सोमवार, 5 मार्च 2012

वेलडन महिला कबड्डी चैंपियन्स

रविवार को भारतीय खेल के इतिहास में एक और सुनहरा अध्याय जुड़ गया,भारत एक और खेल में विश्व चैंपियन बन गया ।
भारतीय महिला कबड्डी टीम ने ईरान को रौंदकर पहली बार महिला कबड्डी विश्व चैंपियनशिप की सरताज बनी ।
ये जीत कई मायनों में अहम और खास इसलिए है कि एक तो कबड्डी जैसे उपेक्षित खेल में भारत विश्व विजेता बना,और दूसरे महिलाओं ने कबड्डी का विश्वकप जीतकर खुद की क्षमता का लोहा मनवाया । ये अपने आप में एक बड़ी बात है कि भारत जैसे देश में जहां क्रिकेट के अलावा किसी दूसरे खेल को खास तरजीह नहीं दी जाती है और वो भी कबड्डी जैसे खेल को,जिसके खिलाड़ियों के लिए न तो सही कोचिंग व्यवस्था है और न ही इस खेल और खिलाड़ियों को उचित प्रोत्साहन,प्रोत्साहित करने वाले लोग ।
इन सबको पीछे छोड़ते हुए जिस शानदार तरीके से भारतीय महिला टीम विश्व विजेता बनी है,बधाई की पात्र है ।ये बात दूसरी है कि एक अरब से ज्यादा आबादी वाले इस देश में केवल कुछ हजार ही लोगों ने ताली बजाकर बधाई दी ।
अक्सर समय-समय पर खेल प्रेमियों और मीडिया द्वारा यह बात उठाई जाती रही है कि भारत में क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों को भी प्रोत्साहित करने की जरूरत है, लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि भारत महिला कबड्डी में विश्व का सिरमौर बन गया,लेकिन छोटे से भी मुद्दे को पहाड़ बनाकर पेश करने वाली मीडिया ने भी जीत को खास तवज्जो नहीं दी्, टीवी चैनलों ने इस खबर को जिस तरह से ट्रीट किया शर्मनाक है ।
जो समाचार पत्र क्रिकेट के विश्वकप की बात छोड़िए क्रिकेट के किसी भी साधारण टूर्नामेंट का जिस तरह से विस्तृत कवरेज करते हैं काबिले तारीफ है,चाहे टीम कितनी ही पिट क्यों न रही हो ।उनके पहले पन्ने से लेकर कई पेज सिर्फ उसी खबर से पटे पड़े रहते हैं । वहीं उन्ही पेपरों ने इस बड़ी खबर को भी पहले पेज की तो बात ही छोड़िये, खेल प्रृष्ठ पर भी एक कोने में बॉटम स्टोरी की तरह पेश किया । उस टूर्नामेंट जिसमें कि भारतीय टीम बुरी तरह पिटकर बाहर हो चुकी है उसी टूर्नामेंट के चल रहे श्रीलंका और ऑस्ट्रेलिया के मैच में नीचे एक कोने में जगह मिली है।
सबसे बड़ी दुखद बात तो यह है कि बड़े-बड़े टीवी चैनलों पर क्रिकेट की हार जीत को लेकर विश्लेषकों की एक जमात सी लगी रहती है,उन्ही चैनलों ने इस खबर को बहुत ही साधारण तरीके से पेश किया, इससे ज्यादा तो हो हल्ला ऱणजी मैच जीतने पर होता है ।भारत अभी जब पिछले साल क्रिकेट का विश्व विजेता बना तो विजेता टीम के खिलाड़ियों,कोच और सदस्य रातोंरात मालामाल हो गये,बोर्ड, सरकार से लेकर विज्ञापनों तक ने खिलाड़ियों पर जमकर धनवर्षा की । राष्ट्रपति से लेकर एक सामान्य व्यक्ति ने भी टीम को जीत पर साधुवाद दिया,लेकिन मुझे दुख इस बात है क्या महिला कबड्डी की विश्व चैंपियन टीम इस सबकी हकदार नहीं है । जिन खिलाड़ियों ने भारत को महिला कबड्डी को विश्व का सरताज बना दिया क्या उन्हे भी क्रिकेट के खिलाड़ियों की तरह से नाम,पैसा और शोहरत मिल पायेगी जिसकी वे हकदार हैं या फिर गुमनामी के अंधेरों में खो जाएंगी ।ये उन लोगों को करारा जवाब और नसीहत भी है जो केवल अपने बातों से ही भारत में हर को आगे ले जाना चाहते हैं और जिसकी जिम्मेदारी भी उन पर है ।
अगर सच में भारत को हर खेल को आगे बढ़ाना है तो क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों से जुड़े खिलाड़ियों को हर वो सुविधाएं दिलानी होंगी जिसकी उन्हे जरूरत है । ये सरकार के साथ-साथ चौथे स्तम्भ के रूप में पहचाने जाने वाले मीडिया की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह भी क्रिकेट अलावा किसी दूसरे खेल के साथ सौतेला व्यवहार न करे ।

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

हैप्पी गणतंत्र दिवस !

