बुधवार, 29 अगस्त 2012

खेल दिवस

दुनिया भर में भारत के राष्ट्रीय खेल का परचम लहराने वाले मेजर ध्यानचंद की आज जयंती है। उनके शानदार खेल की वजह से उन्हे हाकी का जादूगर भी कहा जाता है।उनकी याद में आज के दिन यानि 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। खेल के क्षेत्र में देश का नाम रोशन करने वाले सभी खिलाड़ियों को खेल पुरस्कारों से नवाजा जाता है। हर साल की तरह इस साल भी राष्ट्रपति भवन में देश के महामहिम सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले खिलाड़यों का सम्मान करेंगे। पिछले एक साल में भारत में खेले जाने वाले सभी खेलों में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों को आज राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी सम्मानित करेंगे। साथ ही लंदन ओलंपिक में भारत को पदक दिलाने वाले खिलाड़ियों को भी राष्ट्रपति की ओर से सम्मानित किया जाएगा। इस मौके पर खिलाड़ियों के साथ-साथ उनकी प्रतिभा निखारने वाले कोचों को भी सम्मानित किया जाएगा।

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

जलेबी की आत्मकथा

मैं जलेबी हूं। पौराणिक काल से लेकर आज तक मेरे चाहने वाले हमेशा से मेरा रसास्वादन करते रहे हैंं। मेरा साम्राज्य दुनिया के तमाम कोनों में फैला हुआ है। मेरे दीवाने भारत में ही नहीं, बल्कि बांग्लादेश, पाकिस्तान ईरान के साथ तमाम अरब देशों में फैले हुए हैंं। इतना ही नहीं भारतीय उपमहाद्वीप के साथ-साथ पश्चिमी देश स्पेन तक मेरे चाहने वालों की कोई कमी नहीं है।

मेरा नाम लेने से ही लोगों के मुंह में पानी आ जाता है। स्त्री, पुरुष, बूढ़े, बच्चे और जवान सभी के बीच मैं खूब आदर पाती हूं। प्लेटफार्म हो या बस अड्डा या फिर टैक्सी स्टैंड, हर जगह मैं आसानी से मिल जाती हूं।  सर्दी, गर्मी या बरसात हो, चाहे कैसा भी मौसम हो मैं हमेशा दुकानों में सजी रहती हूं। मैं ऊपर से नीचे तक रस से भरी  हूं। मेरा स्वाद दूसरी मिठाइयों से अलग है। मेरी डिश बनाने में ज्यादा खर्च भी नहीं आता। 

हिन्दू हो या मुस्लिम, सिख हो या ईसाई मैं सबकी चहेती स्वीट डिश हूं। मैं जात-पात,धर्म और संप्रदाय के बंधनों से हमेशा दूर रहती हूं। चाहे किसी भी जाति का हो किसी धर्म का हो मैंने कभी भी किसी के साथ भेदभाव नहीं किया। कभी गरीब-अमीर के बीच भेदभाव भी नहीं किया। गरीब हो या अमीर हर वर्ग के लोगों के लिए मैं सदैव तैयार रहती हूं। 

मैंने देश की बेरोजगारी दूर करने में भी अहम भूमिका निभाई है। कोई भी गरीब से गरीब व्यक्ति कहीं पर भी चंद रुपयों में जलेबी की दुकान खोल सकता है। मेरी दुकान कहीं पर भी हो मेरे चाहने वाले हमेशा ढूंढ़कर पहुंच ही जाते हैं। मेरी इन्हीं तमाम खूबियों के कारण भारत में मुझे राष्ट्रीय मिठाई का दर्जा प्राप्त है। कोई भी त्यौहार हो, कैसा भी मौका हो, हर सुख दुख में मैं अपने लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहती हूं। 

स्वतंत्रता दिवस हो, गणतंत्र दिवस हो या कोई अन्य पर्व हो हर मौके पर मुझे खूब आदर मिलता है। लोकप्रियता के मामले में मुझे कोई टक्कर नहीं दे सकता। स्कूल-कॉलेजों में झंडा फहराया जाए और मेरी बात न हो संभव नहीं। राष्ट्रीय पर्वों पर राष्ट्रध्वज के बाद मैं ही सबकी पसंद होती हूं। 

इन सबके अलावा फिल्मी दुनिया में भी मेरा जबरदस्त बोलबाला  है। मेरे ही नाम का सहारा लेकर जलेबी बाई बनी मल्लिका शेरावत ने खूब सुर्खियां बटोरी हैं।

इतनी उपलब्धियों के बाद भी अभी तक मुझे एक बात कचोटती रहती है। मैं इतनी सीधी-साधी और रसीली हूं लेकिन फिर भी लोग मुझे गलत तरीके से परिभाषित करते हैं। मुहावरे के तौर पर किसी दुष्ट व्यक्ति को संबोधित करने के लिए लोग कहते हैं "तुम तो ऐसे सीधे हो जैसे जलेबी"।

