्रमितों में सिर्फ पांच फीसदी ही ऐसे हैं जिन्हें ट्रीटमेंट की जरूरत होती है, शेष अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता के जरिए वायरस को हराने में सफल रहते हैं। ऐसे में जरूरी है कि आप सतर्क रहें और अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करें।

क्या करें 
- बहुत जरूरी होने पर ही बाहर निकलें
- सोशल डिस्टेंसिंग का कड़ाई से पालन करें
- मास्क और सेनेटाइजेशन को जीवन का अभिन्न हिस्सा बनाएं
- सेहत का ध्यान रखें, नियमित योग और व्यायाम करें
- बाहर के खाने से परहेज करें और अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते रहें

यह भी पढ़ें : वायरस से ज्यादा खतरनाक है लोगों का व्यवहार, कोरोना को हराकर लौटे शख्स की जुबानी..

गुरुवार, 11 जून 2020

वायरस से ज्यादा खतरनाक है लोगों का व्यवहार, कोरोना को हराकर लौटे शख्स की जुबानी..


भारत में कोरोना संक्रमण का पीक टाइम आना अभी शेष है। बहुत संभव है कि हम सभी का कोरोना से साबिका पड़े और हम जीतें भी। लेकिन, इस दौरान हमें अपनी इंसानियत और मानवता को नहीं खोना है। कोरोना को हराकर घर लौटे एक वरिष्ठ पत्रकार संतोष पंत ने बीमारी से लड़ने के अपने अनुभवों को शेयर किया। उनका कहना है कि कोरोना से ज्यादा उन्हें लोगों के बिहैवियर ने परेशान किया। एक टीवी चैनल में मैंने करीब दो वर्ष तक उनके साथ काम किया। इस दौरान वह मेरे रूम पार्टनर भी रहे। इसलिए मैं उन्हें बेहतर जानता हूं। वह बेहद जिंदादिल, सामाजिक और व्यवहार कुशल इंसान हैं। वह हमेशा दूसरों का ख्लाल रखने वालों में शामिल हैं। उनकी विल पॉवर इतनी जबरदस्त है कि हैदराबाद में उन्होंने मैराथन में भाग लेने की ठान ली और मंजिल तक दौड़े भी। आइए आज आपको उनकी पूरी पोस्ट पढ़ाते हैं, ताकि आप भी उनकी नजरों से हकीकत को समझ सकें-

ज़रूर पढ़िए..
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मैं संतोष कुमार पंत। कोरोना को लेकर मेरी अपनी राय और आप लोगों को सलाह है। 24 मई को मेरा टेस्ट हुआ जिसमें एक सैंपल में कोरोना पॉजिटिव आया और एक सैंपल नेगेटिव। लेकिन एक सैंपल पॉजिटिव था तो आपको अपनी केयर करनी लाजिमी थी, जो मैंने की। और आज मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूं।

देश और दिल्ली में कोरोना का क्या कहर है ये सभी लोग जानते हैं। अस्पताल, सरकार कहां है और क्या काम कर रही है, किसी को नहीं पता? आप कह सकते हैं कि दिल्ली या कहीं भी आप भगवान भरोसे हैं। आपकी किस्मत, कम्पनी अच्छी है तो आपका टेस्ट पहले हो जाया करता था, जैसे कि मेरा हुआ तो आपको मालूम चल जाएगा कि आपकी रिपोर्ट क्या है। लेकिन अब दिल्ली में ये सब भी बंद है। तो आप लोग ये मान लीजिए कि आप अपनी केयर से बच गए तो ठीक वरना राम-नाम सत्य है।

ये तो सरकार और हॉस्पिटल का हाल है। अब आप आइए अपने आस पास-पड़ोस और फ्लैट सिस्टम रूपी पड़ोस में। जैसे ही आपकी रिपोर्ट पॉजिटिव आएगी, उसके बाद आप कहीं न कहीं से हर दिन कुछ न कुछ सुनते रहेंगे, जैसे इन लोगों ने बताया नहीं। इनके घर मत जाना। पानी वाले को बोल देंगे कि इनके घर पानी दोगे तो हमारे घर मत देना। कूड़े वाला कूड़ा नहीं उठा रहा। आपका समान कोई नहीं ला रहा। आप सोचेंगे कि आप अगले दिन बचेंगे या मर जाएंगे। और सच मानिए ये जो दिल्ली में आधे लोग मर रहे हैं न ये इन्हीं पड़ोसियों की देन है। क्योंकि यहां वैसे ही किसी को मतलब नहीं रहता किसी से। ऊपर से कोरोना आ गया तो रहे सहे पड़ोसियों का भी आपसे मतलब नहीं रहता। आप गांव में होते तो आधा गांव आपसे लिपट कर ही कोरोना पॉजिटिव हो जाता, वहां प्रेम ही इतना है। हमेशा एक दूसरे की मदद के लिए तैयार।