आप सभी भारतवासियों को गणतंत्र दिवस पर बहुत-बहुत बधाई । इसके अलावा और हम कर भी क्या सकते हैं, आजकल महज औपचारिकताएं भर शेष हैं । भारतीय गणतंत्र की 63वीं वर्षगांठ पर संसदीय लोकतंत्र के भविष्य पर विचार करते हुए को आशातीत तस्वीर नज़र नहीं आती ।
औपनिवेशवादी गुलामी से मुक्त हुए देशों में शायद यह अकेला देश है जिसने लम्बे 6 दशकों से भी अधिक समय से अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाये रखा है। यह अपने को दुनिया को सबसे बड़ा बड़ा लोकतांत्रिक कहलाने का गौरव भी हासिल किये हुए है । यह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे बड़ी सामरिक शक्ति में भी दुनिया में चौथा स्थान रखती है । बावजूद इसके हमारा गणतंत्र फूटतंत्र और लूटतंत्र में तब्दील होता जा रहा है । इसके ऱखवाले ही ही इसे जाति,धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर छिन्न-भिन्न करने में लगे हैं ।
आज नौकरशाहों और राजनेताओं की विचारधारा में उनका स्वार्थीपन झलकता है । पहली पीढ़ी के  नेताओं ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किये थे लेकिन दूसरी पीढ़ी के नेताओं के हाथ में सत्ता आते ही नैतिक मूल्यों और आदर्शों के पतन का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अभी तक जारी है । कहने को हम तो कह सकते हैं कि भाषा,जाति और संस्कृति अर्थात अनेकता में एकता हुए भी देश में लोकतंत्र बना हुआ है । पिछले साठ सालों में हमारी लोकतांत्रिक राजनीति का इतना पतन हो गया है कि अपराधी और माफिया जिनके पूरे हाथ खून से रंगे हैं जो आकंठ तक अपराधों में डूबे हुए हैं, विभिन्न दलों में प्रवेश करके जनता के भविष्य निर्माता बन बैठे हैं । सत्ता उनके पास चली गई है जिन्होने अभी तक आम आदमी का खून ही चूसा है,उन्ही के कंधों पर जनता की जिम्मेदारी है । जिन्होने अभी तक जनता में भय ही फैलाया है जनता को लूटा ही है उन्ही पर जनता को भयमुक्त करने की जिम्मेदारी है । आज के लोकतंत्र को बेईमान लोगों ने राहु की तरह ग्रसित किया हुआ है और जो येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल कर निजी स्वार्थों को पूरा करने में लगे हुए हैं । कहने को तो जनता के हैं पर जनता की पहुंच से दूर कमांड़ोज के घेरे में रहते हैं, इन अवसरवादी लोगों का जनता के साथ दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है । सबसे खतरनाक स्थिति तो यह है कि जो लोग कायदे कानून से अपनी बात शांतिपूर्वक कहना चाहते हैं उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती है कोई भी उनकी समस्याओं को सुनने वाला नहीं है, इसी लिए लोग छोटी बड़ी बातों पर भी हिंसा के लिए उतारू हो जाते हैं । इस लगातार बढ़ते सामाजिक असंतोष का फायदा नक्सली,आतंकवादी और असामाजिक तत्व बखूबी उठा रहे हैं ।
एक बहुत बड़ा प्रश्न हमारे लोकतंत्र के सामने मुँह उठाये खड़ा है कि हमें कैसा भारत चाहिए कैसा लोकतंत्र चाहिए...जिसमें नागिरक अपने द्वारा ही चुने गये लोगों से ड़रें या वह भारतीय लोकतंत्र चाहिए जिसमें सभी को समानता का अधिकार,सभी को उचित न्याय सभी की आवश्यक जरूरतों को पूरा किया जा सके ।