आज बढ़ती महंगाई के चलते मुझे महंगे दामों पर बेचा जा रहा है। जिससे गरीब भाइयों का मेरे पास आना बंद होता जा रहा है। मैं चाहती हूं कि मेरे साथ हर तबके हर वर्ग के लोग हमेशा जुड़े रहें। मैं केवल अमीरों के पास नहीं रहना चाहती।

सोमवार, 27 अगस्त 2012

त्रिवेदी पर हाय तौबा

दिनेश त्रिवेदी के रेल बजट पेश करते ही चारों तरफ हाय तौबा मच गई,, हर पार्टी दिनेश त्रिवेदी की आलोचना करने में अपनी शान समझने लगी,, यहां तक की उन्ही की पार्टी और तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी ने पीएम को पत्र लिखकर उनके इस्तीफे तक की मांग कर डाली,, जबकि इससे पहले ममता की सिफारिश पर ही दिनेश त्रिवेदी को रेल मंत्री बनाया गया था,, इन सब बातों पर चर्चा करते हुए कई सवाल जहन में उठते हैं ,,,क्या ममता की जानकारी के बगैर रेल बजट पेश किया गया या कोई राजनीतिक हथकंडा है,, क्या रेल मंत्रालय सरकार के राजनीतिक हितों को साधने के लिए है या समाज में बेहरत सेवा मुहैया कराने के लिए,, आज रेलवे में कई मूलभूत आवश्यकताएं मुंह बाये खड़ीं है,, उन्हे बिना किराया बढ़ाये कैसे पूरा किया जाये,, एक जो सबसे अहम सवाल है कि, क्या रेल का किराया बढ़ाना अनुचित है ,,पिछले कई सालों से किराये में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गई,, जबकि हकीकत सभी जानते हैं,, एक और सवाल उठता है कि, बढ़ा हुआ किराया क्या इतना बोझ ड़ालेगा कि हमारा जेब खर्च चलाना मुश्किल हो जायेगा,,जबकि हम अभी भी रेल किराये की अपेक्षा कई गुना किराया उससे चौथाई से भी कम दूरी तक जाने में खपा देते हैं,, वहीं बुद्दिजीवी वर्ग का एक बड़ा खेमा किराये के बढ़ाये जाने को उचित ठहराता है,,साथ ही वो त्रिवेदी द्वारा उल्लेखित समस्याओं के हल पर भी जोर देने की बात करते हैं,, जब दिनेश त्रिवेदी को रेल मंत्री के रूप में शपथ दिलायी गई,,बहुत से लोग आश्रचर्य चकित रह गये थे, दिनेश त्रिवेदी का नाम सुनकर,, ज्यादातर लोग त्रिवेदी पर ममता की कृपा बता रहे थे ,,अभी तक जो लोग दिनेश त्रिवेदी को नौसिखया मान रहे थे, अचानक ही वे सभी त्रिवेदी के साथ खड़े नजर आते हैं,, त्रिवेदी की प्रशंसा का सबसे बड़ा कारण है कि अगर पूर्व रेलमंत्री ने स्वेच्छा से,बिना किसी दखल के रेल बजट पेश किया है तो निसंदेह ही प्रशंसा के पात्र हैं,, क्योंकि त्रिवेदी से पहले रेल मंत्री ममता समेत कई रेल मंत्री थे जो लगभग पिछले एक दशक से रेल किराया बढ़ाने की हिम्मत नहीं जुटा सके ,,वो काम बिना अपनी परवाह किये हुए दिनेश त्रिवेदी ने किया,,उन्होने बजट पेश करने से पहले यह भी नहीं सोचा कि आलाकमान की मनमर्जी के खिलाफ रेल बजट पेश करने से उनके राजनीतिक कैरियर पर प्रश्नचिन्ह लग सकता है या फिर खत्म भी हो सकता