रविवार, 19 अगस्त 2012

अलविदा लक्ष्मण...

भारत के  वेरी-वेरी स्पेशल बल्लेबाज के वेरी-वेरी स्टाइलिश शॉट अब आपको सिर्फ रिकार्डिंग में ही देखने को मिलेंगे।इस धुरंधर बल्लेबाज को अब हम स्टेडियम में ग्राउंड के चारों तरफ कलात्मक शॉट लगाते नहीं देख पायेंगे। अपनी कलात्मक बल्लेबाजी से दुनिया की धुरंधर टीमों के लिए परेशानी का सबब बने वीवीएस लक्ष्मण ने क्रिकेट से संन्यास ले लिया है। 1996में लक्ष्मण ने टेस्ट क्रिकेट में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ अपने कैरियर की शुरुआत की थी। अपने 16 साल के लंबे क्रिकेट कैरियर में लक्ष्मण ने भारत की तरफ से खेलने वाले इस धुरंधर बल्लेबाज ने 134 टेस्ट मैच खेले इनमें 8781 रन बनाये।आस्ट्रेलिया के खिलाफ इनकी 281 रनों की पारी आज भी यादगार है।वहीं,वेरी वेरी स्पेशल ने 86 एक दिवसीय मैचों में दो हजार से ज्यादा रन बनाये। फिर भी अपने पूरे क्रिकेट कैरियर में लक्ष्मण को कई बार उतार चढ़ाव का सामना करना पड़ा। लेकिन लक्ष्मण ने हर बार अपने आलोचकों को अपने बल्ले से मुंहतोड़ जवाब दिया।लक्षमण ने हमेशा शांत रहकर मैदान पर अपने बल्ले से विपक्षी गेंदबाजों को धूल चटाकर भारत की जीत सुनिश्चित की है। लेकिन लक्ष्मण ने जिस तरह से अपना सबकुछ क्रिकेट में झोका हुआ है मुझे लगता है कभी उनके साथ न्याय नहीं हो सका है।एक ऐसा बल्लेबाज जो आमतौर पर प्रेशर में पांचवे या छठे नंबर पर बैटिंग के लिए आता है आप उससे कितनी उम्मीद रखते हैं। फिर भी लक्ष्मण ने अपने को हमेशा उम्मीद से बेहतर साबित किया। एक बार गांगुली ने कहा था कि लक्ष्मण बहुत ही शानदार बल्लेबाज हैं लेकिन अगर उन्हे भी ऊपर आकर खेलने का मौका तो उनके भी खाते में सचिन या राहुल द्रविड़ से कम रन नहीं होते। गांगुली और द्रविड के संयास लेने के बाद अभी तक उनके उत्तराधिकारी की खोज नहीं की जा सकी है वैसे में लक्ष्मण का उत्तराधिकारी कौन होगा कह पाना मुश्किल है।
न्युजीलैण्ड टीम के खिलाफ लक्ष्मण का टेस्ट टीम में सेलेक्शन हुआ था। उम्मीद जताई जा रही थी कि इस सीरीज के बाद लक्ष्मण सन्यास लेंगे। लेकिन जिस स्टाइल में इस स्टाइलिस बल्लेबाज ने सन्यास लिया है उससे उसकी भावनाओं का साफ पता चलता है, टीम में सेलेक्शन के बाद भी लक्ष्मण का सन्यास लेना अपने आप में पूरी कहानी बयां करता है।
चाहे भारत के सफलतम कप्तान गांगुली हों,टीम इंडिया की भरोसेमंद दीवार कहे जाने वाले राहुल द्रविड़ हों या फिर कलाई के जादूगर वीवीएस लक्ष्मण हों इन सबकी जिस तरह से टीम की विदाई हुई निश्चित ही पीडादायक और दिल को ठेंस पहुंचाने वाली है।
जिन्होने पूरी दुनिया में अपनी बल्लेबाजी से भारतीय टीम का डंका बजाया उनकी इस तरह से विदाई किसी भी तरह से सही नहीं मानी जा सकती ।

शनिवार, 18 अगस्त 2012

वेरी-वेरी स्पेशल...

दुनिया में वेरी-वेरी स्पेशल के नाम से मशहूर भारत का ये बल्लेबाज अब आपको ग्राउंड पर शायद कलात्मक शाट लगाते नहीं दिखेगा,वीवीएस लक्ष्मण को दुनिया के कलात्मक बल्लेबाजों की श्रेणी में गिना जाता है,,जब ये बल्लेबाज मैदान में उतरता है तो उनकी कलात्मक बल्लेबाजी से भारतीय ही नहीं विपक्षी टीम के खिलाडी भी तारीफ किए बिना नहीं रह सकते हैं,वीवीएस लक्ष्मण को भारतीय टीम का संकटमोचक भी कहा जाता रहा है,,लक्ष्मण ने हमेशा ही दुनिया की दिग्गज टीमों के खिलाफ शानदार प्रदर्शन किया है,जब भी कोई टीम भारत को बैकफुट धकेलती तो गेंदबाजों की राह में सबसे बड़ा रोडा बनकर लक्ष्मण ही खड़े नज़र आते रहे हैं। लक्ष्मण के करियर में ऐसे एक नहीं कई मौके आये हैं,जब उन्होंने पुछल्ले बल्लेबाजों के साथ मिलकर मैच में भारत की वापसी कराकर विरोधियों के हौसले पस्त किये हैं,,आज भी ईडन गार्डेन में आस्ट्रेलिया के खिलाफ लक्ष्मण की खेली गई वो पारी कोई कैसे भुल सकता है,,उस मैच में भारत फालोआन की शर्मिंदगी झेल रहा था,,और हार लगभग तय मानी जा रही थी,,तभी वेरी वेरी स्पेशल के नाम से मशहूर भारत का ये संकटमोचक ऑॅस्ट्रेलियाई टीम के सामने चट्टान की तरह खड़ा हो गया,, इस मैच में भारत ने ना केवल वापसी की बल्कि शानदार जीत दर्ज कर सीरीज पर अपनी पकड़ भी बनाई,,जानी मानी पत्रिका विज्डन ने लक्ष्मण की इस स्पेशल पारी को दुनिया की बेस्ट पारियों में शामिल किया है, ऐसे एक नहीं कई मौके आये हैं जब लक्ष्मण भारतीय टीम की नैया के खेवनहार साबित हुए हैं,,लक्ष्मण के सन्यास लेने से वैसे तो हर विपक्षी टीम को खुशी मिली होगी, लेकिन सबसे ज्यादा खुशी आस्ट्रेलियाई टीम को मिली होगी, इस टीम के खिलाफ वेरी वेरी स्पेशल लक्ष्मण का बल्ला जरूर बोला है, इस बात का एहसास ऑॅस्ट्रेलियाई गेंदबाजों को भी है, लक्ष्मण ने टीम इंडिया के लिये 134 टेस्ट मैच खेलें हैं जिसमें उन्होने 17 शतकों की मदद से 8781 रन बनाये हैं, वहीं  86 वनडे मैचों में  6 शतकों के साथ 2338 रन बनाये हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से इस हैदराबादी बल्लेबाज का बल्ला खामोश रहा है,,जिससे लक्ष्मण के टीम में चयन पर संशय के बादल मंडराते रहे हैं। न्युजीलैण्ड के खिलाफ आगामी सीरीज में ये भारतीय सितारा शायद आखिरी बार मैदान पर दिखेगा। सूत्रों के हवाले से मिली खबर के मुताबिक हैदराबाद में होने वाले टेस्ट मैच के बाद वीवीएस लक्ष्मण क्रिकेट से सन्यास ले सकते हैं,,जिसकी वे आज घोषणा कर सकते हैं।लक्ष्मण के सन्यास लेने के बाद कुछ प्रश्न भारतीय टीम और सेलेक्टरों के पेशानी पर बल जरूर डालेंगे कि लक्ष्मण के जाने के बाद टीम उनकी जगह कौन लेगा।इतना तो तय है कि इस कलात्मक बल्लेबाज के स्थान की पूर्ति कर पाना इतना आसान नहीं होगा। वीवीएस लक्ष्मण जैसा महान कलात्मक बल्लेबाज शायद ही कभी टीम इंडिया को मिल पाये

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

मित्र, तुम बहुत याद आते हो...