मेरे केस में भी ऐसा ही था। सारे मतलबी पड़ोसी गायब। आप जी रहे हैं या मर रहे हैं, किसी को कोई मतलब नहीं। ये बात आप हमेशा याद रखिए कि आपकी गली, आपके पड़ोसी अच्छे हों तो आप किसी भी बीमारी से ऐसे ही जंग जीत लेंगे। लेकिन उसमें से जो एक दो लोग अच्छे होते हैं, उनके बारे में आपको जरूर तहे दिल से शुक्रिया बोलना चाहिए। ये में सिर्फ अपने फ्लैट के ऊपर वाले फ्लैट में रहने वाले प्रवीण भाई और उनकी वाइफ रितु के लिए लिख रहा हूं। कि आप लोगों को भी ऐसे ही लोग ज़िन्दगी में मिलें। जिस दिन से मैं पॉजिटिव आया हूं, उस दिन से मेरे ठीक होने तक मेरे घर का सारा काम, सामान लाना, मेरे परिवार को पानी देना, मेरी पानी की मोटर चलाना, मेरी दवाई लाना सारा काम दोनों ने किया। मुझे किसी भी बात की चिंता नहीं होने दी। गली में एक दो लोग और अच्छे हैं, जिन्होंने पूछा। लेकिन ये मान लीजिए कि आपको ज़्यादातर लो, अगर रिपोर्ट नेगेटिव भी आ जाय, फिर भी उनकी सोच नेगेटिव ही रहेगी। आपके वो ज़िन्दगी में कभी काम नहीं आएंगे। इसलिए जितनी दूरी ऐसे लोगों से बना ली जाय उतना अच्छा। हर कोई आने वाले समय में कोरोना की जद में होगा। अपना ख्याल रखिए और अच्छे लोगों के साथ रहिए। अच्छे पड़ोसी, आपको फोन करके आपको मोटिवेट करने वाले लोग, आपकी शारीरिक और मानसिक मजबूती ही कोरोना की वैक्सीन है।

आज मैं स्वस्थ हूं तो उसका सारा श्रेय में अपनी वाइफ, प्रवीण भाई और रितु भाभी को दूंगा। और आपसे अनुरोध है कि ऐसे सभी लोगों और पड़ोसियों का सम्मान करें और इनका मेरे साथ तहे दिल से शुक्रिया कहें।

यह भी पढ़ें : जहां के लिए जान दांव पर...

संतोष पंत की  फेसबुक वॉल से साभार

रविवार, 7 जून 2020

जहान के लिए जान दांव पर..!


लॉकडाउन 2.0 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने जान है जहान है का स्लोगन बदलकर जान भी और जहान भी कर दिया था। जहान को बचाने लिए 'लॉक' को 'डाउन' कर अनलॉक (Unlock 1.0) कर दिया गया। भारत में कंटेनमेंट जोन को छोड़कर अनलॉक 1.0 में सब कुछ खुल चुका है। लोग सड़कों पर हैं। गांव हो या शहर कोरोना (Covid 19) की परवाह किए बिना सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं नतीजन, कोरोना संक्रमण रफ्तार पकड़ चुका है। हर दिनों हजारों की संख्या में मिलते पॉजिटिव मरीज (Corona Positive) चिंता का विषय है।

देश में अब तक संक्रमित मरीजों की संख्या (Corona Positive in India) ढाई लाख पार कर चुकी है। कुल संक्रमितों की संख्या में अमेरिका, ब्राजील, रूस और ब्रिटेन ही भारत से आगे हैं। अब तक करीब 7 हजार मरीजों की मौत हो चुकी है वहीं, एक लाख से अधिक मरीज स्वस्थ हो चुके हैं। भारत का सबसे अधिक संक्रमित राज्य महाराष्ट्र है, जहां करीब 83 हजार पॉजिटिव केस मिले हैं। तमिलनाडु में 30 से अधिक, दिल्ली में करीब 28 हजार, गुजरात में करीब 20 हजार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में संक्रमितों की संख्या 10 हजार के पार है।


अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प (Donald Trump) का मानना है कि अगर ज्यादा संख्या में जांच (Covid Test) की जाए तो कोरोना वायरस के मामले भारत में अमेरिका से ज्यादा निकलेंगे। उन्होंने कहा कि अमेरिका में अब तक दो करोड़ जांच की जा चुकी है। भारत में अब तक 45 लाख से अधिक लोगों का कोरोना टेस्ट हो चुका है, जबकि अकेले उत्तर प्रदेश में 25 लाख से ज्यादा लोग दूसरे राज्यों से आ चुके हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का कहना है कि भारत पर कोरोना का खतरा मंडरा रहा है, हालांकि डब्ल्यूएचओ अभी की स्थिति को विस्फोटक नहीं मानता है। 


अब हमारे हवाले वतन साथियों

केंद्र व राज्य सरकार तमाम प्रयास कर रही है, लेकिन वो नाकाफी हैं। अब जब तक लोग खुद भी इसे सीरियसली नहीं लेंगे। संक्रमण को रोक पाना मुश्किल होगा। अस्पतालों की स्थिति भी बेहद भयावह होती जा रही है। दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में अभी से अस्पतालों में बेड कम पड़ने लगे हैं। डॉक्टर से लेकर नर्स तक संक्रमित हो रहे हैं। ऐसे में सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क, सेनेटाइजर का इस्तेमाल करते रहें। साथ ही खान-पान में बेहद सजगता बरतकर इम्युनिटी सिस्टम को मजबूत करें तभी आप कोरोना का मुकाबला कर पाएंगे। क्योंकि अब हमारा वतन हमारे हवाले है। जब आप सुरक्षित रहेंगे तभी परिवार, समाज, देश और जहान भी सुरक्षित रहेगा। इसलिए फिलहाल जान है तो जहान हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।

शुक्रवार, 5 जून 2020

एक अधूरी लव स्टोरी...