है,, दिनेश त्रिवेदी ने जिस निर्भीकता से अपने राजनीतिक कैरियर की परवाह किये बिना ही रेल बजट पेश किया है,, वो काबिले तारीफ है,, इससे उनका राजनीतिक कद और बढ़ा है कम नहीं हुआ,, दिनेश त्रिवेदी ने यह जानते हुए भी कि,ममता दीदी बढ़ा हुआ बिल देखकर भड़क उठेंगी,, ममता जिनकी आदत सी हो गई है,कि गठबंधन तोड़ने की धमकी देते हुए हर मामलें में कांग्रेस की टांग खींचती रहती हैं,, ममता की एक सबसे बड़ी कमजोरी है कि वो पक्ष-विपक्ष दोनों की भूमिका में रहना चाहती हैं,, वे सरकार की हर उपलब्धियों को अपनी उपलब्धि बताने में नहीं चूकतीं,, पर कोई भी ऐसा फैसला जो उनके वोट बैंक पर प्रभाव ड़ालता हो, के मसले पर यूपीए गठबंधन के मुखिया पर आंखे दिखाती नजर आती हैं,,पर इन सबकी परवाह किये बिना ही पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने जिस तरह से हिम्मत दिखाई है,,इसका खामियाजा उन्हे रेल मंत्री के पद से इस्तीफा देकर भुगतना पड़ा,,
चाहे कुछ भी हो दिनेश त्रिवेदी भले ममता दीदी के दिल में जगह न बना पाये हों भले ही उन्हे अपना पद गंवाना पड़ा है ,,फिर भी दिनेश त्रिवेदी ने जो चाटुकारिता की राजनीति को पीछे छोड़ते हुए पार्टी वाद के खिलाफ अहम और रेल विभाग के लिए जरूरी फैसला लिया है ,,इससे एक वर्ग विशेष के दिल में अपनी जगह बनाने में जरूर सफल हुए हैं,,पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने एक ऐसा कदम उठाया है जो रेलवे के बहुत ही जरूरी ही है,,और भारतीय राजनीति के लिए एक खास सबक भी है,,
एक बार फिर साबित हो गया है कि राजनैतिक बिसात पर जीतने के लिए हर दांव-पेंच आजमाया जाता है,,,साथ ही सियासत बचाने के लिए सबसे कमजोर प्यादे की कुर्बानी देना ही सबसे बड़ी चाल है,,,यहां एक सवाल और भी उठता है कि क्या दिनेश त्रिवेदी को राजनैतिक स्वार्थ के लिए केवल इस्तेमाल भर किया गया,,, और क्या उन्हे जानबूझकर बलि का बकरा बनाया गया,,,
आखिरकार ममता बनर्जी के दबाव के चलते दिनेश त्रिवेदी को इस्तीफा देना ही पड़ा,, हालांकि यह बात दूसरी है कि दिनेश त्रिवेदी ने शालीनता से मुस्कराते हुए अपना इस्तीफा सौंपकर, अनुशासन की शानदार मिशाल पेश की,, दिनेश त्रिवेदी जो वेल एज्यूकेटेड़ पर्सनाल्टी है,, जिन्होने एमबीए करने के बाद शिकागो में दो साल तक काम भी किया है,,उनकी जगह पर ममता बनर्जी ने अपने चहेते मकुल रॉय को नया रेल मंत्री बनाया गया है,, जो केवल बारहवीं पास हैं,, सवाल यह उठता है कि क्या रेल मंत्री बदलने से आप सारी समस्या का हल निकाल पायेंगे,,
नतीजा चाहे कुछ भी हो इस सारे प्रकरण से दिनेश त्रिवेदी के राजनैतिक कद में इजाफा ही हुआ है,,इस सारे प्रकरण में उनके समर्पण की भावना,उनकी सोच और उनकी राजनीतिक परिपक्वता सबके सामने आ गयी है,,,