फ्रैंडशिप के दिन सभी दोस्त एक दूसरे से मिलकर, फोन या मैसेज करके अथवा फेसबुक या दूसरे अन्य माध्यमों से दोस्तों को फैंडशिप डे की शुभकानाएं देते हैं। मेरे पास भी कुछ दोस्तों के मैसेज आये, मैंने भी  जवाब दिया। अपने बचपन के जिगरी दोस्त को भी मैसेज किया। उसने भी मुझे मैसेज कर मित्र दिवस की शुभकामनाएं दीं।फ्रैंडशिप दिवस के इतने दिन बीत जाने के बाद भी मेरा मन भारी-भारी लग रहा है। अभी भी मैं मित्रदिवस की शुभकामनाओं को पचा नहीं पा रहा हूं।

अनायास ही जब तब मेरे मन को मेरे एक खास दोस्त की यादें विचलित किये रहती हैं। उसे कुछ समय पहले हमसे भगवान ने छीन लिया था। लेकिन वो आज भी हमारे दिल में समाया हुआ है। आज भी उसकी यादें मेरी आंखों को नम कर जाती हैं। पहले जैसी उसकी हूबहू तस्वीर अभी भी मेरे जेहन में बसी हुई है।

एक दर्दनाक हादसे में प्रकृति ने उसे हमसे छीन लिया था। उसका नाम "अरविंद रस्तोगी "था जिसे हम प्यार से "रस्तोगी" कहकर बुलाया करते थे। सुनार होने के कारण वह और उसका पूरा परिवार सोनारी का काम करता था। लेकिन वह हमेशा से ही लीक से हटकर कुछ अलग करना चाहता था, और करता भी था। उसने अपने  एरिया में सबसे पहली मोबाईल शॉप खोली, और भी कई लेटेस्ट विजनेस किये। पैसे भी खूब कमाये।

तीन भाइयों में रस्तोगी सबसे छोटा था। बड़े भाई की शादी हो चुकी थी। दूसरा भाई मानसिक रूप से विक्षिप्त था। पिताजी बचपन में ही छोड़कर चल बसे थे। रस्तोगी अपने भाई से अलग रहता था। वह अपनी बूढ़ी मां, विक्षिप्त भाई, पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ खुश था। उसके परिवार का सामाजिक दायरा बिल्कुल ही नगण्य था। हर कोई अपने काम से काम रखता था और सभी यही चाहते थे कि रस्तोगी भी उसी काम में हाथ बटाये, पर पता नहीं उसे कब,और कैसे क्रिकेट का चस्का लग गया और वह दुकानदारी के साथ-साथ क्रिकेट के लिए भी टाइम निकाल लेता था।

मेरी उससे पहली मुलाकात मेरे स्कूल के क्रिकेट के ग्राउंड में मेरे ही दोस्त राघ्वेन्द्र सिंह (रिंकू) ने करवाई थी। रिंकू मेरे बचपन का पहला दोस्त था जो अब तक भगवान के आशीर्वाद के रूप में मेरे साथ  है। हमारी दोस्ती को कभी भी जमाने की नजर नहीं लगने पाई। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि रिंकू का स्वभाव, उसकी सोच, उसकी विचारधारा यहां तक कि सब कुछ उच्चकोटि का है। मुझे कहने में कतई संकोच नहीं कि वह हमारी मित्र मंडली में सबसे हैंडसम और दोस्तों पर जान लुटाने वाला था। वह इस जमाने में किसी कृष्ण से कम नहीं है।

रिंकू अच्छे जमींदार परिवार से संबंध रखता है। उसके दादाजी लगातार कई सालों तक ग्राम प्रधान भी रहे। हमारी दोस्ती हमें विरासत में मिली थी। मेरे पापा और उसके दादाजी एकदम पक्के दोस्त हैं। अभी भी लोग उनकी दोस्ती की मिसाल देते हैं। इसलिए हमारा आना-जाना तो पहले से ही था और हम दोनों पहली मुलाकात में ही एक दूसरे के खास दोस्त बन गये। हमारी मंडली का हर दोस्त दूसरे पर कभी भी अपना सबकुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार रहता है।

रिंकू ने जब मुझे रस्तोगी से मिलवाया तो संदेह का कोई प्रश्न ही नहीं था। धीरे-धीरे रस्तोगी भी हम दोनों में इतना घुल गया कि अब हम तीनों को कहीं जाना होता, खाना होता तो साथ ही खाते थे। पहली बार जब "टी-ट्वंटी क्रिकेट वर्ल्ड कप" में भारत फाइनल में पहुंचा था। रस्तोगी और रिंकू ने प्लान बनाया कि चलो मैच देखने लखनऊ चलते हैं। इत्तेफाक से मैं भी आ गया फिर क्या था वही हुआ! हम तीनों ने चुपचाप लखनऊ जाने का प्रोग्राम बना डाला। धीमे-धीमे बारिश भी हो रही थी समस्या थी लखनऊ कैसे पहुंचा जाये। समय भी कम था तीन घंटे ही बचे थे मैच शुरू होने में और बस से जाने में चार घंटे से भी ज्यादा लगने थे। बहुत ही असमंजस की स्थिति थी कि तभी रिंकू के "चौहान फूफाजी" आ गये। फिर क्या था हमारी तो बांछे खिल गईं। क्योंकि फूफाजी का स्वभाव इतना अच्छा है कि पूंछिए ही मत। वो कहने को तो फूफाजी थे पर वास्तव में किसी दोस्त से कम नहीं हैं। उनके पास "हीरो हॉंण्डा" की पुरानी बाईक सीडीएसएस थी, जो शायद हम तीनों के बोझ से शरमा जाती। हमने फूफा जी से बाईक के लिए कहा, पर उन्हें भी नहीं बताया कि लखनऊ जाना है। उन्होने हंसते हुए चाभी दे दी और कहा, आराम से जाना, पेट्रोल की चिंता मत करो टंकी भरी हुई है।

अंधा क्या चाहे दो आंखे न। हम तीनों हल्की बूंदाबांदी में हंसते बातें करते हुए लखनऊ की ओर रवाना हो चले। हमारे पास न तो बाइक के कागज थे और न ही ड्राइविंग लाइसेंस, फिर भी हम लोग चेकपोस्ट को धता बताते हुए निकल ही गये। लखनऊ पहुंचते-पहुंचते हम लोग पूरी तरह से भीग चुके थे ठंडक भी खूब लग रही थी पर मजाल हममें से कोई उफ तक करे। अब हम लोग के सामने बड़ी समस्या थी कि मैच कहां देखें क्योंकि न तो मैं अपने भाइयों के पास जा सकता था, क्योंकि हमने घर में नहीं बताया था कि हम लखनऊ जा रहें हैं। अगर मैं घर में बताता तो नतीजन घर जाना पड़ता और शायद भीगने के कारण डांट भी खानी पड़ती।