Love Story
आठवीं कक्षा का रिजल्ट आ चुका था। इस बार भी मैं क्लास में अव्वल आया था। सबसे ज्यादा खुश अम्मा-पापा थे, क्योंकि हमारे क्लास टीचर ने पापा को मार्कशीट देते हुए कहा था, पंडित जी आपका लड़का पढ़ने में बहुत अच्छा है। रिजल्ट लेकर पापा घर आये औऱ सबके सामने ऐलान कर दिया कि अब वह मुझे आगे की पढ़ाई करने के लिए लखनऊ भेजेंगे। सुनकर मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा। खुशी के मारे खून दोगुनी गति से शरीर में दौड़ने लगा। पल भर में ही गांव के सत्तू, कल्लू और सुशील जैसे दर्जन भर लड़कों से खुद को विशेष महसूस करने लगा। दौड़-दौड़कर गांव में सबसे बता आया कि अब मैं लखनऊ में पढ़ूंगा। मेरे पांव तो जैसे जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। खुशी के मारे पागल हुआ जा रहा था, बिना यह सोचे कि मेरे किसान पापा इतने बड़े शहर में पढ़ने का खर्च कैसे उठाएंगे, जबकि दो बड़े भाई पहले से ही लखनऊ में रहकर पढ़ाई कर रहे थे। सबसे बड़े भाई सरकारी नौकरी में थे। बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। छोटी दो बहनें और तीन बड़े भाई गांव में ही पढ़ते थे। सबकी पढ़ाई का जिम्मा पापा और बड़े भइया के कंधों पर ही था।

आखिर वह दिन आ ही गया जब मुझे बड़े भाई के साथ लखनऊ जाना था। अम्मा ने पराठे और आलू की सब्जी बनाकर बांध दी थी। आम का अचार भी रखा था। इसके अलावा मैदा की नमकीन और लड्डू भी बांध दिये थे। कहा, अपना ध्यान रखना। पापा ने मन लगाकर पढ़ाई करनी की नसीहत देते हुए मुस्कराकर विदा किया। गांव से एक किलोमीटर दूर मेन सड़क थी, जहां लखनऊ की बस मिलनी थी। तमाम दोस्त छोड़ने आये थे। बस में बैठे-बैठे दिमाग में सिर्फ लखनऊ की ही तस्वीर घूम रही थी। प्रवेश परीक्षा के बाद विज्ञान वर्ग से मेरा एडमीशन इंटर कॉलेज में हो गया था जो न ज्यादा लोअर था और न हाई। शुरुआती दौर में स्कूल में एडजेस्ट करने में थोड़ी दिक्कत जरूर हुई, लेकिन फिर सब सामान्य हो गया। मैं मन लगाकर पढ़ाई करने लगा, लेकिन पता नहीं कैसे मेरे दिल में किसी के लिए जगह बनती जा रही थी। सामने के किरायेदार की बेटी को मैं मन ही मन चाहने लगा था। उसे देखते ही मेरे दिल का इंजन धक-धक का स्टार्ट हो जाता।


भाई ने पुराने लखनऊ में किराये का मकान ले रखा था जो तीन मंजिला था, जिसमें एक फ्लोर पर दो किरायेदार रहते थे। मकान मालिक का घर दूसरे मोहल्ले में था। वह केवल किराया लेने ही आता था। हम दूसरे तल पर रहते थे जिसमें एक गुप्ता परिवार रहता था। वे लोग काफी व्यवहार कुशल थे। मिस्टर गुप्ता जिनकी उम्र लगभग 42 वर्ष थी, सोनार की दुकान पर काम करते थे। उनके दो बेटे और अलख सबसे छोटी थी। बड़ा भाई प्राइवेट जॉब करता था और छोटा भाई पढ़ाई। आठवीं में पढ़ रही अलख नटखट और बेहद सुन्दर थी। घर में वह सबकी चहेती थी। उसकी मम्मी का स्वभाव बहुत ही अच्छा था। मेरे भोलेपन, सीधे और शर्मीले स्वभाव के कारण वह मुझे प्यार से 'चिन्कू' कहती थीं।


लखनऊ में तीन भाई और चाचा के लड़के साथ में रहते थे। खाना हम सभी को खुद ही खाना बनाना पड़ता था, जिसमें नमक कम कभी ज्यादा हो जाता था। कई बार बड़े भाई की डांट भी सुननी पड़ती थी। शुरू-शुरू में खाना बनाने में मुझे गांव की याद आ जाती थी। अक्सर मैं खिचड़ी ही बना लेता था जोकि सबसे सरल काम था। अलख की मम्मी कभी-कभी खाना बनाने में मेरी मदद कर देती थीं और कभी-कभी अलख से ही काम करवा देती थीं। हमारे घर में टीवी तो थी नहीं, क्योंकि हम सब पढ़ाई करते थे। घर में जब मैं अकेला होता तो अक्सर अलख की मम्मी मुझे सीरियल देखने के लिए अपने घर में बुला लेती थीं। मैं मेन गेट बंद करके देखता कि कहीं भाई न आ जायें और मुझे डांट खानी पड़े। क्योंकि वह चाहते थे कि मेरा ध्यान केवल पढ़ाई पर रहे।