बड़े मियां बड़े मियां छोटे मियां शुभानअल्लाह...

अंडर-19 वि·ाकप में जिस तरह से भारतीय बल्लेबाजों ने मेजबान ऑस्ट्रेलिया को उसी की धरती पर मात दी है,काबिले तारीफ है। संड़े का दिन भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए बहुत ही खास रहा।एक ओर जहां जूनियर भारतीय शेरों ने तीन बार की विश्वविजयी ऑस्ट्रेलिया को उसी के घर में परखनी देकर विश्वविजेता बने वहीं सीनियर भारतीय क्रिकेट टीम ने न्युजीलैण्ड को पूरी तरह से पीटकर दो टेस्ट मैचों की सीरीज में 1-0 की महत्वपूर्ण बढ़त हासिल कर ली। 57 साल बाद यह पहला मौका है जब टीम इंडिया ने न्युजीलैण्ड को पारी और इतने बड़े अंतर से हराया है। जिस तरह से जूनियरों ने पिछले सत्र की वि·ाविजेता ऑस्ट्रेलिया को उसके ही घर में हराया है प्रशंसनीय है।अंडर-19 विश्वकप के फाइनल में जिस तरह से भारतीय टीम ने खेल दिखाया है निश्चय ही भारत में क्रिकेट का भविष्य उज्जवल दिखाई देता है। इस टूर्नामेंट ने सेलेक्टरों के सामने और विकल्प बढ़ा दिये हैं। अभी कुछ ही दिन पहले चर्चाएं जोरों पर थीं कि राहुल द्रविड़,वीवीएस लक्ष्मण और सचिन तेन्दुलकर की कमी कौन पूरा करेगा,अपने प्रदर्शन से सीनियर और जूनियर टीम के खिलाड़ियों ने बता दिया कि वे कोई भी जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार हैं।जो भारतीय क्रिकेट टीम के लिए बहुत ही शुभ संकेत हैं। जिस तरह से चर्चाएं थी टेस्ट में कौन राहुल द्रविड़ की भरपाई करेगा तो युवा चेते·ार पुजारा शानदार प्रदर्शन कर मौके को पूरी तरह से भुनाते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।ये भी कहा जा रहा था कि हरभजन,अनिल कुंबले के बाद स्पिन विभाग कौन संभालेगा तो आर.अश्वनी ,प्रज्ञान ओझा और पीयूष चावला ने फिरकी विभाग में शानदार प्रदर्शन कर हरभजन की बादशाहत को ही खत्म कर दिया। आज सीनियर टीम मे विराट कोहली,सुरेश रैना,महेन्द्र सिंह धोनी,और आर.अश्वनी के अलावा कितने ही खिलाड़ी दस्तक दे रहे हैं।खैर सचिन और द्रविड़ जैसे महान खिलाडियों की कमी तो पूरी नहीं की जा सकती लेकिन जिस तरह से यंगिस्तान ने प्रदर्शन किया है और कर रहे हैं इन खिलाड़ियों ने कमी को लगभग पाट सा दिया है।
भारतीय क्रिकेट टीम में जगह बनाने के लिए जबरदस्त प्रतिस्पर्धा जारी है जो किसी भी देश की टीम के लिए जरूरी है। टीम में टिके रहने के लिए आपको हर हाल में प्रदर्शन करना ही होगा।
हालांकि ये कहना थोड़ा जल्दबाजी होगा कि सचिन,सौरव,राहुल और लक्ष्मण की जगह लेने के लिए ये खिलाड़ी पूर्णतया परिपक्व हैं। लेकिन इन युवा बल्लेबाजों ने अपने प्रदर्शन से साबित कर दिया है कि वे अब कोई भी जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार हैं।पहले कहा जाता था कि सुनीव गावस्कर के बाद उनकी जगह कौन लेगा, कोई नहीं जानता था कि ये सचिन एक दिन ना केवल गावस्कर को बल्कि दुनिया के तमाम दिग्गजों को पीछे छोड़ इतना आगे निकल जाएगा जहां तक पहुंचना किसी भी खिलाड़ी के लिए मुश्किल होगा। वहीं अभी से लोग विराट कोहली को सचिन के विकल्प के तौर पर देख रहे हैं। निसंदेह सचिन सिर्फ एक है और एक ही रहेगा और उनकी कमी की भरपाई शायद नहीं हो सके। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सचिन के बाद भारतीय टीम में प्रतिभाशाली बल्लेबाजों की कमी रहेगी। आज जिस तरह से सीनियर और जूनियर  क्रिकेट टीम के खिलाड़ी प्रदर्शन कर रहे हैं लगता नहीं कि भारतीय टीम किसी एक या दो खिलाड़ियों पर निर्भर कर रही है।
अंडर-19विश्वकप में भारत को जो सितारे नज़र आये हैं उनमें बाबा अपराजित,उन्मुक्त चंद और संदीप शर्मा प्रमुख हैं। इन खिलाड़ियों का प्रदर्शन अगर ऐसा ही जारी रहा तो वो दिन दूर नहीं जब ये राष्ट्रीय टीम का हिस्सा होंगे।
ऑस्ट्रेलिया को हराकर तीसरी बार भारत आईसीसी अंडर-19 विश्वकप का विजेता बनकक अपनी बादशाहत कायम की है।






रविवार, 19 अगस्त 2012

अलविदा लक्ष्मण...