मुझे लगता है राजनीतिक लोकतंत्र का तब तक कोई मतलब नहीं जब तक कि आर्थिक लोकतंत्र न हो । लोकतंत्र के पिछले वर्षों में देश ने तरक्की की जिन बुलंदियों को छुआ, हमारे नौकरशाहों और राजनेताओं ने उससे कहीं ऊंची-ऊंची भ्रष्टाचार की मीनारें खड़ी की हैं । लेकिन दुखद आश्चर्य यह है कि अब भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को जरा भी शर्म नहीं आती है जो निश्चय ही समाज के क्षयग्रस्त होने का परिचायक है ।
किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की सफलताओं और असफलताओं का मापदंड़ तो आम आदमी के लिए रोटी,कपड़ा,मकान,शिक्षा और रोजगार की उपलब्धता ही होगी । स्वार्थी लोगों के चलते हमारे देश की जनता इन मूलभूत सुविधाओं से कोसो दूर है,आज भी लोग चिकित्सा,गरीबी और भुखमरी के चलते तड़प-तड़प कर मरने को विवश हैं ।
इन सबके जिम्मेदार नौकरशाहों और राजनेताओं को इन समस्याओं से कोई मतलब नहीं है उनका तो पूरा ध्यान भ्रष्टाचार के नये-नये रिकॉर्ड कायम करना है । आज स्थिति ऐसी है आम नागरिक भ्रमित है किसे चुने किसे अपना कहे, वह समझ नहीं पा रहा है कि मौजूदा समय में राजनीति में लोकतंत्र के ज्यादा पक्षधर हैं या लूटतंत्र के ।हर कोई मौका मिलते ही अपनी औकात से बड़ा घोटाला करने को तैयार बैठा है कि कब मौका मिले कब दूसरे से बेहतर और बड़ा घोटाला कर सके ।
आज हमारे लोकतांत्रिक देश के सामने अंदरूनी के साथ-साथ बाहरी समस्याएं सुरसा की तरह मुँह फैलाये खड़ी हैं । पड़ोसी मुल्को से लगातार भारत विरोधी आतंकी साजिश होती रहती हैं चाहे वह पाकिस्तान हो या बांग्लादेश कोई भी पीछे नहीं है । उधर चीन अक्सर अपनी कुटिल चालों व सैनिक कार्यवाही कार्यवाई से हमारे जख्मों को कुरेदते रहता है लेकिन हम चुपचाप एक कमजोर,कायर की भांति कुंड़ली मारे बैठे रहते हैं क्यों ..
दरअसल हमारी सरकार आपस के ही मुद्दों में इतनी उलझी रहती है कि वह गणतंत्र को बचाये या अपने गठतंत्र को, कभी गठबंधन टूटने का खतरा तो कभी सहयोगी मिलकर इतना बड़ा घोटाला करते हैं कि सरकार उसी में लगी रहती है कि क्या करें । इन सबसे अलग उसे सोचने का समय ही नहीं मिलता कि वो पड़ोसियों के बारे में कोई ठोस रणनीति बनाये । अगर सोचने की कोशिश भी करता है तो अपने और विपक्षी दल टांग खींचने को तैयार बैठे हैं ।
आज हमारे लोकतंत्र के सामने विदेशी रणनीति के अलावा कई तरह की बुनियादी समस्यायें जैसे शिक्षा,गरीबी,चिकित्सा,बेरोजगारी,कुपोषण,आतंकवाद और नक्सलवाद  जैसी समस्याएं मुंह बाये खड़ी हैं । जब तक हम इन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने करने के प्रयास नहीं किये जाते तथा भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई जाती तब तक लोकतंत्र की बधाई देना महज औपचारिकता भर है, केवल झंड़े फहराने भर से कुछ नही हो सकता ।