ऐसा चलता रहा और पता नहीं कब मेरे दिल में प्यार का कमल खिलने लगा। पता नहीं कब मेरे दिल में अलख के प्रति अजीब सा आकर्षण पैदा हो गया था। अब मुझे भाइयों के बाहर जाने और सीरियल आने का इंतजार रहता कि कब हम अलख के घर टीवी देखने जाएं और कनखियों से उसे देखता रहूं। वह भी ऐसा करती थी, लेकिन जब कभी हमारे नैना दो-चार होते, नजरें झुक जातीं और सांसों की धौंकनी तेज-तेज चलने लगती। कई बहानों से मैं अलख को अपने घर बुलाता और चाहता कि वह अधिक से अधिक नजदीक रहे और मैं उसके सामीप्य को महसूस करता रहूं। मन ही मन मैं उसे चाहने लगा था। उसे देखते ही मेरे मन में पटाखे छूटने लगते पर कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। डर था कहीं उसे बुरा न लग जाये और मेरे भाइयों को पता न चल जाये।


धीरे-धीरे समय बीतता गया। मुझे महसूस होने लगा कि उसके दिल में भी मेरे प्रति कुछ तो जरूर है। कहीं न कहीं वह भी मेरा इंतजार करती थी। अक्सर वह भी किसी बहाने मेरे पास आना चाहती थी, ऐसा मुझे महसूस होने लगा था। हम लोग एक दूसरे को समझने के बावजूद कभी कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। वह भी मेरी तरह अपने घरवालों से डरती थी। हमने कभी एक-दूजे से भले ही कभी कुछ बोला नहीं, पर तड़प महसूस जरूर करते थे। लगभग हर महीने के अंत में गांव जाता था, पर जबसे उससे नजदीकियां बढ़ीं गांव आने का मन नहीं करता था। आता भी तो मुश्किल से 1-2 दिन ही रुकता। पढ़ाई का नुकसान होने की बात कहकर फिर लखनऊ चला जाता। धीरे-धीरे मैं उसे बहुत चाहने लगा था, पर कभी कह नहीं सका कि तुम मेरे दिल पर राज करती हो।


उसके स्कूल में एनुअल फंक्शन था, जिसमें उसका डांस था। झांकी में उसे सरस्वती का रोल मिला था। कार्यक्रम से दो दिन पहले शाम को वह चुपके से मुझे मिली और कार्यक्रम में आने का आग्रह किया। मेरा मन सागर के लहरों की तरह हिलोरे लेता बेसब्री से उस दिन का इंतजार कर रहा था। मैं यह सोच-सोचकर पागल हुआ जा रहा था मुझे उससे अकेले में घंटों बात करने, उसे देखने को मिलेगा। वह पल बेहद करीब था, जिसका मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा था। पक्का याद है कि उस रात मुझे ठीक से नींद नहीं आई थी। पूरी रात करवट बदलते ही बीती थी। मैं सुबह तीन बजे ही उठ कर बैठ गया। बेचैनी बढ़ी तो पढ़ने की कोशिश, लेकिन न तो पढ़ने में मन लग रहा था और न नींद ही आ रही थी। चार बजे के करीब अलख के फ्लैट में बत्ती जली। आहट सुनी तो जाना कि वह अलख ही थी जो चहक-चहक कर सबको जगा रही थी। करीब घंटे भर बाद वह मुझे दिखी। उस वक्त वह लगभग तैयार हो चुकी थी। स्कूल जाने से पहले धीरे से मेरे पास आई और कहा, प्लीज आना जरूर। अंधा और क्या चाहे...


उस दिन मैं बहुत खुश था। बार-बार आइने के सामने खुद को निहार रहा था, पर भाइयों की नजरें बचाकर। पेट दर्द का बहाना बनाकर आज मैंने स्कूल भी मिस कर दिया था। भाई गये तो मैं भी बन-ठनकर उसके स्कूल पहुंच गया। गेट पर ही गार्ड ने मुझे रोक लिया क्योंकि वह गर्ल्स कॉलेज था। मैं मायूस लौटने ही वाला था कि वह दौड़ती हुई आई जो शायद बेसब्री से मेरा ही इंतजार कर रही थी। उसने गार्ड से कहा, यह मेरे दोस्त हैं मैंने बुलाया है। पहली बार उसके मुंह से दोस्त शब्द सुना तो जेठ की भरी दुपहरी में भी मेरा मन मयूर नाच उठा था। स्टेज के सामने मैं सबसे आगे बैठ गया। तभी सरस्वती के वेष में वह हरे किनारे वाली सफेद साड़ी में लिपटी मुझे जमाने की सबसे खुबसूरत परी लग रही थी। मैं अवाक एकटक उसे ही देखे जा रहा था। मुझे देखकर वह हल्के से मुस्कराई, मानों मुझे जहां की खुशियां मिल गई हों। 


