गुरुवार, 15 अगस्त 2013

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं...

आज देश 67वां स्वाधीनता दिवस मना रहा है। स्वतंत्रता दिवस के पावन अवसर पर हर देशप्रेमी के दिल में मां भारती के लिए अथाह प्रेम का सागर उमड़ता है। सरकारी कर्मचारी, राजनेता और मजबूरियों से घिरा आम आदमी भी शहीदों को याद कर उन्हे श्रद्दांजलि देता है और उनके जयकारे लगाता है। आजादी के 66 सालों बाद भी ये सवाल उठता है कि इस आजादी के मायने क्या हैं, सवाल उठना लाज़िमी भी है कि क्या हम सही मायने में स्वतंत्र हैं,इसका जवाब आम आदमी अक्सर अपने आप से, समाज से, देश के नेताओं से पूछता है।
    14-15 अगस्त की 1947 की मध्य रात्रि को दो शताब्दियों के बाद अंग्रेजी हुकुमत से भारत मुक्त हुआ था। आजादी के इतने सालों बाद भी आज गरीब गरीबी का दंश को झेलने पर मजबूर क्यों है। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्यगत सुविधाओं के अभाव में आम आदमी जिसे राजनीतिक भाषा में वोटर कहते हैं,  घुट-घुटकर क्यों जी रहा है ?  पहली बार दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले की प्राचीर से पंडित जवाहरलाल नेहरू ने परतंत्रता से मुक्ति की घोषणा की थी।  प्रधानमंत्री की हैसियत से नेहरू जी ने देश से जो कुछ वादा किया था , उसका क्या हुआ ? तबसे आज तक देश की स्थिति में कितना सुधार हुआ है ? देश का कितना विकास हुआ है आदि ऐसे तमाम प्रश्न हैं शायद जिनके उत्तर शायद ही मिल पायें। तब से अब तक आम आदमी की हालत लगातार खराब क्यों होती जा रही है।
     आज भी गरीबों का दैनिक खर्च सरकारी मशीनरी द्वारा हास्यास्पद तरीके से तय किया जाता है। आंकड़े गरीबी और गरीबों का मजाक उड़ाते नज़र आते हैं। उनके मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में 29 और शहरी क्षेत्रों में 33 रुपये प्रतिदिन खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं माना जाएगा। मजे की बात यह है कि आंकड़ा भी उन लोगों द्वारा दिया जा रहा है जो प्रतिदिन शायद हजार रुपये में भी अपना पेट नहीं भर सकते। लोगो को आशा थी की आजादी के बाद उनके  हालात बदल जाएंगें, स्थिति इसके बिल्कुल उलट है। लोगों के हालात बद से बदतर होते चले गए, आर्थिक हालत खस्ता होती गई, महंगाई की मार से आम जनमानस की कमर झुकती चली गई। स्वतंत्रता के 66 सालों बाद सरकार को आज देश में गरीबों के लिए आखिर फूड सिक्योरिटी की जरूरत क्यों महसूस हो रही है।
    सुरक्षा की दृष्टि से कहीं नहीं लगता कि भारतीय लोकतंत्र 66 वर्षों पुराना है। आज दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की हालत दयनीय क्यों हो रही है? आंतरिक और बाहरी आततायियों से भारत की हालत खस्ता क्यों है ?  देश में जगह-जगह समुदाय विशेष के बीच खूनी संघर्ष हो रहा है, जिसमें निर्दोषों की जान जा रही है। ताजा उदाहरण जम्मू के किश्तवाड़ और बिहार में नवादा की साम्प्रदायिक हिंसा है। दंगों को रोकने में शायद सरकार असहाय साबित हो रही है, और तो और राज्य सरकारों पर हिंसा को बढ़ावा देने के संगीन आरोप भी लगते हैं। वहीं नक्सल समस्या देश के सामने सुरसा की तरह मुंह बाये खड़ी है। ऐसा लगता है जिसका न तो राज्य सरकारों और न ही केंद्र के पास कोई समुचित विकल्प है और शायद न ही इस समस्या से निपटने के लिए कोई सार्थक प्रयास किए जा रहे हैं।