फिलहाल हमने एक इलेक्ट्रॉनिक की दुकान पर मैच चल रहा था हमने फैसला किया चलो यहीं देखेंगे। पहले भारत बैटिंग कर रहा था आखिरी के चार-पांच ओवर बचे थे। एक पारी खत्म हुई रस्तोगी ने कहा चलो मेरे मामा यहीं बालागंज में रहते हैं उनकी दुकान पर मैच देखेंगे। हम लोग वहां पहुंचे मामाजी ने गर्मा गरम चाय पिलाई तब जाकर कहीं हल्की राहत सी महसूस हुई। फिर हमने वहीं बैठे-बैठे सारा मैच देखा। इंडिया ने वह मैच जीतकर पहली बार टी-ट्वंटी का विश्व चैंपियन बनने का गौरव हासिल किया। मैच खत्म होने के बाद मामा ने कहा यहीं रुक जाओ लेकिन हम नहीं रुके, क्योंकि रिंकू के कुछ और दोस्त भी वहां किराए के मकान में रहते थे जो मेरे भी अच्छे दोस्त बन गये थे। हमने वहां जाने का फैसला कर लिया। वहां पहुंचकर खूब मस्ती-धमाल किया।

दोस्तों के साथ रहना किसी पिकनिक से कम न था। एक्चुअली मैं जब भी लखनऊ आता था कोशिश करता था कि मेरे घर वाले न जान पायें क्योंकि अगर जान जाते तो मुझे वहीं रुकना पड़ता जो मेरे लिए किसी सजा से कम न था। मैं जब भी कभी लखनऊ जाता कोशिश यही करता कि घर में न रुककर अपने प्यारे दोस्तों के साथ ही रहूं। मुझे दोस्तों के साथ रहकर इनती खुशी मिलती जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। हमारे घरवाले भी हमारी दोस्ती को पसंद करते थे उसकी कद्र भी करते थे, क्योंकि हम सब में क्रिकेट खेलने के अलावा कोई भी ऐसी आदत नहीं थी जिसे गलत कहा जा सके। रिंकू को तो मेरे घरवाले पहले से ही जानते थे रस्तोगी ने भी अपने व्यवहार से परिवार में अपनी जगह बना ली थी। हम तीनों ही क्रिकेट भी अच्छा खेलते थे। मैं और रिंकू आलराउंडर थे जो तेज गेंदबाजी के साथ अच्छी बल्लेबाजी भी करते थे। वहीं, रस्तोगी भी ठीक-ठाक खिलाड़ी था लेकिन बैटिंग आर्डर में उसका डाउन नीचे रहता था और गेंदबाजी में भी पूरे ओवर नहीं दिये जाते थे। इसलिए उसको मौके कम ही मिलते थे। लेकिन फिर भी वह मेरी टीम का कैप्टन, कोच और संरक्षक था।

हम तीनों के गांव एक-एक किलोमीटर के अंतराल पर थे। हम मैच खेलने से लेकर किसी न किसी बहाने रोज मिल ही लेते थे। हम सबमें रिंकू दोस्ती की सबसे ज्यादा कद्र करने वाला था। वह क्रिकेट के साथ-साथ बॉलीवाल का भी बेहतरीन खिलाड़ी था। हम लोग अक्सर मैच खेलने के लिए अपने ग्राउंड पर या बाहर जाया करते थे। खिलाडियों को मैनेज करना हो, या मैच खेलने की परमीशन के लिए हमारे पापा या रिंकू के दादा जी को मनाना हो हम तीनों साथ ही जाया करते थे और जिसके घर जाते उसी की बड़ाई करते। किसी प्रकार से हां करवाना ही हमारी प्राथमिकता रहती थी अगर किसी कारणवश कोई एक नहीं जा पाया तो समझ लो तीनों का मैच खेलना कैंसिल।

केवल हम तीन ही दोस्त थे ऐसा कहना एकदम गलत होगा। हमारे पास एक से एक अच्छे दोस्त थे। लेकिन हम तीनों की बात ही कुछ और थी। हम तीनों अलग-अलग जिस्म पर एक जान थे। रस्तोगी एक खुशमिजाज लड़का था वह हमेशा खुश रहता और कोशिश करता कि दूसरे भी हमेशा खुश ही रहें। हम दोनों रस्तोगी को खूब परेशान करते। उसको पीटते ग्राउंड में उसको गिरा देते और उसको खूब चिढ़ाते, मतलब खूब मस्ती करते। वो भी पट्ठा जाने किस मिट्टी का बना था कभी बुरा भी नहीं मानता। उसकी यही खूबी यही आदत अभी तक हमको रुला रही है।

हम दूसरी टीमों से शर्त लगाकर मैच खेलते, किससे मैच लेना है कितना क्या करना है, टीम कैसे मैनेज होगी ये सारी जिम्मेदारी रस्तोगी ही निभाता था। रस्तोगी जब दूसरी टीमों से मैच ले आता, हमें बताता। हम सब उसकी बहुत खिंचाई करते, उसको खूब परेशान करते कि मैं नहीं खेलूंगा, जबकि मन में खेलने के नाम से ही लड्डू फूटते। खेलने का लाख मन होने के बावजूद उसको बुरा-भला कहते। साले तेरे पास मैच खेलने के अलावा और कुछ नहीं है मैं नहीं जाउंगा आदि तरीके से उसको कहकर परेशान करते। वो हमारी खुशामद करता भाई चलो मैंने मैच ले लिया है। शर्त के पैसे भी मैं ही दे दूंगा। अब कैसे होगा चलो प्लीज आदि।

आखिरकार हमें तो मानना ही होता था और हम मान ही जाते। उसके बाद भी शर्त रखते हम लोग को कैसे ले जाओगे ग्राउंड तक, वो बेचारा पूरी टीम के लिए बाईक की व्यवस्था करता और खुद बाईक पर लटककर बैठता। कभी-कभी वह हांफता हुआ पीछे से साईकिल से आता। लेकिन मजाल उसके चेहरे पर शिकन तक आ जाए। वो मेरा कप्तान होता जबतक वह नहीं आता टॉस नहीं होता। अक्सर हम लोग टीम कांबिनेशन की दुहाई देते हुए उसको ही बाहर बिठा देते और वह खुशी-खुशी बाहर बैठकर टीम का हौसला आफजाई करता। इतना ही नहीं वह ग्राउंड में दौड़कर पूरी टीम को पानी भी पिलाता था।

वह हमारे बल्ले से निकलने वाले एक-एक रन के लिए उछल-उछलकर तालियां बजाता। यहां तक कि हमारे हर चौके और छक्के पर पारले बिस्किट का पैकेट देता। वह क्रिकेट के नये-नये नियमों का हम सबसे अधिक जानकार था। बात-बात पर विपक्षी टीम से बहस करने लगता उसके होते कोई बेईमानी नहीं कर सकता था। वो आला दर्जे कि अंपायरिंग भी करता था। अंपायरिंग करते समय वह भूल जाता था कि हम उसके दोस्त हैं। एक बार हल्की स्निक लगने पर उसने कांटे के फंसे मैच में वेल सेटेल्ड रिंकू को आउट दे दिया परिणामस्वरूप हम लोग मैच हार गये। बाद में हम लोगों ने उसकी बहुत खिंचाई की।

एक दूसरे के पारिवारिक मसलें हों या प्राइवेट हम तीनों हमेशा ही एक-दूसरे के से खुलकर बात करते और परिवारों की भलाई के लिए अपना सबकुछ लगा देते। हमारे यहां कोई भी फंक्शन होता हम तीनों की उपस्थिति अनिवार्य थी। खासकर रस्तोगी काम में ऐसा व्यस्त हो जाता कि जैसे मेरा घर नहीं उसका है। कुल मिलाकर रस्तोगी बहुत ही जिम्मेदार और प्यारा दोस्ता था। इसीलिए हम लोग उस पर अपनी जान तक लुटाने को हमेशा तैयार रहते थे। किसी एक के भी न होने पर रिंकू अपने भाई पुष्पेंद्र या पंकज को भेजता वे दोनों बहुत ही आज्ञाकारी भाई हैं। अगर रिंकू उन दोनों से कुछ कह देता मजाल कि वो मना कर दें, और हम भी उनको अपने भाइयों जैसा ही मानते थे और अभी भी मानते हैं।