झांकी के बाद डांस प्रोग्राम शुरू हुआ, जिसमें वह लाल रंग का लहंगा चुनरी पहने हुई थी। डांस करने वाली 7 लड़कियों में वह ग्रुप लीडर थी। पता नहीं कब मैं खड़ा होकर तालियां बजाने लगा। सब मेरी तरफ आश्चर्य से देखे जा रहे थे। मैं बेखबर मंत्रमुग्ध सा तालियां बजाता रहा। एक स्कूल टीचर ने जब मेरे पास आकर बैठने को कहा तो मुझ पर घड़ों सा पानी पड़ गया था। मैं चुपचाप बैठ गया पर उसे ही देखे जा रहा था। जिस गाने पर उसने डांस किया था वह आज भी मुझे याद है। गाना याद आते ही मेरी आंखों के सामने वह मनोरम सा दृश्य घूम जाता है। उस गाने के बोल थे- 'अपन देखि कै खलिहन्वा मोरा जियरा जुड़ाय'...


कार्यक्रम जैसे ही संपन्न हुआ वह मेरे पास आई और पूछने लगी डांस कैसा था? भला मुझे और क्या कहना था..? आज वह इतनी सुन्दर लग रही थी कि मैं उसे सामने से देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। थोड़ी देर बातें की। फिर उसने कहा, चलो घर चलें। मैंने उससे कहा, यार मेकअप धुल लो। आज तुम इतनी सुन्दर लग रही हो कि मुझे साथ चलने में शर्म लग रही है।


उसके बाद हम अधिकतम समय साथ-साथ बिताते और चुपके से वह मुझे कुछ न कुछ खिलाती रहती। ऐसा महीनों चलता रहा, लेकिन हम दोनों एक दूसरे को कभी प्रपोज नहीं कर पाये। एक दिन मैंने सारी हिम्मत जुटाकर धड़कते दिल से उसके सामने प्यार का इजहार कर ही दिया। उस वक्त दिल इतनी तेजी से धाड़-धाड़ धड़क रहा था मानो पसलियों को तोड़कर बाहर आ जाएगा। वह बिना कुछ बोले वहां से चली गई और मुझसे दो दिनों तक बात नहीं की। लगा कि नाराज हो गई है। डर भी था कि कहीं भाई से न कह दे। मैंने भगवान से खूब प्रार्थना की और मन्नतें मांगी। एक दिन वह चुपके से आई और मुस्कराते हुए आई लव यू टू (I Love You Too) बोलकर भाग गई। आज मैं खुद को शाहंशाह से कम नहीं समझ रहा था क्योंकि मेरी मुमताज ने मेरे लव प्रपोजल को एक्सेप्ट किया था। धीरे-धीरे हम दोनों एक दूजे की जान होते गए। दिन में जब तक दूसरे को देखते नहीं चैन नहीं मिलता अक्सर हम छिप-छिपकर मिलते रहते। शायद उसके भाई को शक था, इसलिए वह निगरानी किये रहता था। उसकी अनुपस्थिति का फायदा उठाकर हम दोनों मिलते। बातें करते और उसकी गोद में सिर रखकर लेटा रहता। वह मेरे बालों में उंगलियों से कंघी करती जाती। हम दोनों अपने सतरंगी सपनों में खोये रहते।


हमारा प्रेम एक पवित्र प्रेम था। दोनों दिल की गहराइयों से एक-दूसरे को प्यार करते थे। आजकल जैसे जमाने की हवा चल रही है, वैसा तो बिल्कुल भी नहीं था। मैंने कभी उसे टच करने की कोशिश नहीं की और न ही हम दोनों ने कभी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया था जिससे हम समाज और खुद की नजरों में गिर जाते। दोनों का एक-दूसरे के सामने होना ही हमें सारे जहां की खुशियां दे जाता था। वह मेरे जीवन का पहला प्यार और सुखद एहसास था। चोरी-छिपे हमारे मिलन का सिलसिला यूं ही लगातार चलता रहा। कभी हम रूठते तो कभी वह। ऐसा करते-करते पता नहीं कब 18 महीने गुजर गये।