     देश की आंतरिक सुरक्षा जैसी है वैसी है लेकिन विशाल गणतंत्र की बाहरी सीमाएं भी शायद रामभरोसे हैं। चीन जब-तब आंख दिखाता रहता है, लद्दाख क्षेत्र में हमारी जमीन पर घुस आता है, और उसी समय हमारे विदेश मंत्री चीन जाकर क्यों उसका गुणगान करते हैं ? बांग्लादेश से सटी देश की सीमाएं भी सुरक्षित क्यों नहीं हैं ? पाकिस्तान लगातार सीज़फायर का उल्लंघन करता जा रहा है और हमारे कर्ता-धर्ता हाथ पर हाथ धरे मुस्करा रहे हैं। पाकिस्तान की सेना हमारे घर में घुसकर जवानों के सिर काटकर ले जाती है और हमारे माननीय रक्षामंत्री जी को प्रथमदृष्टया पाकिस्तान पाक-साफ क्यों दिखता है ? हमारी रगों में बहता खून पानी क्यों हो गया है ? हमारे जज्बात क्यों नहीं उबलते, क्यों जवानों की शहादत पर हमारा खून नहीं खौलता ? हमारे जनप्रितिनिधियों के दिल में देश-प्रेम की भावना हिलोरे क्यों नहीं मारती ? चंद्रशेखर, भगतसिंह, वीर शिवाजी और महाराणा प्रताप की धरती पर जन्में आज वीरों को क्या हो गया है ? क्यों उन्हे लकवा मार गया है ? उनकी वीरता को सांप क्यों सूंघ गया है? पाकिस्तानी सैनिक बार-बार हमारे घर में घुसकर हमारे जवानों पर गोलियां बरसाये जा रहे हैं और हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी लंबे समय तक क्यों मौन धारण किये रहते हैं ?
     कभी अपने संस्कारों और देशभावना के लिए दुनिया में जाना जाने वाला विवेकानंद का भारत भारत आज वि·ाभर में अपने घोटालों के कारण क्यों पहचाना जा रहा है? राम कृष्ण की उस पावन धरती पर जिसमें कभी महात्मा गांधी,लालबहादुर शास्त्री, सरदार बल्लभ भाई पटेल जैसे तमाम महान नेता हुए हैं । आज उसी महादेश के अधिकांश खेवनहार चारों तरफ लूट-खसोट क्यों मचाए हुए हैं ? और देश की आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक अखंडता को अपने स्वार्थ के लिए क्यों चकनाचूर कर रहे हैं ? गरीबों के लिए स्कीमें तो चलाई जाती हैं लेकिन भ्रष्टाचार के दानव ने उसे लील जाता है,  पात्र गरीबों तक उन योजनाओं का फायदा नहीं पहुंच पाता है। इन सबके लिए जिम्मेदार कौन है ? अगर आज आम आदमी महंगाई में छटपटा रहा है, तड़प रहा है और खून के आंसू रोने के लिए विवश है तो इसका जिम्मेदार कौन है।
     सरकार विकास का दावा करनें में सरकार पीछे नहीं रहती लेकिन सरकार ने कितने लोगों के लिए नए रोजगार का सृजन किया इसके आंकड़े शायद सरकार के पास भी न हों ! रोजगार की गारंटी देने वाली सरकार को शायद ये भी न पता हो कि हमारे देश में बेरोजगारों की संख्या क्या  है ? वोट बैंक बढ़ाने के लिए सरकार बेरोजगारी भत्ता देने की बात यदाकदा अवश्य करती है, लेकिन नए रोजगार पैदा करने की योजनाएं शायद सरकारी फाईलों में ही दम तोड़ती रहती हैं।
     क्या यह वही भारत है जिसका सपना गांधी और नेहरू सहित हमारे देश के तमाम भाग्यविधाताओं ने देखा था। क्या हमारे देश के नियंताओं ने कभी सपने में भी सोचा था कि उनके सपनों का भारतवर्ष, भ्रष्टाचार, बेईमानी, हत्या,बलात्कार और  वैमनस्ता जैसे गंभीर बीमारी से ग्रस्त होगा। राष्ट्र की हालत देख कर स्वतंत्रता की बेदी पर अपने प्राणों की आहूति देने से भी गुरेज न करने वाले राष्ट्र प्रदर्शक शायद आज स्थिति देखकर सदमे से ही मर जाते ? काल के कपाल पर अपना नाम अमिट छोड़ने वोले देश के वीरों ने शायद ही ऐसे भारत की कल्पना की हो। उसके उलट आज देश के बहुसंख्यक महामहिम नेताओं पर शायद ही कोई जघन्य अपराध हो,जिसका आरोप न लगा हो। इन कर्णधारों ने हमें ऐसी जगह लाकर खड़ा कर दिया है, जिसकी कल्पना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने शायद ही की हो।
      आज देश भर में स्वाधीनता दिवस संगीनों के साये में मनाया जा रहा है।  हर तरफ डर और खौफ का माहौल है।     ऐसी हालत में क्या हम आज स्वतंत्रता दिवस को एक उत्सव की तरह मना पाएंगे ? क्या इस स्वतंत्रता दिवस पर हमारे कर्णधार अपना निजी हित छोड़कर देशहित कोई ऐसा प्रण लेंगे जिससे देश विकास की पटरी पर आ सके। अगर हम अपने देश की अस्मिता और अखंडता पर प्रहार करने वालों के खिलाफ कोई ऐक्शन नहीं ले सकते, मातृभूमि पर शहीद होने वाले वीर सपूतों के आदर्शों को अपना न सकें तो फिर हम यह ढोंग क्यों कर रहे हैं? ऐसे में स्वाधीनता दिवस मनाने का क्या अभिप्राय है।