ये सब संस्कारों के ही नतीजे थे जो उनके दादाजी ने दिये थे। दादाजी जिन्हें सारा इलाका ही बाबाजी कहता है, बहुत उच्च आदर्शवादी और विचारवादी व्यक्ति हैं। वे अपने जमाने के जिला स्तर पर कुश्ती चैंपियन थे। दादाजी हमलोग को इतना प्यार करते थे जितना कि रिंकू को।

तू टीवी का बीमार है, जल्दी मरेगा आदि तरह-तरह के मजाक से अक्सर हम रस्तोगी को परेशान करते, उसको दौड़ाते, पीटते लेकिन वह कभी बुरा नहीं मानता। बाद में जब हमें लगता ज्यादा हो गया है सॉरी के साथ आई लव यू बोलकर उसे खुश कर देते।

समय अपनी गति से चलता रहा है लेकिन हमारी दोस्ती में और प्रगाढ़ता आती गई। अब हम लोगों को जॉब की जरूरत थी मैंने एक दुकान खोली थी साथ ही एलआईसी में एजेंट के तौर पर काम करने लगा था, जिसमें रस्तोगी ने मेरी बहुत मदद की थी। उसने अपनी सभी रिस्तेदारियों में मुझे ले जाकर अपने रिश्तेदारों के बीमे करवाये थे। इस बीच उसकी शादी भी हो गई थी। रिंकू भी लखनऊ शिफ्ट हो गया था और शेयर मार्केट में जॉब करने लगा था। इस तरह हम तीनों थोड़ा व्यस्त रहने लगे थे लेकिन हमारी दोस्ती में मिठास की कमी नहीं थी। एक-दूसरे से मिलने का कोई भी मौका हम लोग नहीं चूकते।

रस्तोगी के एक लड़का और एक लड़की भी थी। उसकी पत्नी रेनु का स्वभाव भी बहुत अच्छा था। हम सब कभी-कभी जब साथ होते उसके घर जाकर चाय-नाश्ता भी करते। कुल मिलाकर हमारे पास सबसे बड़ी जमापूंजी हमारी दोस्ती ही थी, जिस पर हमें किसी कुबेर के ख़जाने से कम गुमान नहीं था।

बरसात का मौसम था कई दिनों से हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। रस्तोगी के घर के पास दीवार से सटी एक नाली थी, जिसे वह सुबह-सुबह कचड़ा फंसा होने के कारण साफ कर रहा था कि अचानक कुदरत का कहर बनकर दीवार उस पर गिर गई। आनन-फानन में उसके उपचार की व्यवस्था की गई उसे लखनऊ ले जाया जा रहा था कि रास्ते में ही मेरे दोस्त मेरे हमसफर ने इस दुनिया से और हमसे अपना नाता तोड़ लिया था। रस्तोगी के मौत की खबर सारे इलाके में जंगल में आग की तरह फैल गई। खबर सुनकर मुझ पर तो मानों बज्रपात सा हो गया था, क्योंकि हम तीनों अगली शाम को ही मिले थे। दरअसल रिंकू के घर में रामायण का आयोजन था जिसमें हम सभी थे और खाने-पीने का सारा इंतजाम रस्तोगी ही देख रहा था। रिंकू सुबह ही लखनऊ चला गया था, जैसे उसे पता चला वह भी तुरंत लखनऊ से घर भाग पड़ा। उसने मुझे भी फोन किया और रोते हुए बोला राजन, अपना दोस्त रस्तोगी हमें छोड़कर चला गया।

हम वहां पहुंचे देखा हमारा दोस्त ज़मीन पर चुपचाप लेटा हुआ है। उसका तीन वर्षीय बेटा अपनी मां को रोता देख रोये जा रहा था और छोटी बहन अपने पापा की लाश से खेल रही थी। मेरे आंसू लगातार बहे जा रहे थे। क्रूर काल ने हमसे हमारा सबसे अजीज दोस्त छीन लिया था। जिसने भी उसकी मौत की खबर सुनी भागा चला आया। वहां पर हजारों लोगों की भीड़ लगी हुई थी। मुझे अपनी गलती का अहसास हो रहा था कि हम लोग उसे बुरा भला कहा करते थे और शायद हमारी ही बद्दुआ उसे लग गई थी। कुछ भी हो भगवान ने हमसे हमारा जान से प्यारा दोस्त छीन लिया था जिस हकीकत पर हम आज तक विश्वास नहीं कर सके कि सच में वो हमसे दूर चला गया। उसके परिवार को देखकर दिल फटा जा रहा था उसकी पत्नी रेनू जिसकी उम्र पच्चीस के आस-पास ही रही होगी उसका क्या होगा, बच्चों का क्या होगा, मां को कौन देखेगा और उसके पागल भाई का इलाज कौन करवाएगा आदि कई सवाल मेरे दिमाग में कांटे की तरह चुभ रहे थे।

हमारे अलावा हमारे परिवार के सभी लोग वहां मौजूद थे। उसका पार्थिव शरीर गोमती के तट पर ले जाया गया। हम लगातार बह रही अश्रुधारा से अपनी दोस्त की जलती चिता को नदी में विसर्जित होते देखते रहे। हम अपना सब कुछ खोकर वापस लौट आये। थोड़ी देर उनके घर पर ही रुककर रेनू के साथ उसकी मां को दिलासा दिलाने का असफल प्रयास करता रहा। उन्हें उनके हाल पर छोड़ हम अपने घर लौट गये।

सुबह-सुबह मेरे पास रेनू का फोन आया बोली बिटिया की तबियत बहुत खराब है। रात से रो रही है। मैं तुरंत ही अपनी बाइक से उसको लेकर पास के कस्बे में जो हमारे घर से पांच किलोमीटर दूर है ले गये। हम उसे फेमस स्वदेशी डॉक्टर के पास ले गये। लेकिन हमें क्या पता था कि यहां पर भी भगवान रेनू को और रुलाने के मूड में है। उस नन्ही जान भी अपनी मां का साथ छोड़ अपने पापा के पास चली गई। इस दोहरे आघात ने तो रेनू को तोड़कर ही रख दिया था। उसके शरीर में तो जैसे जान ही नहीं बची थी। रेनू अपनी सुध-बुध विसराये दहाड़े मारकर रोये जा रही थी। असहाय मैं भी रोता हुआ भगवान की क्रूरता देखे जा रहा था।

धीरे-धीरे सब सामान्य होने लगा था लेकिन रेनू की मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही थीं। परिवार वाले उसका साथ नहीं दे रहे थे। हालांकि कई बार मैं उनके घर गया, सबसे बात करने की कोशिश की पर सब सुलझ नहीं सका और आये दिन रेनू की जिंदगी और मुश्किल होती जा रही थी। घर वाले उसका कोई सपोर्ट नहीं कर रहे थे। मैंने और रिंकू ने सलाह-मशविरा किया कि किसी प्रकार रेनू की अच्छा लड़का देखकर शादी करा देना चाहिए और प्रण किया कि हम उसकी मां का ख्याल रखेंगे। उसके बच्चों को पढ़ाएंगे।