बोर्ड एग्जाम शुरू हो चुके थे। मेरा पूरा फोकस पढ़ाई पर ही था। वह भी कहती पढ़ाई करो। कभी-कभी हम समय निकाल कर मिल जरूर लेते थे। परीक्षा होने के बाद वह क्षण आ गया जिसे मैं नहीं आने देना चाहता था। पापा का सन्देश आया कि पेपर हो गये हैं, कुछ दिन घर पर रहो आकर। भैंस भी दूध दे रही है। मन उदास, आंखें नम और दिल में अथाह पीड़ा थी। जल्द आने का वादा कर बुझे मन से अलख से विदा ली। वह खिड़की के पीछे से मुझे जाते हुए देखती रही। इस बार गांव में अच्छा नहीं लग रहा था। जैसे-तैसे वक्त कटा और फिर वह समय आ ही गया जब मुझे लखनऊ जाना था। दोस्तों और घरवालों से विदा लेकर निकल पड़ा। रास्ते भर सिर्फ अलख के बारे में ही सोचता रहा। उसकी यादों को दिल समेटे मैं जल्दी-जल्दी लखनऊ पहुंचना चाहता था। बस से उतरते ही मैं घर की ओर भागा। मेरे कान उसकी आवाज सुनने को बेताब थे और आंखें जल्द से जल्द उसका दीदार करना चाहती थीं। धीरे से मेन गेट धकेला, क्योंकि उसे सरप्राइज देना चाहता था। गांव से उसके लिए स्पेशल पेड़े जो लेकर आया था। अलख का फ्लैट बंद देखा तो मेरे पैरों से जमीं खिसक गई और मुझे चक्कर सा आने लगा। उसके दरवाजे में ताला पड़ा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं? मैं बुझे मन से अपने फ्लैट में गया। भाई से पूछा सामने वाले अंकल कहां गये? उन्होंने बताया कि उनके छोटे बेटे ने मोहल्ले में मारपीट की थी जिससे ज्यादा विवाद हो गया और वह लोग रात में ही सामान लेकर चले गए थे। यह भी नहीं कि कहां गये। उन दिनों आज की तरह मोबाइल की भी सुविधा नहीं थी।


अगले दिन मैं उस दुकान पर गया जहां, अलख के पापा और भाई काम करते थे। पता चला कि वे लोग कई दिनों से यहां आये ही नहीं। कई बार स्कूल गया, पता चला कि उसका नाम अटेंडेंस रजिस्टर से कट चुका था। उससे मिलने की आस लगातार धूमिल होती जा रही थी। मेरी पढ़ाई चौपट हो रही थी। उसकी याद में मेरी आंखों से अक्सर गंगा-जमुनी की धार सी बह निकलती। छिप-छिपकर मैं रोता रहता। दवा लेने के बावजूद मेरी तबियत खराब होती जा रही थी। पापा के कहने पर भाई ने गांव भेज आये। मेरा तो जैसे सब लुट ही चुका था। दोस्तों ने बहुत समझाया, पर मुझे रह-रहकर उसकी याद मुझे बेचैन करती रही। तबियत ठीक हुई तो मुझे फिर से लखनऊ भेज दिया गया, क्योंकि मेरी पढ़ाई चौपट हो रही थी।


अलख के फ्लैट में दूसरे किरायेदार आ चुके थे, लेकिन मेरी दुनिया उजड़ सी चुकी थी। वापस आने के बाद मैं पूरा लखनऊ छानता रहा कि शायद वह या उसके घर का कोई भी सदस्य मुझे मिल जाये, पर कुछ भी पता न चल सका। मुझे जहां भी पता चलता कि कोई मकान किराये पर है, जाकर पता लगाता कि शायद वे लोग यहां रह रहे हों। लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। मैं वर्षों उसका इंतजार करता रहा, शायद किसी मोड़ पर मिल जाये पर ऐसा आज तक न हो सका। पता नहीं क्या हुआ और कहां चले गए वो लोग? 


मेरी तरह उसकी शादी भी हो गयी होगी और खुशी-खुशी अपना जीवन व्यतीत कर रही होगी, लेकिन उसे मेरी याद जरूर आती होगी। मुझे तो आज भी जब वह याद आती है, मन विचलित सा हो जाता है। उसकी वही शरारती और सुंदर छवि मेरी आंखों में घूम जाती है। लगता है कि शायद उससे कहीं मुलाकात हो जाये। अब तो सिर्फ इसी गाने पर भरोसा है- छोटी सी दुनिया पहचाने रास्ते हैं कभी तो मिलोगे पूछेंगे हाल... 

शनिवार, 15 अगस्त 2015

आजाद तो हम तब थे, अब तो गुलाम हैं

आजादी के राष्ट्रीय पर्व का जश्न तो बचपन में ही धूम मनाते थे। अब तो बस खानापूर्ति हो रही है। स्कूल हो या सरकारी तफ्तर तिरंगा फहरा दिया गया। आजादी के महानायकों पर फूलमाला चढ़ा दी गई। बस हो गई कर्तव्यों से इतिश्री। लेकिन पहले ऐसा नहीं होता था। हम सही में आजादी का जश्न दिल से और धूमधाम से मनाते थे।

15 अगस्त हो या 26 जनवरी दो-तीन दिन पहले से ही घर में अम्मा जी और बहन को कविताएं सुना-सुनाकर बोर कर दिया करते थे। तालाब के किनारे से 'सेठा' काट ले आते, उसमें सादे कागज पर बनाया हुआ तिरंगा लपेटते और एक दिन पहले ही गलियों-कूचों में गाते घूमते 'झंडा ऊंचा रहे हमारा'। 15 अगस्त के अवसर पर पापा की साइकिल में, बरामदे में बने छप्पर पर पूरे दिन हमारा तिरंगा लहराया करता था। केवल मैं ही नहीं, बल्कि पूरे गांव में ऐसा ही होता था। हर घर की छत पर कम से कम एक तिरंगा तो दिख ही जाता था और हर घर में 15 अगस्त की तैयारियां।