वन्दे मातरम...वन्दे .... वन्दे मातरम.... भारत हमको जान से भी प्यारा है...
   

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

आरटीआई से बाहर राजनीतिक दल क्यों ?

वैसे तो राजनैतिक लोग और राजनीतिक दल हर कदम फूंक-फूंक कर ही रखते हैं,कभी भी कोई काम ऐसा नहीं करते, किसी भी ऐसे कानून को सहमति नहीं देते, जिसके तहत कोई उन पर उंगली उठाने का साहस कर सके। ऐसे ही हर नियम और कानून का समर्थन करते हैं जिससे वो परे हों, लेकिन अनजाने में ही उनसे एक गलती हो गई और भूलवश जनता के हाथ में एक ऐसा हथियार थमा बैठे जिसने नौकरशाहों के साथ-साथ उनकी नाक में भी दम कर दिया। यह बात तो जगजाहिर है कि कितने दबावों के बाद उन्हे आरटीआई लाने को विवश होना पड़ा। खैर ये मामला दूसरा है कि किन परिस्थितियों के चलते उन्हे इस कानून को पारित करवाना पड़ा था। लेकिन उन्होने ऐसा सोचा भी नहीं था कि सूचना के अधिकार कानून के तहत कभी उन्हे अपने ही बनाये मकड़जाल में फंसना पड़ सकता है।
चुनाव सुधारों की दिशा में वैसे तो चुनाव आयोग द्वारा समय-समय पर कई कोशिशें की गईं। चुनावी दलों को निष्पक्ष चुनावी प्रक्रियाओं के लिए चुनाव आयोग ने कई सुझाव भी दिए, लेकिन हमेशा की तरह राजनीतिक दलों न मानना था और न ही माने। आखिरकार सीआईसी यानि मुख्य सूचना आयुक्त ने कहा, कि सूचना के अधिकार के दायरे में तमाम बड़े राजनीतिक दल भी आने चाहिए। चुनावी दल भी जनता के प्रति जवाबदेह हैं, इसलिए उसे जानने का हक है कि खुद को जनता का सेवक कहलाने वाले राजनीतिक दलों के पास पैसे कहां से आते हैं, किन मदों से आते हैं, और इन पैसों का सियासी दल किस तरह से इस्तेमाल करते हैं।
    फैसले से राजनीतिक हलकों में हडकंप मच गया,चारों तरफ तमाम तरह की बयानबाजियों का दौर शुरू हो गया। आश्चर्य था कि एक-दूसरे से कभी किसी मुद्दे पर सहमत न रहने वाले तमाम सियासी सूरमा एक ही सुर में राग अलापने लगे। भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, शिक्षा जैसे मुद्दों पर कभी एकमत न रहने वाले नेता आरटीआई के मुद्दे पर जरूर सहमत दिख रहे हैं। उन दलों के नेतागण जिनकी पार्टियों को सूचना के अधिकार के दायरे में आना था खुलकर इसके विरोध में आ गये। खुद को गरीबों का हिमायती, आम आदमी की आवाज और जनसेवक बताने वाले धुरंधरों की असलियत आखिरकार सामने आ ही गई।
    राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार से बाहर रखने के लिए आनन-फानन में तमाम कोशिशें की जाने लगीं। आखिरकार, प्रधानमंत्री आवास पर केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में उनकी मुराद पुरी हो गई और बैठक में राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार से बाहर रखने की मंजूरी मिल गई। केंद्रीय कैबिनेट ने सूचना के अधिकार के कानून में संशोधन के प्रस्ताव को मंजूर करते हुए आपस में सहमत हो गये।
     अब आम और ख़ास लोगों के मन में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि खुद को जनता का सेवक कहलाने वाले, अपने को लोकतंत्र का मसीहा बताने वाले जननेताओं और उनके दलों में ऐसा क्या है, जिसे वे सार्वजनिक नहीं करना चाहते। इसका मतलब कि आपकी पार्टी में लेनदेन की व्यवस्था पाक-साफ नहीं है, आपकी पार्टी में कुछ ऐसी गतिविधियां जरूर चल रही हैं,  जिसे आप जनता के सामने नहीं लाना चाहते। देश के कथित कर्णधारों से जनता जानना चाहती है कि आपके दल में ऐसा क्या चल रहा है जिसको छुपाने के लिए सूचना के अधिकार कानून में ही बदलाव करने पर सहमत हो गये।

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