भारत के  वेरी-वेरी स्पेशल बल्लेबाज के वेरी-वेरी स्टाइलिश शॉट अब आपको सिर्फ रिकार्डिंग में ही देखने को मिलेंगे।इस धुरंधर बल्लेबाज को अब हम स्टेडियम में ग्राउंड के चारों तरफ कलात्मक शॉट लगाते नहीं देख पायेंगे। अपनी कलात्मक बल्लेबाजी से दुनिया की धुरंधर टीमों के लिए परेशानी का सबब बने वीवीएस लक्ष्मण ने क्रिकेट से संन्यास ले लिया है। 1996में लक्ष्मण ने टेस्ट क्रिकेट में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ अपने कैरियर की शुरुआत की थी। अपने 16 साल के लंबे क्रिकेट कैरियर में लक्ष्मण ने भारत की तरफ से खेलने वाले इस धुरंधर बल्लेबाज ने 134 टेस्ट मैच खेले इनमें 8781 रन बनाये।आस्ट्रेलिया के खिलाफ इनकी 281 रनों की पारी आज भी यादगार है।वहीं,वेरी वेरी स्पेशल ने 86 एक दिवसीय मैचों में दो हजार से ज्यादा रन बनाये। फिर भी अपने पूरे क्रिकेट कैरियर में लक्ष्मण को कई बार उतार चढ़ाव का सामना करना पड़ा। लेकिन लक्ष्मण ने हर बार अपने आलोचकों को अपने बल्ले से मुंहतोड़ जवाब दिया।लक्षमण ने हमेशा शांत रहकर मैदान पर अपने बल्ले से विपक्षी गेंदबाजों को धूल चटाकर भारत की जीत सुनिश्चित की है। लेकिन लक्ष्मण ने जिस तरह से अपना सबकुछ क्रिकेट में झोका हुआ है मुझे लगता है कभी उनके साथ न्याय नहीं हो सका है।एक ऐसा बल्लेबाज जो आमतौर पर प्रेशर में पांचवे या छठे नंबर पर बैटिंग के लिए आता है आप उससे कितनी उम्मीद रखते हैं। फिर भी लक्ष्मण ने अपने को हमेशा उम्मीद से बेहतर साबित किया। एक बार गांगुली ने कहा था कि लक्ष्मण बहुत ही शानदार बल्लेबाज हैं लेकिन अगर उन्हे भी ऊपर आकर खेलने का मौका तो उनके भी खाते में सचिन या राहुल द्रविड़ से कम रन नहीं होते। गांगुली और द्रविड के संयास लेने के बाद अभी तक उनके उत्तराधिकारी की खोज नहीं की जा सकी है वैसे में लक्ष्मण का उत्तराधिकारी कौन होगा कह पाना मुश्किल है।
न्युजीलैण्ड टीम के खिलाफ लक्ष्मण का टेस्ट टीम में सेलेक्शन हुआ था। उम्मीद जताई जा रही थी कि इस सीरीज के बाद लक्ष्मण सन्यास लेंगे। लेकिन जिस स्टाइल में इस स्टाइलिस बल्लेबाज ने सन्यास लिया है उससे उसकी भावनाओं का साफ पता चलता है, टीम में सेलेक्शन के बाद भी लक्ष्मण का सन्यास लेना अपने आप में पूरी कहानी बयां करता है।
चाहे भारत के सफलतम कप्तान गांगुली हों,टीम इंडिया की भरोसेमंद दीवार कहे जाने वाले राहुल द्रविड़ हों या फिर कलाई के जादूगर वीवीएस लक्ष्मण हों इन सबकी जिस तरह से टीम की विदाई हुई निश्चित ही पीडादायक और दिल को ठेंस पहुंचाने वाली है।
जिन्होने पूरी दुनिया में अपनी बल्लेबाजी से भारतीय टीम का डंका बजाया उनकी इस तरह से विदाई किसी भी तरह से सही नहीं मानी जा सकती ।

शनिवार, 18 अगस्त 2012

वेरी-वेरी स्पेशल...