मुझे याद है जब मैं अपने गांव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ा करता था। अगस्त शुरू होते ही स्कूल में पंडित जी (अध्यापक) स्वतंत्रता दिवस की तैयारियों में मशगूल हो जाते थे। छात्रों को रोज वंदे मातरम्, देशभक्ति की कविताएं रटाई जाती थीं। भाषण भी तैयार कराए जाते थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, महात्मा गांधी, रानी लक्ष्मीबाई सभी के चहेते नायक हुआ करते थे। सभी बच्चों को इन महान देशभक्तों के बारे में बहुत कुछ पता रहता था। पता नहीं अब ऐसा होता है या नहीं।

आखिर वह दिन आ जाता था, जिसके लिए पिछली रात को ठीक से नींद नहीं आई थी। अम्मा भी कहतीं, जाओ स्कूल में कविताएं बढ़िया से सुनाना। चूंकि मैं ब्राम्हण परिवार से हूं इसलिए संस्कृत के श्लोक भी ठीक-ठाक आते थे। पापा के दैनिक श्लोक पाठ को हम भाई लोगों पहले ही रट लिया था। उन दिनों स्कूल-कॉलेजों में संस्कृत को अंग्रेजी से कमतर तो कतई नहीं आंका जाता था। पर अब सभी अंग्रेजी चाहिए।

खैर छोड़िए, इन बातों में क्या रखा है। हम तो बात कर रहे थे 'तब की आजादी' की। 15 अगस्त को हम सुबह ही स्कूल में पहुंच जाते। पंडित जी सभी को झाड़ू पकड़ा देते। सभी बड़े मन से स्कूल साफ करते। भूल जाते कि अम्मा ने कितना समझाकर भेजा था कि भइया कविता सुनाने से पहले कपड़े गंदे मत करना। 

सबसे पहले प्राइमरी स्कूल में ही ध्वजारोहण का कार्य संपन्न हो जाया करता था। क्योंकि पास में ही 100 मीटर की दूरी इण्टर कॉलेज था। जहां ऐसे अवसरों पर लाउडस्पीकर लगता था, जिसकी कानफोड़ू आवाज हमें हमारे स्कूल में सुनाई देती थी। 

15 अगस्त के दिन सबसे पहले हमारे नाखून चेक किए जाते। कपड़े साफ पहनें हैं या नहीं, यह भी चेक किया जाता। इसके बाद ईश्वर प्रार्थना, ध्वजारोहण, राष्ट्रगान होता फिर कविताओं का दौर चलता। लेकिन इन सबसे पहले स्कूल के पंडित जी या मुंशी जी एक लंबा सा भाषण देने से नहीं चूकते कि कितनी मुश्किल परिस्थितियों में हमें आजादी मिली। राष्ट्रीय पर्वों पर बच्चों में बांटने के लिए हेडमास्टर जी बताशे मंगाते थे, जो हम सबके बीच बांट दिए जाते थे। हर छात्र को एक-एक मुट्ठी बताशा मिलता था। लेकिन हमें तो जलेबी खानी होती थी। वह मिलती थी पड़ोस वाले इंटर कॉलेज में।

कोई चपरासी तो होता नहीं था, इसलिए जल्दी से हम लोग कुर्सी-मेज वगैरह इंटर कॉलेज की तरफ सरपट भाग जाते थे। वहां कोई बाउंड्री वॉल तो थी नहीं, इसिलए मैदान में ही कार्यक्रम का आयोजन होता था। वहीं, सभी छात्र अपनी कविताएं सुनाते थे। प्राइमरी वालों की भीड़ देखते ही तुरंत इंटर कॉलेज के एक मास्टर साहेब डंडी लेकर आ जाते और हम सबको लाइन से बिठाते। हम भी चुपचाप बैठकर कविताएं सुनते, जैसे ही शोरगुल होता मास्टर जी का डंडा सटक जाता था।

कॉलेज में छात्रों के लिए कागज के एक लिफाफे में जलेबियां आती थीं, जिन्हें उनके बीच बांट दिया जाता था। साथ ही प्राइमरी के छात्रों को भी जलेबी के दो-दो छत्ते दिए जाते। जिन्हें लेकर हम तुरंत घर की तरफ भाग जाते। रास्ते में देखते जाते कि किसके पास ज्यादा जलेबी और ज्यादा बताशे हैं।

राष्ट्रीय पर्व के मौके पर एकमात्र गांव में उपलब्ध दूरदर्शन चैनल 2 बजे से किसी देशभक्ति की फिल्म का प्रसारण करता था, जिसे हम देखे बिना हिलते तक नहीं थे। लाइट तो गांव में थी नहीं, इसलिए पहले से ही बैटरी भरवा ली जाती थी। पूरा दिन देशभक्ति के गीत गुनगुनाने में, शहीदों को याद करने में ही निकल जाता था। पर अब ऐसा नहीं होता।

अब तो बस लकीर का फकीर बने हुए हैं। ऐसा लगता है कि अब कोई आजाद नहीं है, न ही किसी प्रकार की आजादी है। हर कोई किसी न किसी तरह की गुलामी में जकड़ा हुआ है। अब तो बस फेसबुक और व्हाट्सएप पर happy Independence day, जय हिंद, जय भारत जैसे स्लोगन लिखकर या तिरंगे की तस्वीर भेज कर इतिश्री कर लेते हैं। अब सिर्फ यही है हमारी देशभक्ति का जज्बा, जुनून और आजादी का मतलब!