रेनू का अपनी ससुराल में रहना मुश्किल हुआ जा रहा था। कोई भी उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा था, वो अपने भाई के घर भी गई, पर कब तक रुकती कौन उसे सहारा देता। मैं अक्सर उसके घर चला जाता बेटे से मिलता जिसमें मुझे मेरे दोस्त की छवि नजर आती। उसके लिए कुछ न कुछ लेकर जाता। लेकिन रेनू के घर में न तो राशन था और न ही उसके पास पैसे थे कि वो अपना जीवन यापन कर सके। मैंने कई बार कोशिश की समझाने की कि तुम मेरे स्वर्गीय दोस्त की बीवी जरूर हो पर मेरे लिए मेरे बहन जैसी ही हो। मैंने कहा कि मैं राशन अपने घर से ला दूं पर उस खुद्दार ने मना कर दिया।

वयस्तता के कारण कई दिनों तक उधर नहीं जा सका। गया तो पता चला कि रेनू बच्चे को लेकर मौसी के घर सीतापुर चली गई है। मैंने फोन से बात की एक बार गया भी वह वहां ठीक थी बच्चा भी पढ़ रहा था। आखिरकार मौसी ने जाति का ही लड़का देखकर रेनू की शादी कर दी।

रेनू की शादी हो जाने से हम दोनों दोस्त काफी निश्चिंत हो गये और तबसे उसके गांव ही जाना छूट गया। हम दोनों भी अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हो गये। मैं भी कोर्स करने के बाद जॉब के लिए हैदराबाद चला आया और रिंकू भी लखनऊ में ही रहने लगा।

लेकिन फ्रैंडशिप डे पर फिर से मेरे सूखते जख्म ताजा हो गये हैं, फिर से मेरे दोस्त का मुस्काराता हुआ चेहरा मुझे रुला गया। मुझे लगता है दोस्ती के कुछ ऐसे फर्ज हैं जिन्हें शायद मैं निभा नहीं सका। मसलन हैदराबाद आने के बाद मेरी रेनू से या रस्तोगी की मां से एक बार भी बात नहीं हो सकी। यहां तक कि मैं अपने प्यारे दोस्त की आखिरी निशानी उसके बेटे के बारे में कोई कुशलक्षेम तक नहीं जान सका।

तबसे लेकर आज तक मुझे दोस्ती के नाम से डर लगता है। दोस्त के नाम से ही मेरी अंदर तक रुह कांप जाती है। आज मेरे पास गिने-चुने दोस्त हैं जिनमें मेरा अनमोल दोस्त रिंकू भी है। मैं भगवान से हमेशा यही प्रार्थना करता हूं कि भगवान मेरे दोस्तों और उनके परिवार वालों को हमेशा खुश रखे और उन्हें दुनिया के सारे ऐश्वर्य प्रदान करे। आई लव यू मेरे दोस्तों आई लव यू वेरी मच यू आर माई लाईफ ।

सोमवार, 5 मार्च 2012

वेलडन महिला कबड्डी चैंपियन्स

रविवार को भारतीय खेल के इतिहास में एक और सुनहरा अध्याय जुड़ गया,भारत एक और खेल में विश्व चैंपियन बन गया ।
भारतीय महिला कबड्डी टीम ने ईरान को रौंदकर पहली बार महिला कबड्डी विश्व चैंपियनशिप की सरताज बनी ।
ये जीत कई मायनों में अहम और खास इसलिए है कि एक तो कबड्डी जैसे उपेक्षित खेल में भारत विश्व विजेता बना,और दूसरे महिलाओं ने कबड्डी का विश्वकप जीतकर खुद की क्षमता का लोहा मनवाया । ये अपने आप में एक बड़ी बात है कि भारत जैसे देश में जहां क्रिकेट के अलावा किसी दूसरे खेल को खास तरजीह नहीं दी जाती है और वो भी कबड्डी जैसे खेल को,जिसके खिलाड़ियों के लिए न तो सही कोचिंग व्यवस्था है और न ही इस खेल और खिलाड़ियों को उचित प्रोत्साहन,प्रोत्साहित करने वाले लोग ।
इन सबको पीछे छोड़ते हुए जिस शानदार तरीके से भारतीय महिला टीम विश्व विजेता बनी है,बधाई की पात्र है ।ये बात दूसरी है कि एक अरब से ज्यादा आबादी वाले इस देश में केवल कुछ हजार ही लोगों ने ताली बजाकर बधाई दी ।
अक्सर समय-समय पर खेल प्रेमियों और मीडिया द्वारा यह बात उठाई जाती रही है कि भारत में क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों को भी प्रोत्साहित करने की जरूरत है, लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि भारत महिला कबड्डी में विश्व का सिरमौर बन गया,लेकिन छोटे से भी मुद्दे को पहाड़ बनाकर पेश करने वाली मीडिया ने भी जीत को खास तवज्जो नहीं दी्, टीवी चैनलों ने इस खबर को जिस तरह से ट्रीट किया शर्मनाक है ।
जो समाचार पत्र क्रिकेट के विश्वकप की बात छोड़िए क्रिकेट के किसी भी साधारण टूर्नामेंट का जिस तरह से विस्तृत कवरेज करते हैं काबिले तारीफ है,चाहे टीम कितनी ही पिट क्यों न रही हो ।उनके पहले पन्ने से लेकर कई पेज सिर्फ उसी खबर से पटे पड़े रहते हैं । वहीं उन्ही पेपरों ने इस बड़ी खबर को भी पहले पेज की तो बात ही छोड़िये, खेल प्रृष्ठ पर भी एक कोने में बॉटम स्टोरी की तरह पेश किया । उस टूर्नामेंट जिसमें कि भारतीय टीम बुरी तरह पिटकर बाहर हो चुकी है उसी टूर्नामेंट के चल रहे श्रीलंका और ऑस्ट्रेलिया के मैच में नीचे एक कोने में जगह मिली है।
सबसे बड़ी दुखद बात तो यह है कि बड़े-बड़े टीवी चैनलों पर क्रिकेट की हार जीत को लेकर विश्लेषकों की एक जमात सी लगी रहती है,उन्ही चैनलों ने इस खबर को बहुत ही साधारण तरीके से पेश किया, इससे ज्यादा तो हो हल्ला ऱणजी मैच जीतने पर होता है ।भारत अभी जब पिछले साल क्रिकेट का विश्व विजेता बना तो विजेता टीम के खिलाड़ियों,कोच और सदस्य रातोंरात मालामाल हो गये,बोर्ड, सरकार से लेकर विज्ञापनों तक ने खिलाड़ियों पर जमकर धनवर्षा की । राष्ट्रपति से लेकर एक सामान्य व्यक्ति ने भी टीम को जीत पर साधुवाद दिया,लेकिन मुझे दुख इस बात है क्या महिला कबड्डी की विश्व चैंपियन टीम इस सबकी हकदार नहीं है । जिन खिलाड़ियों ने भारत को महिला कबड्डी को विश्व का सरताज बना दिया क्या उन्हे भी क्रिकेट के खिलाड़ियों की तरह से नाम,पैसा और शोहरत मिल पायेगी जिसकी वे हकदार हैं या फिर गुमनामी के अंधेरों में खो जाएंगी ।ये उन लोगों को करारा जवाब और नसीहत भी है जो केवल अपने बातों से ही भारत में हर को आगे ले जाना चाहते हैं और जिसकी जिम्मेदारी भी उन पर है ।
अगर सच में भारत को हर खेल को आगे बढ़ाना है तो क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों से जुड़े खिलाड़ियों को हर वो सुविधाएं दिलानी होंगी जिसकी उन्हे जरूरत है । ये सरकार के साथ-साथ चौथे स्तम्भ के रूप में पहचाने जाने वाले मीडिया की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह भी क्रिकेट अलावा किसी दूसरे खेल के साथ सौतेला व्यवहार न करे ।

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

हैप्पी गणतंत्र दिवस !