सचिन क्यूँ लें सन्यास ?

कहते हैं ना कि हर किसी को अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखने और अपनी क्षमताओं का सही समय पर सही आंकलन कर लेने में ही बुद्धिमानी है । यही कहावत क्रिकेट की दुनिया के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर पर भी लागू होती है । सचिन बेशक ही एक शानदार व्यक्तित्व वाले बेहतरीन बल्लेबाज हैं, उन जैसा खिलाड़ी हमारी क्रिकेट टीम ही नहीं बल्कि  पूरे देश के लिए धरोहर है।  भारत में क्रिकेट एक धर्म की तरह और सचिन को उनके फैन्स भगवान की तरह पूजते हैं । मास्टर ब्लास्टर ने वर्ल्ड क्रिकेट में इतने रिकॉर्ड बना डाले हैं कि दुनिया का कोई भी बल्लेबाज रिकॉर्डों के आस-पास फटकने की सोच भी नहीं सकता। हालांकि पिछले कुछ समय से सचिन अपनी प्रतिभा के अनुरूप प्रदर्शन करने में असफल रहे हैं , और उनके बल्ले से उम्मीद के मुताबिक रन  नहीं निकल पा रहे हैं । पिछले कुछ समय से वो लगातार अपनी फिटनेस को मेन्टेन रखने में असफल रहे हैं । गाहे-बगाहे उनके सन्यास की अटकलें भी उठती रही हैं । फैंस अब यही उम्मीद कर रहे हैं कि क्रिकेट के भगवान मैदान में खेलते हुए ससम्मान क्रिकेट के सभी प्रारूपों से अलविदा कह दें । इंडियन क्रिकेट के बेहतर भविष्य के लिए नये खिलाड़ियों को ढूंढकर उन्हे मौका देना ही होगा ताकि हम भविष्य के लिए बेहरत टीम तैयार कर सकें, क्योंकि आप लाख प्रतिभा के धनी हैं, निःसंदेह आपके पास टेलेंट की कोई  कमी नहीं है पर हर खिलाडी की लाईफ में एक ऐसा समय अवश्य आता है जब वह शारीरिक रूप से टीम को अपना शत-प्रतिशत नही दे पाता हैं , उस समय आपको रिटायरमेंट के बारे में सोचना ही पड़ता और शायद इसे खुद सचिन भी जानते हैं, शायद इसीलिए उन्होने समय रहते ही वनडे मैचों से किनारा भी कर लिया । सच यह भी है कि कोई भी खिलाड़ी सचिन जैसा महान नहीं बन सकता है, सचिन जैसे दिग्गज क्रिकेटर  सदियों में कभी-कभार ही होते हैं । हालांकि भारत जैसे विशाल देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, शिखर धवन, कोहली, रैना, जडेजा और अश्वनि जैसे युवा खिलाड़ियों ने आगे बढ़कर टीम की जिम्मेदारियों को संभाल लिया है, उन्होने गांगुली, द्रविड़,लक्ष्मन, सहवाग,गंभीर, हरभजन, कुंबले और जहीर जैसे बड़े खिलाड़ियों की कमी महसूस नहीं होने दिया है।रिजल्ट हमारे सामने है । आज क्रिकेट खेलने वाले देशों में भारतीय टीम का दबदबा बरक़रार है, और यंगिस्तान विश्व क्रिकेट का सिरमौर बना हुआ है । तेंदुलकर आज भी लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं, मैदान में उन्हें खेलते देखने के लिए आज भी हज़ारों फैन्स का दिल धड़क उठता है, इतना ही नहीं उनके आउट होते ही आज भी तमाम टीवी भी स्विच ऑफ हो जाते हैं । अगर कपिलदेव, अमरनाथ जैसे खिलाडी आज भी खेल रहे होते तो क्या सचिन,गांगुली, सहवाग, धोनी और विराट जैसे धुरंधरों को मौका मिल पता ?
सचिन ने अपनी लाइफ में पूरी तरह से क्रिकेट को जी लिया है,  भविष्य की टीम के गठन के लिए जरूरत है कि सचिन अब विश्राम करें और क्रिकेट के सभी प्रारूपों से अलविदा कह दें। नए खिलाडियों को मौका देकर उनका मार्गदर्शन करें । सचिन के दम से पूरी दुनिया में टीम इंडिया का डंका बज़ा है,सचिन के अतुलनीय और सराहनीय योगदान को न तो भारत और न ही विश्व क्रिकेट में कभी भुलाया जा सकेगा । आज हर फैन्स यही चाहता है की सचिन ससम्मान अपनी मर्ज़ी से अपने चाहने वालों के सामने हँसते हुए तालियों की गड़गड़ाहट के बीच टेस्ट क्रिकेट को अलविदा  कहें ।