                             

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

रुश्दी पर खेल

भारतीय मूल के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी जयपुर के साहित्य सम्मेलन में शिरकत नहीं कर सके या करने नहीं दिया गया अलग बात है । लेकिन भारत यात्रा को लेकर देश के मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा खड़ा किया गया विवाद और राज्य सरकार या कहिए चुनावी राजनीति के चलते भारत सरकार की प्रतिक्रिया ने पूरी दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा को गिराया है ।
रुश्दी को मिडनाइट चिल्ड्रेन उपन्यास के लिए प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है,लेकिन उनकी 1988 में प्रकाशित द सैटेनिक वर्सेज के कारण पूरी दुनिया के मुस्लिम समुदायों के कोप का भाजन बनना पड़ा है । यह बात अलग है उनकी अन्तर्राष्टट्रीय प्रसिद्ध के लिए इस विवादित उपन्यास की महती भूमिका रही है ।
इस उपन्यास के प्रकाशन के तुरंत बाद ही ईरान के सर्वोच्च इस्लामिक नेता अयोतुल्लाह खुमैनी ने उनकी मौत का फतवा जारी कर दिया था । तब से आज तक रुश्दी का थोड़ा बहुत विरोध भारत में भी होता रहा है ।यह बात अलग है कि प्रतिबंध के बावजूद 2002 और 2007 में भारत की यात्रा कर चुके हैं, वो भी 2007 में तो इन्होने बाकायदा जयपुर के ही साहित्य सम्मेलन में शिरकत की थी । तब उनकी यात्रा का विरोध नहीं हुआ था क्यो....
 क्योंकि अब 2012 में देश के 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं जिसमें उत्तरप्रदेश जैसा राज्य भी है जहां से होकर ही केन्द्र का रास्ता जाता है, और जहां पर मुस्लिम वोटों का खासा महत्व है ।
इस राजनीति का ही चक्कर है कि देश के सर्वोच्च इस्लामिक संगठन दारुल उलूम देवबंद के मुखिया मौलाना अब्दुल कासिम नोमानी ने मौका देखते हुए केन्द्र सरकार से मांग की, रुश्दी को साहित्य सम्मेलन में आने से रोका जाए , इस मांग से सरकार सकते में आ गयी लेकिन चुनावी समीकरणों को देखते हुए इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाई कि मौलाना साहब से पूछे यदि 2002 और 2007 में रुश्दी के भारत आने से भारतीय मुसलमानों को कोई तकलीफ नहीं हुई थी तो फिर अब क्यूं है...
इस संवेदनशील मुद्दे को लेकर गहलोत समेत सभी कांग्रेसी दिग्गजों ने दिल्ली में इकट्ठे होकर समस्या पर विचारकिया कि क्या किया जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। क्योंकि केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के युवराज राहुल गांधी की प्रतिष्ठा इस बार उत्तरप्रदेश के चुनाव में पूरी तरह से दांव पर लगी है ।
तभी खबर आती है कि रुश्दी ने सुरक्षा कारणों से खुद ही अपनी यात्रा रद कर दी,उन्हे राजस्थान पुलिस के गुप्त सूत्रों ने बताया कि कुछ माफिया संगठनों ने उनकी हत्या के लिए भाड़े के हत्यारों को सुपारी दे रखी है । मेरी समझ से परे है जब आतंकी हमले या कोई अन्य बड़ी वारदात हो जाती है तबतक सोनेवालीं गुप्तचर एजेंसियां इतनी सजग... भाई कमाल है...।  
यहां पर उल्लेखनीय है कि एक तरफ तो गुप्तचर एजेंसियों ने रुश्दी को उनकी हत्या की सूचना देकर डराने की कोशिश की जिससे वे इस मेले से दूर ही रहें, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस के महासचिव दिग्गी राजा कहते हैं रुश्दी को भारत में आने से रोका किसने...अब यदि वे ड़र के कारण आयोजन में नहीं आये तो इसमें सरकार की क्या गलती...। उनके इसी बयान के बाद मुंबई पुलिस का कहना है कि सुपारी के मामले में उसे कोई जानकारी नहीं है। जाहिर है यह सब केन्द्र सरकार की योजना का ही कमाल है कि वह रुश्दी को रोकने का कोई स्पष्ट आदेश तो नहीं देना चाहती थी, पर उसकी मंशा मुसलमानों तक यह संदेश अवश्य पहुंचाना था कि देखो सरकार तुम्हारा कितना ख्याल रखती है ।
खासकर अब जब रुशदी ने यह आरोप लगाते हुए ट्विटर पर लिखा है कि उन्होने इसकी जांच कर ली है और उन्हे पता चला है कि सुपारी वाली बात बिल्कुल ही कल्पित थी जिसके लिए उन्होने राजस्थान पुलिस को दोषी ठहराया है ।
खैर अब यह सम्मेलन तो समाप्त हो चला है किन्तु अभी भी एक असल सवाल मुंह बाये खड़ा है कि रुश्दी को भारत में आने से रोकने में मुख्य भूमिका किसकी थी...किसके इशारे पर रुश्दी की हत्या के खतरे का नाटक रचा गया... सारा का सारा आरोप राजस्थान पुलिस के मत्थे मढ़ा जा रहा है,लेकिन यह बात समझ से परे है कि पुलिस अपने स्तर पर इतना बड़ा कदम कैसे उठा सकती है वह तो राज्य सरकार का हथियार है । वह अकेले इतना बड़ा निर्णय कैसे ले सकती है वो भी ऐसे समय में जब सारी दुनिया की नज़रें राजस्थान पर लगी हों । ऐसे मामले में उंगली गहलोत सरकार की तरफ़ घूमना स्वाभाविक है । संभव है केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा उत्तरप्रदेश के चुनावों के मद्देनज़र यह निर्णय लिया गया हो  ।

अब यह पूरी तरह से अनुमान का विषय है कि रुश्दी को रोकने में अपवाह फैलाने का निर्णय किसके इशारे पर दिया गया था ।
लेकिन इस तरह की राजनीतिक व प्रशासनिक चालें देश और उसकी प्रतिष्ठा के लिए बहुत घातक और विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाने वाली हैं ।
आज रुशदी की वीडियो कांफ्रेंसिंग होनी थी जो कि विरोध के कारण टल गयी है, जिसमें उम्मीद की जा रही थी कि वे साहित्य सम्मेलन में न आ पाने का दर्द बयां करेंगे और बताएंगे कि उनको कैसे आने से रोका गया ।