आप सभी भारतवासियों को गणतंत्र दिवस पर बहुत-बहुत बधाई । इसके अलावा और हम कर भी क्या सकते हैं, आजकल महज औपचारिकताएं भर शेष हैं । भारतीय गणतंत्र की 63वीं वर्षगांठ पर संसदीय लोकतंत्र के भविष्य पर विचार करते हुए को आशातीत तस्वीर नज़र नहीं आती ।
औपनिवेशवादी गुलामी से मुक्त हुए देशों में शायद यह अकेला देश है जिसने लम्बे 6 दशकों से भी अधिक समय से अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाये रखा है। यह अपने को दुनिया को सबसे बड़ा बड़ा लोकतांत्रिक कहलाने का गौरव भी हासिल किये हुए है । यह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे बड़ी सामरिक शक्ति में भी दुनिया में चौथा स्थान रखती है । बावजूद इसके हमारा गणतंत्र फूटतंत्र और लूटतंत्र में तब्दील होता जा रहा है । इसके ऱखवाले ही ही इसे जाति,धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर छिन्न-भिन्न करने में लगे हैं ।
आज नौकरशाहों और राजनेताओं की विचारधारा में उनका स्वार्थीपन झलकता है । पहली पीढ़ी के  नेताओं ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किये थे लेकिन दूसरी पीढ़ी के नेताओं के हाथ में सत्ता आते ही नैतिक मूल्यों और आदर्शों के पतन का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अभी तक जारी है । कहने को हम तो कह सकते हैं कि भाषा,जाति और संस्कृति अर्थात अनेकता में एकता हुए भी देश में लोकतंत्र बना हुआ है । पिछले साठ सालों में हमारी लोकतांत्रिक राजनीति का इतना पतन हो गया है कि अपराधी और माफिया जिनके पूरे हाथ खून से रंगे हैं जो आकंठ तक अपराधों में डूबे हुए हैं, विभिन्न दलों में प्रवेश करके जनता के भविष्य निर्माता बन बैठे हैं । सत्ता उनके पास चली गई है जिन्होने अभी तक आम आदमी का खून ही चूसा है,उन्ही के कंधों पर जनता की जिम्मेदारी है । जिन्होने अभी तक जनता में भय ही फैलाया है जनता को लूटा ही है उन्ही पर जनता को भयमुक्त करने की जिम्मेदारी है । आज के लोकतंत्र को बेईमान लोगों ने राहु की तरह ग्रसित किया हुआ है और जो येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल कर निजी स्वार्थों को पूरा करने में लगे हुए हैं । कहने को तो जनता के हैं पर जनता की पहुंच से दूर कमांड़ोज के घेरे में रहते हैं, इन अवसरवादी लोगों का जनता के साथ दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है । सबसे खतरनाक स्थिति तो यह है कि जो लोग कायदे कानून से अपनी बात शांतिपूर्वक कहना चाहते हैं उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती है कोई भी उनकी समस्याओं को सुनने वाला नहीं है, इसी लिए लोग छोटी बड़ी बातों पर भी हिंसा के लिए उतारू हो जाते हैं । इस लगातार बढ़ते सामाजिक असंतोष का फायदा नक्सली,आतंकवादी और असामाजिक तत्व बखूबी उठा रहे हैं ।
एक बहुत बड़ा प्रश्न हमारे लोकतंत्र के सामने मुँह उठाये खड़ा है कि हमें कैसा भारत चाहिए कैसा लोकतंत्र चाहिए...जिसमें नागिरक अपने द्वारा ही चुने गये लोगों से ड़रें या वह भारतीय लोकतंत्र चाहिए जिसमें सभी को समानता का अधिकार,सभी को उचित न्याय सभी की आवश्यक जरूरतों को पूरा किया जा सके ।
मुझे लगता है राजनीतिक लोकतंत्र का तब तक कोई मतलब नहीं जब तक कि आर्थिक लोकतंत्र न हो । लोकतंत्र के पिछले वर्षों में देश ने तरक्की की जिन बुलंदियों को छुआ, हमारे नौकरशाहों और राजनेताओं ने उससे कहीं ऊंची-ऊंची भ्रष्टाचार की मीनारें खड़ी की हैं । लेकिन दुखद आश्चर्य यह है कि अब भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को जरा भी शर्म नहीं आती है जो निश्चय ही समाज के क्षयग्रस्त होने का परिचायक है ।
किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की सफलताओं और असफलताओं का मापदंड़ तो आम आदमी के लिए रोटी,कपड़ा,मकान,शिक्षा और रोजगार की उपलब्धता ही होगी । स्वार्थी लोगों के चलते हमारे देश की जनता इन मूलभूत सुविधाओं से कोसो दूर है,आज भी लोग चिकित्सा,गरीबी और भुखमरी के चलते तड़प-तड़प कर मरने को विवश हैं ।
इन सबके जिम्मेदार नौकरशाहों और राजनेताओं को इन समस्याओं से कोई मतलब नहीं है उनका तो पूरा ध्यान भ्रष्टाचार के नये-नये रिकॉर्ड कायम करना है । आज स्थिति ऐसी है आम नागरिक भ्रमित है किसे चुने किसे अपना कहे, वह समझ नहीं पा रहा है कि मौजूदा समय में राजनीति में लोकतंत्र के ज्यादा पक्षधर हैं या लूटतंत्र के ।हर कोई मौका मिलते ही अपनी औकात से बड़ा घोटाला करने को तैयार बैठा है कि कब मौका मिले कब दूसरे से बेहतर और बड़ा घोटाला कर सके ।
आज हमारे लोकतांत्रिक देश के सामने अंदरूनी के साथ-साथ बाहरी समस्याएं सुरसा की तरह मुँह फैलाये खड़ी हैं । पड़ोसी मुल्को से लगातार भारत विरोधी आतंकी साजिश होती रहती हैं चाहे वह पाकिस्तान हो या बांग्लादेश कोई भी पीछे नहीं है । उधर चीन अक्सर अपनी कुटिल चालों व सैनिक कार्यवाही कार्यवाई से हमारे जख्मों को कुरेदते रहता है लेकिन हम चुपचाप एक कमजोर,कायर की भांति कुंड़ली मारे बैठे रहते हैं क्यों ..
दरअसल हमारी सरकार आपस के ही मुद्दों में इतनी उलझी रहती है कि वह गणतंत्र को बचाये या अपने गठतंत्र को, कभी गठबंधन टूटने का खतरा तो कभी सहयोगी मिलकर इतना बड़ा घोटाला करते हैं कि सरकार उसी में लगी रहती है कि क्या करें । इन सबसे अलग उसे सोचने का समय ही नहीं मिलता कि वो पड़ोसियों के बारे में कोई ठोस रणनीति बनाये । अगर सोचने की कोशिश भी करता है तो अपने और विपक्षी दल टांग खींचने को तैयार बैठे हैं ।
आज हमारे लोकतंत्र के सामने विदेशी रणनीति के अलावा कई तरह की बुनियादी समस्यायें जैसे शिक्षा,गरीबी,चिकित्सा,बेरोजगारी,कुपोषण,आतंकवाद और नक्सलवाद  जैसी समस्याएं मुंह बाये खड़ी हैं । जब तक हम इन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने करने के प्रयास नहीं किये जाते तथा भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई जाती तब तक लोकतंत्र की बधाई देना महज औपचारिकता भर है, केवल झंड़े फहराने भर से कुछ नही हो सकता ।


                             