दुनिया में वेरी-वेरी स्पेशल के नाम से मशहूर भारत का ये बल्लेबाज अब आपको ग्राउंड पर शायद कलात्मक शाट लगाते नहीं दिखेगा,वीवीएस लक्ष्मण को दुनिया के कलात्मक बल्लेबाजों की श्रेणी में गिना जाता है,,जब ये बल्लेबाज मैदान में उतरता है तो उनकी कलात्मक बल्लेबाजी से भारतीय ही नहीं विपक्षी टीम के खिलाडी भी तारीफ किए बिना नहीं रह सकते हैं,वीवीएस लक्ष्मण को भारतीय टीम का संकटमोचक भी कहा जाता रहा है,,लक्ष्मण ने हमेशा ही दुनिया की दिग्गज टीमों के खिलाफ शानदार प्रदर्शन किया है,जब भी कोई टीम भारत को बैकफुट धकेलती तो गेंदबाजों की राह में सबसे बड़ा रोडा बनकर लक्ष्मण ही खड़े नज़र आते रहे हैं। लक्ष्मण के करियर में ऐसे एक नहीं कई मौके आये हैं,जब उन्होंने पुछल्ले बल्लेबाजों के साथ मिलकर मैच में भारत की वापसी कराकर विरोधियों के हौसले पस्त किये हैं,,आज भी ईडन गार्डेन में आस्ट्रेलिया के खिलाफ लक्ष्मण की खेली गई वो पारी कोई कैसे भुल सकता है,,उस मैच में भारत फालोआन की शर्मिंदगी झेल रहा था,,और हार लगभग तय मानी जा रही थी,,तभी वेरी वेरी स्पेशल के नाम से मशहूर भारत का ये संकटमोचक ऑॅस्ट्रेलियाई टीम के सामने चट्टान की तरह खड़ा हो गया,, इस मैच में भारत ने ना केवल वापसी की बल्कि शानदार जीत दर्ज कर सीरीज पर अपनी पकड़ भी बनाई,,जानी मानी पत्रिका विज्डन ने लक्ष्मण की इस स्पेशल पारी को दुनिया की बेस्ट पारियों में शामिल किया है, ऐसे एक नहीं कई मौके आये हैं जब लक्ष्मण भारतीय टीम की नैया के खेवनहार साबित हुए हैं,,लक्ष्मण के सन्यास लेने से वैसे तो हर विपक्षी टीम को खुशी मिली होगी, लेकिन सबसे ज्यादा खुशी आस्ट्रेलियाई टीम को मिली होगी, इस टीम के खिलाफ वेरी वेरी स्पेशल लक्ष्मण का बल्ला जरूर बोला है, इस बात का एहसास ऑॅस्ट्रेलियाई गेंदबाजों को भी है, लक्ष्मण ने टीम इंडिया के लिये 134 टेस्ट मैच खेलें हैं जिसमें उन्होने 17 शतकों की मदद से 8781 रन बनाये हैं, वहीं  86 वनडे मैचों में  6 शतकों के साथ 2338 रन बनाये हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से इस हैदराबादी बल्लेबाज का बल्ला खामोश रहा है,,जिससे लक्ष्मण के टीम में चयन पर संशय के बादल मंडराते रहे हैं। न्युजीलैण्ड के खिलाफ आगामी सीरीज में ये भारतीय सितारा शायद आखिरी बार मैदान पर दिखेगा। सूत्रों के हवाले से मिली खबर के मुताबिक हैदराबाद में होने वाले टेस्ट मैच के बाद वीवीएस लक्ष्मण क्रिकेट से सन्यास ले सकते हैं,,जिसकी वे आज घोषणा कर सकते हैं।लक्ष्मण के सन्यास लेने के बाद कुछ प्रश्न भारतीय टीम और सेलेक्टरों के पेशानी पर बल जरूर डालेंगे कि लक्ष्मण के जाने के बाद टीम उनकी जगह कौन लेगा।इतना तो तय है कि इस कलात्मक बल्लेबाज के स्थान की पूर्ति कर पाना इतना आसान नहीं होगा। वीवीएस लक्ष्मण जैसा महान कलात्मक बल्लेबाज शायद ही कभी टीम इंडिया को मिल पाये

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

मित्र, तुम बहुत याद आते हो...


फ्रैंडशिप के दिन सभी दोस्त एक दूसरे से मिलकर, फोन या मैसेज करके अथवा फेसबुक या दूसरे अन्य माध्यमों से दोस्तों को फैंडशिप डे की शुभकानाएं देते हैं। मेरे पास भी कुछ दोस्तों के मैसेज आये, मैंने भी  जवाब दिया। अपने बचपन के जिगरी दोस्त को भी मैसेज किया। उसने भी मुझे मैसेज कर मित्र दिवस की शुभकामनाएं दीं।फ्रैंडशिप दिवस के इतने दिन बीत जाने के बाद भी मेरा मन भारी-भारी लग रहा है। अभी भी मैं मित्रदिवस की शुभकामनाओं को पचा नहीं पा रहा हूं।

अनायास ही जब तब मेरे मन को मेरे एक खास दोस्त की यादें विचलित किये रहती हैं। उसे कुछ समय पहले हमसे भगवान ने छीन लिया था। लेकिन वो आज भी हमारे दिल में समाया हुआ है। आज भी उसकी यादें मेरी आंखों को नम कर जाती हैं। पहले जैसी उसकी हूबहू तस्वीर अभी भी मेरे जेहन में बसी हुई है।

एक दर्दनाक हादसे में प्रकृति ने उसे हमसे छीन लिया था। उसका नाम "अरविंद रस्तोगी "था जिसे हम प्यार से "रस्तोगी" कहकर बुलाया करते थे। सुनार होने के कारण वह और उसका पूरा परिवार सोनारी का काम करता था। लेकिन वह हमेशा से ही लीक से हटकर कुछ अलग करना चाहता था, और करता भी था। उसने अपने  एरिया में सबसे पहली मोबाईल शॉप खोली, और भी कई लेटेस्ट विजनेस किये। पैसे भी खूब कमाये।