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

लाल आतंक का अंत कब ?

एक बार फिर एक ईमानदार और क़ाबिल पुलिस अधिकारी लाल आतंक की भेंट चढ़ गया। देश ने फिर एक क़ाबिल और जाबांज अधिकारी खो दिया। बहादुरी और सख्ती का पर्याय बने पाकुड़ के एसपी और उनके सहयोगियों की नक्सलियों ने जिस तरह से नृशंस हत्या की, उसने देश के हर उस व्यक्ति को झकझोर दिया, जिसके मन में देश के लिए जज्बात हों। हर भारतीय के मन में इस घटना के बाद प्रतिशोध की आग धधक उठी।लेकिन नक्सलियों से लड़ना किसी एक व्यक्ति या दल के बस की बात नहीं है,इसलिए घूम-फिरकर पूरे देश कि निगाहें अपनी सरकार पर जाकर टिक जाती है। टिके भी क्यों न भारत की सरकार लोकतांत्रिक सरकार है, जिसे जनता अपनी सुरक्षा के लिए चुनकर भेजती है और सरकार बनाती है, उससे पूरी उम्मीद रखती है कि सरकार हमारी सारी समस्याओं का समाधान पूरी सजगता से करेगी। छत्तीसगढ़ की घटना के बाद सरकार के तेवर देखकर लोगों को इस बात की तसल्ली भी हुई  थी कि हो न हो सरकार अब लाल आतंक को हरगिज बर्दाश्त नहीं करेगी और जल्द से जल्द इसका खात्मा करेगी। और कुछ हद तक लोगों की उम्मीद सही भी निकली, कई नक्सली संगठनों को निशाने पर लेकर कार्रवाई भी की गई। लेकिन शायद जितनी कार्रवाई की गई वो सुरसा के मुंह की तरह फैले नक्सलवाद के लिए ऊंट के मुंह में जीरे के समान साबित हुई। ताजा पाकुड़ की घटना शायद इसी ओर इशारा कर रही है, कि नक्सलियों के खिलाफ मुहिम नहीं जन आंदोलन और त्वरित कार्रवाई की जरूरत है। सरकार को इस दिशा में व्यापकता और दूरदर्शिता के साथ योजनाबद्ध तरीके से कार्रवाई करनी होगी। नक्सलवाद की समस्या को आतंकवाद की समस्या की तरह मानकर ठोस कदम उठाने की जरूरत है। कहा जाता है कि नक्सलवाद के पनपने की वजह विकास की कमी है,तो सरकार को इस सिरे से भी सोचकर ठोस पहल करने की दरकार है,ताकि अगर नक्सलवाद को जड़ से खत्म करना है तो इस दिशा सकारात्मक पहल की जरूरत है। मौजूदा समय मेंं देश में कुल बारह जिले ऐसे हैं जिन्हे अति पिछड़े जिलों का दर्जा प्राप्त है, जिनमें से छह जिले संथाल क्षेत्र के हैं, जहां शिक्षा की हालत बहुत ही नाजुक है,वहां साक्षरता दर महज 23 प्रतिशत है। वहीं इन जिलों में 72 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन गुजर-बसर कर रही है। लाल आतंक से निपटने के लिए केंद्र सरकार को राज्यों के साथ मिलकर कोई ठोस कदम उठाना होगा, साथ ही नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास दर की गति भी बढ़ानी होगी। गरीबों रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे लोगों के लिए शिक्षा,स्वास्थ्य,रोटी,कपड़ा, मकान और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों की उपलब्धता पर ध्यान देने की जरूरत है। वरना हम यू हीं हमारे जवानों और निर्दोष लोगों की मौत पर कुछ करने के बजाय घड़ियाली आंसू बहाते रहेंगे। केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के साथ मिलकर नक्सल समस्या से निपटने की की कई योजनाओं की घोषणाएं भी कीं, विकास के दावे भी किए, पर सब प्लानिंग धरी की धरी रह गईं। ऐसा नहीं है सरकारें लाल आतंक को लेकर गंभीर नहीं हैं, पर जरूरत है योजनाओं और नीतियों को धरातल पर लाने की।
कुछ दिन पहले ही छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी काफिले पर योजनाबद्ध तरीके से बड़ा नक्सली हमला हुआ था, जिसमें लाल आतंक के खिलाफ सख्ती से सलवा जुडूम आंदोलन चलाने वाले नेता महेंद्र कर्मा को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया था। इतना ही नहीं इस हमले में बुजुर्ग कांग्रेसी नेता विद्याचरण शुक्ल के साथ प्रदेश कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का लगभग सफाया ही कर दिया गया था। इस हमले में जवानों सहित कुल 31 लोगों की दर्दनाक तरीके से हत्या कर दी गई थी। उस समय छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक हो हल्ला मचा हुआ था, प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी और गृहमंत्री समेत तमाम बड़े नेता मारे गये लोगों को श्रद्दांजलि देने में जुटे गए थे, साथ ही आ·ाासन दिला रहे थे कि भविष्य में नक्सलियों के मंसूबों पर मजबूती से नकेल कसी जाएगी। लेकिन नतीजा फिर वही 'ढाक के तीन पात'। न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारों ने पिछली घटनाओं से कोई सबक लिया, वरना  मुठ्ठीभर नक्सलियों की हमारे विशाल लोकतंत्र और उसकी विशाल सेना के सामने बिसात ही क्या है।
झारखंड में अपेक्षाकृत शांत समझे जाने वाले जिले में घात लगाकर एसपी समेत कई पुलिसकर्मियों की हत्या कर नक्सलियों ने जताया है कि लाल आतंक पर लगाम कसना तो दूर, वे अब भी पहले की तरह या कहें पहले से अधिक खतरा बने हुए हैं। संथाल परगना के एक जिले में नक्सलियों ने पुलिस के काफिले पर जिस योजनाबद्ध तरीके से घात लगाकर हमला किया, उससे एक बार फिर सरकार दावों और सुरक्षा के वादों की पोल खुलती नज़र आती है। हमले में नक्सलियों के खिलाफ अपने कड़े तेवरों के कारण पहचाने जाने वाले पाकुड एसपी अमरजीत बलिहार के काफिले पर नक्सलियों ने हमला करके पुलिस अधीक्षक सहित कुल छह लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाता है, और सरकार अफसोस जताने के अलावा कुछ नहीं कर पाती। नक्सलियों ने अपनी अचूक रणनीति के तहत जिस तरह से घटना को अंजाम दिया है, उससे अधिक हैरान करने वाली बात थी कि यह हमला उस इलाके में हुआ जिसे केंद्र सरकार ने राज्य सरकार के लाख कहने के बावजूद कभी नक्सल प्रभावित इलाका माना ही नहीं। जबकि राज्य सरकार 2010 से ही कहती रही कि संथाल परगना नक्सल प्रभावित क्षेत्र है। इसके कई मतलब निकलते हैं, या तो केंद्र सरकार वास्तविक नक्सल प्रभावित क्षेत्रों को देश के सामने लाना नहीं चाहती या फिर अधिकांश राज्यों में रेड कॉरिडोर का दायरा तेजी से बढ़ता जा रहा है।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पर हुए हमले के कुछ दिनों के भीतर ही तमाम दावों और वादों के बावजूद बिहार के जमुई में ट्रेन पर हुए हमले ने सरकारी इंतज़ामों की हवा निकाल दी। सरकार और उसके इंतजाम सिर्फ धरे के धरे रह गए। उस हमले में नक्सलियों के ग्रुप में महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, इससे स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि नक्सलियों को बड़े स्तर पर स्थानीय लोगों का समर्थन प्राप्त है। लगता है प्रशासन की लापरवाही और खुद के हालातों के चलते लोगों का सरकार पर से वि·ाास ही उठ गया है।
नक्सल समस्या को लेकर सरकार कितनी संजीदा है और प्रभावित इलाकों में फैलते रेड कॉरिडोर के जाल को रोकने के लिए सरकार द्वारा कितने प्रभावी कदम उठाए जा रहे हैं, स्थिति साफ है। पिछले कुछ समय से जिस तरह से लगातार नक्सली हमले हो रहे हैं, केंद्र सरकार को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। जिस तरह से नक्सली लगातार अपनी घटिया हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं और सरकार के इंतज़ामों और दावों को धता बताते हुए एक के बाद एक नापाक मंसूबों में कामयाब हो रहे हैं, सरकार की सजगता और संवेदनशीलता का पता चलता है। अगर ऐसा ही रहा तो वो दिन दूर नहीं है जब लाल आतंक के साये से निपटना हमारे लिए मुश्किल हो जाएगा।