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

रुश्दी पर खेल

भारतीय मूल के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी जयपुर के साहित्य सम्मेलन में शिरकत नहीं कर सके या करने नहीं दिया गया अलग बात है । लेकिन भारत यात्रा को लेकर देश के मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा खड़ा किया गया विवाद और राज्य सरकार या कहिए चुनावी राजनीति के चलते भारत सरकार की प्रतिक्रिया ने पूरी दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा को गिराया है ।
रुश्दी को मिडनाइट चिल्ड्रेन उपन्यास के लिए प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है,लेकिन उनकी 1988 में प्रकाशित द सैटेनिक वर्सेज के कारण पूरी दुनिया के मुस्लिम समुदायों के कोप का भाजन बनना पड़ा है । यह बात अलग है उनकी अन्तर्राष्टट्रीय प्रसिद्ध के लिए इस विवादित उपन्यास की महती भूमिका रही है ।
इस उपन्यास के प्रकाशन के तुरंत बाद ही ईरान के सर्वोच्च इस्लामिक नेता अयोतुल्लाह खुमैनी ने उनकी मौत का फतवा जारी कर दिया था । तब से आज तक रुश्दी का थोड़ा बहुत विरोध भारत में भी होता रहा है ।यह बात अलग है कि प्रतिबंध के बावजूद 2002 और 2007 में भारत की यात्रा कर चुके हैं, वो भी 2007 में तो इन्होने बाकायदा जयपुर के ही साहित्य सम्मेलन में शिरकत की थी । तब उनकी यात्रा का विरोध नहीं हुआ था क्यो....
 क्योंकि अब 2012 में देश के 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं जिसमें उत्तरप्रदेश जैसा राज्य भी है जहां से होकर ही केन्द्र का रास्ता जाता है, और जहां पर मुस्लिम वोटों का खासा महत्व है ।
इस राजनीति का ही चक्कर है कि देश के सर्वोच्च इस्लामिक संगठन दारुल उलूम देवबंद के मुखिया मौलाना अब्दुल कासिम नोमानी ने मौका देखते हुए केन्द्र सरकार से मांग की, रुश्दी को साहित्य सम्मेलन में आने से रोका जाए , इस मांग से सरकार सकते में आ गयी लेकिन चुनावी समीकरणों को देखते हुए इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाई कि मौलाना साहब से पूछे यदि 2002 और 2007 में रुश्दी के भारत आने से भारतीय मुसलमानों को कोई तकलीफ नहीं हुई थी तो फिर अब क्यूं है...
इस संवेदनशील मुद्दे को लेकर गहलोत समेत सभी कांग्रेसी दिग्गजों ने दिल्ली में इकट्ठे होकर समस्या पर विचारकिया कि क्या किया जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। क्योंकि केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के युवराज राहुल गांधी की प्रतिष्ठा इस बार उत्तरप्रदेश के चुनाव में पूरी तरह से दांव पर लगी है ।
तभी खबर आती है कि रुश्दी ने सुरक्षा कारणों से खुद ही अपनी यात्रा रद कर दी,उन्हे राजस्थान पुलिस के गुप्त सूत्रों ने बताया कि कुछ माफिया संगठनों ने उनकी हत्या के लिए भाड़े के हत्यारों को सुपारी दे रखी है । मेरी समझ से परे है जब आतंकी हमले या कोई अन्य बड़ी वारदात हो जाती है तबतक सोनेवालीं गुप्तचर एजेंसियां इतनी सजग... भाई कमाल है...।  
यहां पर उल्लेखनीय है कि एक तरफ तो गुप्तचर एजेंसियों ने रुश्दी को उनकी हत्या की सूचना देकर डराने की कोशिश की जिससे वे इस मेले से दूर ही रहें, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस के महासचिव दिग्गी राजा कहते हैं रुश्दी को भारत में आने से रोका किसने...अब यदि वे ड़र के कारण आयोजन में नहीं आये तो इसमें सरकार की क्या गलती...। उनके इसी बयान के बाद मुंबई पुलिस का कहना है कि सुपारी के मामले में उसे कोई जानकारी नहीं है। जाहिर है यह सब केन्द्र सरकार की योजना का ही कमाल है कि वह रुश्दी को रोकने का कोई स्पष्ट आदेश तो नहीं देना चाहती थी, पर उसकी मंशा मुसलमानों तक यह संदेश अवश्य पहुंचाना था कि देखो सरकार तुम्हारा कितना ख्याल रखती है ।
खासकर अब जब रुशदी ने यह आरोप लगाते हुए ट्विटर पर लिखा है कि उन्होने इसकी जांच कर ली है और उन्हे पता चला है कि सुपारी वाली बात बिल्कुल ही कल्पित थी जिसके लिए उन्होने राजस्थान पुलिस को दोषी ठहराया है ।
खैर अब यह सम्मेलन तो समाप्त हो चला है किन्तु अभी भी एक असल सवाल मुंह बाये खड़ा है कि रुश्दी को भारत में आने से रोकने में मुख्य भूमिका किसकी थी...किसके इशारे पर रुश्दी की हत्या के खतरे का नाटक रचा गया... सारा का सारा आरोप राजस्थान पुलिस के मत्थे मढ़ा जा रहा है,लेकिन यह बात समझ से परे है कि पुलिस अपने स्तर पर इतना बड़ा कदम कैसे उठा सकती है वह तो राज्य सरकार का हथियार है । वह अकेले इतना बड़ा निर्णय कैसे ले सकती है वो भी ऐसे समय में जब सारी दुनिया की नज़रें राजस्थान पर लगी हों । ऐसे मामले में उंगली गहलोत सरकार की तरफ़ घूमना स्वाभाविक है । संभव है केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा उत्तरप्रदेश के चुनावों के मद्देनज़र यह निर्णय लिया गया हो  ।

अब यह पूरी तरह से अनुमान का विषय है कि रुश्दी को रोकने में अपवाह फैलाने का निर्णय किसके इशारे पर दिया गया था ।
लेकिन इस तरह की राजनीतिक व प्रशासनिक चालें देश और उसकी प्रतिष्ठा के लिए बहुत घातक और विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाने वाली हैं ।
आज रुशदी की वीडियो कांफ्रेंसिंग होनी थी जो कि विरोध के कारण टल गयी है, जिसमें उम्मीद की जा रही थी कि वे साहित्य सम्मेलन में न आ पाने का दर्द बयां करेंगे और बताएंगे कि उनको कैसे आने से रोका गया ।