तीन भाइयों में रस्तोगी सबसे छोटा था। बड़े भाई की शादी हो चुकी थी। दूसरा भाई मानसिक रूप से विक्षिप्त था। पिताजी बचपन में ही छोड़कर चल बसे थे। रस्तोगी अपने भाई से अलग रहता था। वह अपनी बूढ़ी मां, विक्षिप्त भाई, पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ खुश था। उसके परिवार का सामाजिक दायरा बिल्कुल ही नगण्य था। हर कोई अपने काम से काम रखता था और सभी यही चाहते थे कि रस्तोगी भी उसी काम में हाथ बटाये, पर पता नहीं उसे कब,और कैसे क्रिकेट का चस्का लग गया और वह दुकानदारी के साथ-साथ क्रिकेट के लिए भी टाइम निकाल लेता था।

मेरी उससे पहली मुलाकात मेरे स्कूल के क्रिकेट के ग्राउंड में मेरे ही दोस्त राघ्वेन्द्र सिंह (रिंकू) ने करवाई थी। रिंकू मेरे बचपन का पहला दोस्त था जो अब तक भगवान के आशीर्वाद के रूप में मेरे साथ  है। हमारी दोस्ती को कभी भी जमाने की नजर नहीं लगने पाई। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि रिंकू का स्वभाव, उसकी सोच, उसकी विचारधारा यहां तक कि सब कुछ उच्चकोटि का है। मुझे कहने में कतई संकोच नहीं कि वह हमारी मित्र मंडली में सबसे हैंडसम और दोस्तों पर जान लुटाने वाला था। वह इस जमाने में किसी कृष्ण से कम नहीं है।

रिंकू अच्छे जमींदार परिवार से संबंध रखता है। उसके दादाजी लगातार कई सालों तक ग्राम प्रधान भी रहे। हमारी दोस्ती हमें विरासत में मिली थी। मेरे पापा और उसके दादाजी एकदम पक्के दोस्त हैं। अभी भी लोग उनकी दोस्ती की मिसाल देते हैं। इसलिए हमारा आना-जाना तो पहले से ही था और हम दोनों पहली मुलाकात में ही एक दूसरे के खास दोस्त बन गये। हमारी मंडली का हर दोस्त दूसरे पर कभी भी अपना सबकुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार रहता है।

रिंकू ने जब मुझे रस्तोगी से मिलवाया तो संदेह का कोई प्रश्न ही नहीं था। धीरे-धीरे रस्तोगी भी हम दोनों में इतना घुल गया कि अब हम तीनों को कहीं जाना होता, खाना होता तो साथ ही खाते थे। पहली बार जब "टी-ट्वंटी क्रिकेट वर्ल्ड कप" में भारत फाइनल में पहुंचा था। रस्तोगी और रिंकू ने प्लान बनाया कि चलो मैच देखने लखनऊ चलते हैं। इत्तेफाक से मैं भी आ गया फिर क्या था वही हुआ! हम तीनों ने चुपचाप लखनऊ जाने का प्रोग्राम बना डाला। धीमे-धीमे बारिश भी हो रही थी समस्या थी लखनऊ कैसे पहुंचा जाये। समय भी कम था तीन घंटे ही बचे थे मैच शुरू होने में और बस से जाने में चार घंटे से भी ज्यादा लगने थे। बहुत ही असमंजस की स्थिति थी कि तभी रिंकू के "चौहान फूफाजी" आ गये। फिर क्या था हमारी तो बांछे खिल गईं। क्योंकि फूफाजी का स्वभाव इतना अच्छा है कि पूंछिए ही मत। वो कहने को तो फूफाजी थे पर वास्तव में किसी दोस्त से कम नहीं हैं। उनके पास "हीरो हॉंण्डा" की पुरानी बाईक सीडीएसएस थी, जो शायद हम तीनों के बोझ से शरमा जाती। हमने फूफा जी से बाईक के लिए कहा, पर उन्हें भी नहीं बताया कि लखनऊ जाना है। उन्होने हंसते हुए चाभी दे दी और कहा, आराम से जाना, पेट्रोल की चिंता मत करो टंकी भरी हुई है।

अंधा क्या चाहे दो आंखे न। हम तीनों हल्की बूंदाबांदी में हंसते बातें करते हुए लखनऊ की ओर रवाना हो चले। हमारे पास न तो बाइक के कागज थे और न ही ड्राइविंग लाइसेंस, फिर भी हम लोग चेकपोस्ट को धता बताते हुए निकल ही गये। लखनऊ पहुंचते-पहुंचते हम लोग पूरी तरह से भीग चुके थे ठंडक भी खूब लग रही थी पर मजाल हममें से कोई उफ तक करे। अब हम लोग के सामने बड़ी समस्या थी कि मैच कहां देखें क्योंकि न तो मैं अपने भाइयों के पास जा सकता था, क्योंकि हमने घर में नहीं बताया था कि हम लखनऊ जा रहें हैं। अगर मैं घर में बताता तो नतीजन घर जाना पड़ता और शायद भीगने के कारण डांट भी खानी पड़ती।