बुधवार, 26 जून 2013

देवभूमि के देवदूत

उत्तराखंड में क़ुदरत के रौद्र ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। देवभूमि में प्राकृतिक आपदा ने हर तरफ लाशों का अंबार लगा दिया। उत्तरकाशी,केदारनाथ,रुद्रप्रयाग,चमोली,पिथौरागढ़,अल्मोड़ा और बागे·ार में बादल फटने, बाढ़ और भूस्खलन से जो तबाही का मंजर दुनिया के सामने आया,उसकी कल्पना शायद किसी ने नहीं की होगी। प्रकृति के आगे लोग बेबस और असहाय दिख रहे हैं,उत्तराखंड पूरी तरह बर्बाद,तबाह हो गया है।
किसी के मां-बाप तो किसी की बेटी - बेटा, रिश्तेदार या फिर किसी का पूरा परिवार चार धाम की यात्रा में गया हुआ था, मंजर ये है कि उनमें से  किसी की लाश मिली है तो कईयों पता ही नहीं चल पाया है। ऐसे समय में सेना ने मोर्चा संभाला है और सेना की मदद से कई लोग अपने परिवार से मिलने में सफल हो सके हैं। उत्तराखंड की त्रासदी से पूरे भारत में हाहाकार मचा हुआ है, चाहे राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश या बिहार हो या फिर भारत के दूसरे राज्य , हर सूबा अपने निवासियों की कुशलता को लेकर, भगवान से प्रार्थना कर रहा है, कि वो सुरक्षित एवं सकुशल हों।
आज चारों तरफ चीख-पुकार मची हुई है, हर कोई उम्मीद लगाए बैठा है कि उसके परिजन घर कब आएंगे, उसकी उम्मीद भगवान और सेना पर टिकी है। लेकिन उसे उम्मीद देवभूमि में बचाव कार्य में लगे सेना के देवदूतों से है, जो अपनी जान की परवाह किए बिना पीड़ितों की हरसंभव मदद कर रहे हैं। हमारी आर्मी, हमारी अपनी शान है। जब-जब देशवासी मुश्किल में रहे हैंं, तब तब हमारे जवानों ने बिना किसी स्वार्थ के हर समय सहायता के लिए खड़े नजर आए हैं।
बात चाहे पड़ोसी मुल्कों के नापाक मंसूबों को नाकामयाब करने की हो या फिर देश के अंदर के अनियंत्रित हालातों को नियंत्रित करने की, भारतीय जवान अपनी मातृभूमि और देशवासियों की रक्षा के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर करने के लिए सदैव तत्पर रहे हैं।
उत्तराखंड की त्रासदी से प्रभावित इलाकों में सड़क मार्ग पूरी तरह ध्वस्त हो चुके हैं, सब कुछ तहस-नहस हो चुका है। हजारों लोग मौत के मुंह में समा गए, जो बचे हैं, वे भूख और प्यास से बेहाल दम तोड़ने पर विवश हैं। ऐसे में प्रशासन के सामने सबसे बड़ी चुनौती है उनकी हिफाजत करना ,राहत सामग्री पुहंचाना, और उन्हे सकुशल घर पहुंचाना,, लेकिन प्रशासन ने टूटे हुए रास्ते,खराब मौसम का बहाना बनाकर इन लोगों को भगवान भरोसे छोड़ दिया, तो इस काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया हमारी जाबाज सेना के साहसी और निर्भीक जवानों ने।
उत्तराखंड में आई आपदा में अगर बड़ी संख्या में लोगों को बचाया जा सका है, तो इसका सबसे ज्यादा श्रेय हमारी सेना को जाता है। सेना ने हजारों लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया है। चाहे केदारनाथ हो, बदरीनाथ हो, गंगोत्री-यमुनोत्री हो या फिर हेमकुंड साहिब, सभी जगह सेना के जवान तत्परता से पहुंचे और लोगों को राहत पहुंचाई।मौसम विभाग की चेतावनी के बावजूद सेना के जवान पूरी भावुकता के साथ अपना सबकुछ झोंककर तेजी से प्रभावित लोगों को बचाने में लगे रहे। खराब मौसम के चलते वायुसेना का एमआई-17 हेलीकॉप्टर क्रैश हो जाने से दर्जन भर से ज्यादा जवान शहीद हो गये। लेकिन फिर भी सेना का जज्बे को देखिये। जवानों ने कहा चाहे कुछ भी हो जाए,चाहे जितना भी मौसम खराब हो जाए, राहत कार्यों में कोई भी बाधा नहीं पहुंचेगी,लोगों को सेवा में जी जान से लगे रहेंगे। 
आज अगर हम देशवासी सुरक्षित अपने घरों में सो रहे हैं तो इसका श्रेय सीमा पर डटे हमारे जवानों को जाता है जो रात दिन जागकर पहरेदारी कर रहे हैं। हमें जीवित रहने के लिए जो खाद्य सामग्री मिल पा रही है उसके लिए लिए दो वक्त की रोटी के लिए हाड तोड़ मेहनत करता किसान है।इनके दोनों के महत्व को समझते हुए ही भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने जय जवान,जय किसान का नारा दिया था।लेकिन विडम्बना देखिए आज हमारे देश में दोनों की स्थिति विचारणीय है। हजारों की संख्या में देश के गरीब किसान आत्महत्या करने को विवश हैंं। हमारे देश के कर्ता-धर्ताओं को जवानों की सुध तब आती है जब देश को उनकी जरूरत पड़ती है। ऐसी भी दिल दहला देने वाली खबरें आती हैं कि देश हित में शहीद हुए जवानों के परिजन दर-दर की ठोकरें खा रहे हैंं, कोई भी उनकी खैरख्वाह लेने वाला कोई नहीं। धन्य है वो मां जिसकी कोख से ऐसे वीर, साहसी सपूत जन्म लेते हैं जो हंसते हुए देशहित में कभी भी जान लुटाने को तैयार रहते हैं। सेना के जवान उत्तराखंड में अपनी जान पर खेलकर त्रासदी में फंसे लोगों को राहत सामग्री पहुंचा रहे हैं, लोगों को उनके परिजनों से मिलवा रहे हैं। तभी तो ऐसे वीर साहसी और देशभक्त जवानों के लिए माखनलाल चतुर्वेदी  ने लिखा है...मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने ,जिस पथ जाएं वीर अनेक....देश के ऐसे वीर सिपाहियों को कोटि-कोटि प्रणाम और सत-सत नमन।

मंगलवार, 11 जून 2013

ये कैसे भीष्म पितामह ?