सोमवार, 23 जनवरी 2012

जयपुर मैराथन

मैने पहली बार किसी मैराथन में डरते-डरते भाग लिया था वो भी हैदराबाद मैराथन में । मुझे पता नहीं था कि मैं दौड़ भी पाउंगा या नहीं, क्योंकि मैने नेट पर देखा था हैदराबाद मैराथन में देश-विदेश से आये कई एथिलीटों ने रजिस्ट्रेशन करवाया हुआ था ।मुझे ऑफिस के बाद इतना समय नहीं मिलता है कि किसी प्रकार से तैयारी कर सकूं,एक तो 11 घंटे ऑफिस के लिए ऊपर से अलग-अलग शिफ्टों का झंझट ।मेरे टाइम मैनेटमेंट की इस समस्या को मेरे वो साथी आसानी से समझ सकते हैं जो यहां काम कर रहे हैं या कर चुके हैं । फिर भी मैने जैसे-तैसे थोड़ा समय निकाल  ही लेता था क्योंकि मैने ठान लिया था कि मुझे दौड़ना है भले मैं निर्धारित दूरी तय न कर सकूं,फिर भी हिस्सा जरूर लूंगा, और इसमें मेरा साथ दिया मेरे सीनियर,रूम पार्टनर संतोष पंत ने ।
खैर वो दिन आ ही गया जब मुझे दौड़ने जाना था,मैने नेट पर ही रनिंग रूट देख लिया था ।एक दिन पहले ही ऑफिस जाकर मैंने बीआईबी नंबर और किट ले लिया था ।दौड़ चौमहला पैलेस से होकर कुतुबशाही तक जानी थी,चौमहला पैलेस तक ले जाने के लिए आयोजकों ने सुबह 3 बजे ही बस भेज दिया था जो हमें गंतव्य स्थान तक लेकर गयी थी ।जब मैं वहां पहुंचा तो शानदार आयोजन व्यवस्था के देखकर दंग रह गया ।क्या शानदार आयोजन था जिसमें देश-विदेश से आये प्रतिभागियों के लिए कई जगह फ्रूट,जूस,टी,काफी,वाटर आदि के काउंटर लगे हुए थे ।  मध्यम-मध्यम ध्वनि में मधुर-मधुर विदेशी संगीत बज रहा था । चौमहला पैलेस को चारों तरफ से अच्छी तरह से सजाया गया था । हर तरफ खूबसूरत देशी-विदेशी युवक-युवतियां वार्मअप करते हुए दिखाई दे रहे थे,वहां पहुंचकर मैने सोचा मैने सोचा कि मैं दौड़ पाउँ या न कम से कम ऐसी प्रतियोगिता में पार्टिसिपेट ही किया । क्योंकि मैं उन प्रोफेशनल प्रतिस्पर्धियों  के मुकाबले अपने को कहीं भी नहीं पा रहा था ।
दौड़ सुबह 6 बजे से शुरू होनी थी ठीक 5.30 पर माइक से एनाउंस हुआ कि सभी लोग वार्मअप करने के लिए मंच के सामने आ जाएं । वार्मअप करीना के छम्मकछल्लो गाने की पार्श्व ध्वनि के साथ माईक के सहारे एक खूबसूरत सी पूर्व एथलीट(धावक) करवा थी । रनिंग ठीक छह बजे शुरू हो गयी,सारे लोग हमसे आगे-आगे भागने लगे मैने सुन रखा था कि मैराथन में धीरे-धीरे ही भागना चाहिए । मेरे पास कोई अनुभव तो था नहीं मैं बस उसी को फालो किये जा रहा था । लेकिन एक चीज जो मुझे रोमांचित किये जा रही थी वो थी आयोजन कमेटी की व्यवस्था । हर एक किलोमीटर पर पानी और हर दो किलोमीटर बाद फ्रूट,सॉफ्ट ड्रिंक,जूस आदि की वयव्स्था थी वो भी खड़े सदस्य हौंसला बढ़ाते हुए हाथ में सामग्री लिए दौड़ते हुए आप तक पहुंचा रहे थे । केवल इतना ही नहीं ट्रैफिक व्यवस्था को इस कदर हैंडिल किया गया था किसी प्रकार से धावकों को कोई परेशानी न हो । हर पांच किलोमीटर पर आला दर्जे के प्राथमिक उपचार की भी व्यवस्था थी और धावकों के साथ एंबुलेंस की गाड़ियां पेट्रोलिंग करती नजर आ रहीं थीं ताकि किसी आपात स्थिति से निपटा जा सके
सबसे मजेदार बात यह थी कि हर चौराहे और रास्ते पर लोग सड़क के किनारे  खड़े होकर प्रतिभागियों का हौंसला आफजाई कर रहे थे, खासकर ट्रैफिक और आंध्रा पुलिस के जवान तालियां बजाते हुए हौंसला बढ़ा रहे थे ।
मुझे पता नहीं चला कि मैने कब दौड़ पूरी कर ली वो श्रेष्ठ 20 धावकों में से आया था । मैं बहुत खुश था मेरी खुशी बिल्कुल वैसी ही थी जैसे एक कमजोर छात्र अच्छे नंबरों से पास हो जाए ।
गणमान्य व्यक्तियों द्वारा पुरस्कार वितरण का समय आ गया, शीर्ष दस विजेताओं को नगद पुरस्कार भी दिया जाना था,मुझे एक मैडल और सर्टिफिकेट देकर सम्मानित किया गया । मैं बहुत खुश था हमें घर तक छोड़ने के लिए बसों की भी वयवस्था थी ।
आप परेशान न हों मैं मेन मुद्दे की तरफ ही आ रहा हूं लेकिन मुझे लगा कि बिना इस आयोजन की बात किये हम जयपुर मैराथन की बात नहीं कर सकते ।
कुछ दिन बाद मुझे पता चला कि जयपुर में भी मैराथन दौड़ आयोजित की जा रही है, मैने सोचा मैं भी भाग लूंगा क्योंकि मेरे हौंसले पहले से ही बुलंद हो चुके थे,मुझे लग रहा था कि मैं भी दौड़ पाउंगा। दौड़ बाईस जनवरी को आयोजित होनी थी लेकिन मैं चाहकर भी इसमें भाग नहीं ले सकता था क्योकि फरवरी में मेरी छोटी बहन की शादी में मुझे घर जाना था बार-बार छुट्टी कैसे मिल पाती । मेरा कार्यक्षेत्र राजस्थान ही था इसलिए बड़ी लालसा थी जयपुर जाने की और दौड़ने की,क्योंकि एक बार पहले भी मैं जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भाग लेने के लिए जा चुका था और मुझे जयपुर शहर काफी पसंद आया था । मैने अपने मन को जैसे-तैसे समझा लिया और सोचा ऑफिस में ही फीड़ देख लूंगा ।
जयपुर को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने का संदेश लेकर सुबह 8 बजे रामनिवासबाग से शुरू हुई जयपुर मैराथन ने देशी और विदेशी एथलीटों को बहुत निराश किया । हॉफ मैराथन में शामिल हुए धावकों के सुबह 7 बजे से ही कड़ाके की सर्दी में कपड़े खुलवा कर खड़ा कर दिया गया,वॉलीवुड स्टारों के आने के इंतजार में इन्हे 8.10 मिनट रवाना किया गया । पहले 4 किमी तक केवल पानी की व्यवस्था की गई थी लेकिन बाकी सत्रह किमी. तक धावकों को पानी भी नसीब नहीं हुआ बेचारे बिना पानी के ही दौड़ते रहे ।इसके साथ ही रास्ते में मैराथन के दौरान कई रिक्शा चालक और ऑटो चालक नजर आये जिसके कारण धावकों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा ।
इन सबसे तंग आकर प्रतिभागियों ने मंच के सामने करीब दस मिनट तक हाय-हाय के नारे लगाकर जयपुर को मैराथन के सहारे वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने के सपने पर सवाल खड़ा कर दिया । धावकों ने आरोप लगाया कि पदक योग्यता के अनुसार नहीं दिए गये,और तो और सबसे पहले दौड़ पूरी करने वालों को यह कह दिया गया कि कार्यालय पर आ जाना,  वहां पदक मिलेगा ।
ऐसा आयोजन देखकर मुझे लगा कि चलो मैं नहीं गया तो ही अच्छा था वरना ऐसी अव्यवस्था ......
मुझे अकस्मात ही हैदराबाद मैराथन के शानदार आयोजन की याद आ गई क्या आयोजन था,जहां एथलीटों की सुविधा का खास ध्यान रखा गया था,वहीं जयपुर में मैराथन का आयोजन बाप रे ।
क्या जरूरत है ऐसे आयोजनों की जिसमें आप उचित व्यवस्था नहीं कर सकते, ऐसे कैसे आप वर्ल्ड क्लास बन सकते हो ।
मैं आशा करता हूं कि अगर अगली बार आयोजन होगा तो इन सारी कमियों को दूर कर लिया जाएगा ताकि अधिक से अधिक प्रतिभागी आ सकें और सच में हम वर्ल्ड क्लास सिटी की तरफ मजबूती से कदम बढ़ायें ।