शनिवार, 25 जुलाई 2015

किसानों के घावों पर तेजाब मत छिड़किए मंत्री जी

राज्य सभा में मोदी सरकार के केंद्रीय मंत्री राधा मोहन सिंह ने जो भी बयान दिए, संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। केंद्रीय मंत्री ही नहीं पूरी मोदी सरकार जिन किसानों की हिमयाती होने का दम भरती है, उनके लिए कृषि मंत्री द्वारा ऐसा बयान देना घाव पर नमक नहीं बल्कि तेजाब छिड़कने जैसा है। राज्य सभा में मंत्री जी ने किसानों की आत्महत्या के कारणों पर जवाब देते हुए कहा कि इस साल 1400 से ज्यादा किसानों ने दहेज, प्रेम संबंधों और नामर्दी के चलते आत्महत्या की। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2014 में कुल 5650 किसानों ने आत्महत्याएं की। ये वे लोग हैं जो कृषि के क्षेत्र में आत्म निर्भर थे।

बयान पर बवाल होना स्वाभाविक था। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, सीपीआईएम नेता सीताराम येचुरी समेत कई नेताओं ने कृषि मंत्री के बयान की निंदा करते हुए संवेदनहीन तक कह डाला। वहीं, जद(यू) सांसद के.सी. त्यागी ने कहा कि वह इस बयान के लिए कृषि मंत्री के खिलाफ विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव लाएंगे।

सवाल ये नहीं है कि बयान पर किसने क्या कहा? विपक्ष का काम है बोलना, वो तो बोलेगा। सवाल है कि खुद को किसानों की हमदर्द कहलाने वाली सरकार के केंद्रीय मंत्री में इतनी भी समझ नहीं है कि आत्महत्या की वास्तिवक वजह प्यार में धोखा खाना नहीं बल्कि कर्ज, फसल बर्बादी और बिचौलियों के कारण सरकार से न मिलने वाली सहायता है। समझ में नहीं आता खुद को किसान पुत्र कहने वाले राधा मोहन जी किन किसानों की बात कर रहे हैं? हमारे देश में तो अधिकतर किसान दो जून की रोटी के जुगाड़ में ही जीवन खपा देते हैं।

केंद्रीय मंत्री बयान के दूसरे पहलुओं पर गौर करें तो साफ दिखता है कि किसानों के लिए अभी अच्छे दिनों की बात करना भी बेइमानी है। जब नीति नियंताओं को ही नहीं पता कि किसान की समस्या उसका वास्तविक दर्द क्या है! तो किसानों की वैसी स्थिति को ध्यान में रखकर योजनाओं पर अमल लाया जाएगा।

हालांकि, चौतरफा हमलों से घिरे राधामोहन सिंह ने अपने सफाई में कहा कि उन्होंने अपने मन से उसमें कुछ नहीं लिखा। जो भी आंकड़े दिए गए हैं वे एनसीआरबी के रिपोर्ट के आधार पर ही दिए गए हैं। सवाल ये उठता है कि कहां क्या लिखा है और किसने क्या लिखा है? मतलब नहीं है! आप क्या सोचते हैं किसान को सिर्फ इससे मतलब है। क्योंकि आप सिर्फ आप ही इस देश के कृषि मंत्री हैं। आप पर ही अन्नदाता तक सुविधाएं पहुंचाने की जिम्मेदारी है, जिसके लिए जनता ने पूरी ताकत से आपको चुनकर यहां तक पहुंचाया है। उसकी भावनाओं संग यूं खिलवाड़ आने वाले दिनों में आपको काफी महंगा पड़ सकता है।

अगर आप आंकड़ों की ही बात करते हैं तो करीब पांच साल पहले कृषि लागत व मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने पंजाब में कुछ केस स्टडी के आधार पर किसानों की खुदकुशी की वजह बढ़ता कर्ज, साहूकारों द्वारा वसूला जाने वाला मोटा ब्‍याज और किसानों की छोटी होती जोत को बताया था। बयान देते समय आपके जेहन में वो क्यों नहीं आया?

ऐसा पहली बार नहीं है जब मोदी सरकार के किसी मंत्री ने किसानों को लेकर विवादित बयान दिया हो। इससे पहले अप्रैल में जब दिल्ली में आम आदमी पार्टी की रैली में गजेंद्र नाम के एक किसान ने जब पेड़ पर फांसी लगाकर आत्महत्या की थी तो बीजेपी शासित हरियाणा के कृषि मंत्री ओपी धनखड़ ने कहा था कि ऐसे लोग कायर होते हैं।

ऐसा ही रहा तो वो समय दूर नहीं है, जब किसानों का पूर्ण बहुमत से चुनी गई सरकार पर से भी भरोसा उठने में कतई देर नहीं लगेगी। आपका काम है कि देखना कि वर्तमान में किसानों की क्या समस्याएं हैं? ऐसा क्या किया जाए कि भविष्य में उन्हें भूतकाल जैसी परिस्थतियों से दो-चार न होना पड़े? तभी आपकी और आपके सरकार की सार्थकता है। अन्यथा आप भी सबसे अलग नहीं हैं।