हर अच्छा खिलाड़ी एक अच्छा कैप्टन हो जरूरी नहीं है। उसमें खेलने के सारे गुर तो हो सकते हैं,लेकिन उसमें ऊंचे दर्जे की नेतृत्व क्षमता, टीम को जिताने की काबिलियत और एक लीडर के रूप में आगे बढ़कर प्रदर्शन करने की क्षमता हो यह भी जरूरी नहीं  है। इसका सीधा उदाहरण हैं क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले दुनिया के महान बल्लेबाज सचिन रमेश तेंदुलकर। सचिन खिलाड़ी तो अव्वल दर्जे के हैं, ग्राउंड के चारों तरफ शॉट खेलने में भी माहिर हैं, सचिन भले ही दुनिया के गेंदबाजों के लिए भय का पर्याय रहे हों लेकिन वह कभी एक अच्छे कप्तान के रूप में खुद को साबित नहीं कर पाये हैं। ऐसा नहीं कि उन्हे मौका नहीं मिला, मौके मिले भी पर वो कभी खुद को एक सफल कप्तान के रूप में साबित नहीं कर पाये।
वही हाल आडवाणी जी का है, फर्क सिर्फ इतना है कि वो उन्हे अभी इसका एहसास तक नहीं है। ऐसा नहीं कि उनके पास मौके नहीं थे, मौके मिले भी पर उन्होने अपनी पार्टी को मुश्किल समय में आशानुरूप सफलता नहीं दिला पाई। हमेशा पीएम इन वेटिंग के रूप में पहचाने जाने वाले आडवाणी जी को खुद को कब तक वेटिंग में रखेंगे, किसी दूसरे को भी वेटिंग में आने दो भाई,कब तक आप कप्तान के रूप में ही खुद को देखना पसंद करते रहेंगे,कब आपको हकीकत का एहसास होगा। ऐसा नहीं है कि आडवाणी जी की जरूरत अब बीजेपी को नहीं है,अभी पार्टी को आडवाणी जी की जरूरत पहले से अधिक है फर्क सिर्फ इतना है कि अब उनकी भूमिका बदल चुकी है। उन्हे अब नये जिम्मेदार कंधो पर भार डालकर खुद को एक पितामह के रूप में साबित करना चाहिए।
लोग उन्हे भाजपा के भीष्म पितामह की उपाधि दिए जा रहे हैं पर कैसे भीष्म पितामह हैं वो एक वो महाभारत में भीष्म पितामह थे जो आजीवन हस्तिनापुर की रक्षा के लिए तत्पर रहते थे।उन्होने अपना सारा जीवन हस्तिनापुर के विकास, उसकी खुशहाली और उसकी उन्नति के लिए न्यौछावर कर दिया। कभी भी उनके मन में सम्राट बनने की इच्छा जागृत नहीं हुई और एक सच्चे सिपाही की तरह हस्तिनापुर की सेवा में लगे रहे। एक बीजेपी के तथाकथित भीष्म पितामह आडवाणी जी हैं जो शुरू से ही मन में प्रधानमंत्री बनने के सपने संजोए हुए हैं। सपने देखना गलत बात नहीं है पर एक समय तक ही सपने देखना उचित है क्योंकि एक ऐसा समय भी आता है जहां पर आपके सपने अपनी दम तोड़ते नजर आते हैंं।
आडवाणी जी ने इस्तीफा देकर अपनी उस छवि को ही धूमिल कर दिया है जिसे लोग कहते हैं कि आडवाणी बीजेपी की बुनियाद रखने वाले नेताओं में से एक हैं। इसका क्या मतलब हुआ कि आपने एक पेड़ लगाया और जब वह विशालकाय पेड़ हरा भरा हो गया लेकिन उसे अब और अधिक खाद -पानी की जरूरत है जो आप नहीं दे पा रहे हो, ऐसे में यदि कोई इस जिम्मेदारी को संभालने के लिए सक्षम है तो आपका धर्म है कि आप उसे करने दें।ऐसा नहीं कि आप उस पेड़ की बुनियाद मिटाने पर ही लग जाएं। हां अगर आपको लगता है कि ये गलत हो रहा है तो पार्टी में अभी भी आपका उतना ही सम्मान है जितना कभी था। आडवाणी जी की प्रतिष्ठा के लिए सही होता अगर वो खुद को एक बुजर्ग पार्टी हितैषी की तरह पेश करते। जैसे कि एक गार्जियन जब देखता है कि उसके उत्तराधिकारी योग्य हो गये हैं जिम्मेदारी निभाने में सक्षम हैं तो वह अपने जीवित रहते ही अपने काबिल बच्चों को हंसते-हंसते सारी जिम्मेदारी सौंप देता है और एक मुखिया के रूप में उनका मार्गदर्शन करता है। लेकिन आडवाणी जी तो उस बाप की तरह व्यवहार कर रहे हैं मरते-मरते अपनी गुल्लक किसी को नहीं सौंपना चाहता है। नतीजन उसके बच्चे आजीवन लड़ते-झगड़ते रहते हैं और पूरा परिवार में बिखराव की नौबत आ जाती है।
आडवाणी जी को साबित करना चाहिए था कि सच में वो पार्टी के सच्चे लौह पुरुष हैं, उनके लिए उनकी पार्टी ही सर्वोपरि है ना कि निजी स्वार्थ।
भाजपा आज बदलाव के दौर से गुजर रही है ऐसे में पार्टी को किसी सच्चे और योग्य मार्गदर्शक की जरूरत है जो निसंदेह ही अटल जी के बाद आडवाणी जी के कंधों पर आ टिकी है। अगर आडवाणी जी को लगता है कि मोदी में वो काबिलियत नहीं है उनमें जरूरी नेतृत्व क्षमता नहीं है तो इस बात को बैठक में शामिल होकर सबके सामने अपनी बात रखनी चाहिए ना कि उस बच्चे कि तरह "जाओं मैं रूठ गया"। इससे क्या होगा कि वर्षों तक आपने जिस पार्टी के लिए काम किया है,जिसकी सेवा करते-हुए आपने अपने जीवन के कीमती समय को न्यौछावर कर दिया है आज उसी की जड़ खोदने का काम कर रहे हैं। बीजेपी की अगर आज सत्ता में किसी तरह से वापसी हो सकती है या कोई पार्टी के फेवर में बड़ा जनसमूह खड़ा कर सकता है तो वो फिलहाल केवल नरेंद्र मोदी ही दिखाई पड़ते हैं। इस हकीकत को पार्टी कार्यकर्ता से लेकर भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी जानते हैं।
अब भाजपा में मोदी विरोधी खेमा सक्रिय हो चला है,जबकि हर किसी को पता है कि भाजपा का जनाधार लगातार कम होता जा रहा है,आज भारतीय जनता पार्टी भारतीय झगड़ालू पार्टी का रूप लेती जा रही है। ऐसा भी नहीं है कि  लालकृष्ण आडवाणी जी ने पहली बार पार्टी पर अपने इस्तीफे का दबाव बनाया है, इससे पहले भी भाजपा के लौह पुरुष कहे जाने वाले आडवाणी जी ने पिछले आठ सालों में तीन बार इस्तीफा दिया है,, पहली बार आडवाणी ने 7 जून 2005 जिन्ना की तारीफ करने के मामले में तूल पकडने के कारण इस्तीफा दिया था। काफी मान-मनौवल करवाने के बाद उन्होने इस्तीफा वापस लिया था। दूसरी बार आडवाणी जी ने 31 दिसंबर 2005 में भी इस्तीफा दिया था,तब राजनाथ सिंह को भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया था। वहीं तीसरी बार रविवार को गोवा में बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक में मोदी को चुनाव प्रचार का प्रभारी बनाए जाने से दुखी होकर आडवाणी जी ने एक बार फिर से इस्तीफा दिया है। अब ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या हर बार कि तरह इस बार भी भाजपा के लौहपुरुष पिघल जाएंगे और इस्तीफा वापस लेंगे।
फिलहाल भाजपा भूचाल में घिरी हुई है और अब सबकी नजर कृष्ण को खोज रही हैं कहां हैं कृष्ण और भूचाल को कैसे शांत किया जाए सबकी नजर कृष्ण पर पर टिकी हुई है।लेकिन कृष्ण की भूमिका कौन निभाएगा अभी तक ये यक्ष प्रश्न बना हुआ है।


रविवार, 12 मई 2013

हैप्पी मदर्स डे.. मां

मां... केवल स्मरण मात्र से मां के कोमल, ममतामयी स्पर्श की अनुभूति होती है। ई·ार ने हमें मां के रूप में एक ऐसा अनमोल तोहफा दिया, जिसकी ममतामयी छांव के लिए भगवान भी सदा लालायित रहता है। मां तमाम कष्टों को झेलती हुई भी अपनी संतान पर हमेशा अपना प्यार लुटाती रहती है। एक मां कई बच्चों को तो पाल सकती है लेकिन कई बच्चे मिलकर भी एक मां को नहीं पाल सकते। पूरी दुनिया बदल सकती है पर मां और उसका नि:स्वार्थ प्यार कभी नहीं बदलता।
जब आप अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते थे, आपको चल नहीं पाते थे, तब सबसे पहले मां ने हमें उंगली पकड़कर चलना सिखाया। जब हमें बोलना नहीं आता था, हम पानी मांगना भी नहीं जानते थे, तब हमारी मां हमारे इशारों और हाव-भावों से ही हमारी जरूरतों को समझ लेती थी, लेकिन आज हम अपनी मां से कहते हैं मां तुम मेरी फीलिंग्स को नहीं समझ सकती हो।
मां अनमोल है उसको न तो पैसे से तोला जा सकता है और न ही किसी भी तरह के लालच में उसे बहकाया जा सकता है। मां की कीमत उस अभागे से पूंछो जिसके पास मां रूपी अनमोल धरोहर नहीं है।
बेटे सपूत हों या कपूत त्याग की प्रतिमूर्ति मां हमेशा अपने लख्ते जिगरों पर अपनी छत्रछाया बनाए रखती है, अपने बेटों पर प्यार, आशीर्वाद और स्नेह की बरसात करती रहती है। इसीलिए कहा भी गया है पूत कपूत सुने हैं पर नहीं माता सुनी कुमाता