फिलहाल हमने एक इलेक्ट्रॉनिक की दुकान पर मैच चल रहा था हमने फैसला किया चलो यहीं देखेंगे। पहले भारत बैटिंग कर रहा था आखिरी के चार-पांच ओवर बचे थे। एक पारी खत्म हुई रस्तोगी ने कहा चलो मेरे मामा यहीं बालागंज में रहते हैं उनकी दुकान पर मैच देखेंगे। हम लोग वहां पहुंचे मामाजी ने गर्मा गरम चाय पिलाई तब जाकर कहीं हल्की राहत सी महसूस हुई। फिर हमने वहीं बैठे-बैठे सारा मैच देखा। इंडिया ने वह मैच जीतकर पहली बार टी-ट्वंटी का विश्व चैंपियन बनने का गौरव हासिल किया। मैच खत्म होने के बाद मामा ने कहा यहीं रुक जाओ लेकिन हम नहीं रुके, क्योंकि रिंकू के कुछ और दोस्त भी वहां किराए के मकान में रहते थे जो मेरे भी अच्छे दोस्त बन गये थे। हमने वहां जाने का फैसला कर लिया। वहां पहुंचकर खूब मस्ती-धमाल किया।

दोस्तों के साथ रहना किसी पिकनिक से कम न था। एक्चुअली मैं जब भी लखनऊ आता था कोशिश करता था कि मेरे घर वाले न जान पायें क्योंकि अगर जान जाते तो मुझे वहीं रुकना पड़ता जो मेरे लिए किसी सजा से कम न था। मैं जब भी कभी लखनऊ जाता कोशिश यही करता कि घर में न रुककर अपने प्यारे दोस्तों के साथ ही रहूं। मुझे दोस्तों के साथ रहकर इनती खुशी मिलती जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। हमारे घरवाले भी हमारी दोस्ती को पसंद करते थे उसकी कद्र भी करते थे, क्योंकि हम सब में क्रिकेट खेलने के अलावा कोई भी ऐसी आदत नहीं थी जिसे गलत कहा जा सके। रिंकू को तो मेरे घरवाले पहले से ही जानते थे रस्तोगी ने भी अपने व्यवहार से परिवार में अपनी जगह बना ली थी। हम तीनों ही क्रिकेट भी अच्छा खेलते थे। मैं और रिंकू आलराउंडर थे जो तेज गेंदबाजी के साथ अच्छी बल्लेबाजी भी करते थे। वहीं, रस्तोगी भी ठीक-ठाक खिलाड़ी था लेकिन बैटिंग आर्डर में उसका डाउन नीचे रहता था और गेंदबाजी में भी पूरे ओवर नहीं दिये जाते थे। इसलिए उसको मौके कम ही मिलते थे। लेकिन फिर भी वह मेरी टीम का कैप्टन, कोच और संरक्षक था।

हम तीनों के गांव एक-एक किलोमीटर के अंतराल पर थे। हम मैच खेलने से लेकर किसी न किसी बहाने रोज मिल ही लेते थे। हम सबमें रिंकू दोस्ती की सबसे ज्यादा कद्र करने वाला था। वह क्रिकेट के साथ-साथ बॉलीवाल का भी बेहतरीन खिलाड़ी था। हम लोग अक्सर मैच खेलने के लिए अपने ग्राउंड पर या बाहर जाया करते थे। खिलाडियों को मैनेज करना हो, या मैच खेलने की परमीशन के लिए हमारे पापा या रिंकू के दादा जी को मनाना हो हम तीनों साथ ही जाया करते थे और जिसके घर जाते उसी की बड़ाई करते। किसी प्रकार से हां करवाना ही हमारी प्राथमिकता रहती थी अगर किसी कारणवश कोई एक नहीं जा पाया तो समझ लो तीनों का मैच खेलना कैंसिल।

केवल हम तीन ही दोस्त थे ऐसा कहना एकदम गलत होगा। हमारे पास एक से एक अच्छे दोस्त थे। लेकिन हम तीनों की बात ही कुछ और थी। हम तीनों अलग-अलग जिस्म पर एक जान थे। रस्तोगी एक खुशमिजाज लड़का था वह हमेशा खुश रहता और कोशिश करता कि दूसरे भी हमेशा खुश ही रहें। हम दोनों रस्तोगी को खूब परेशान करते। उसको पीटते ग्राउंड में उसको गिरा देते और उसको खूब चिढ़ाते, मतलब खूब मस्ती करते। वो भी पट्ठा जाने किस मिट्टी का बना था कभी बुरा भी नहीं मानता। उसकी यही खूबी यही आदत अभी तक हमको रुला रही है।

हम दूसरी टीमों से शर्त लगाकर मैच खेलते, किससे मैच लेना है कितना क्या करना है, टीम कैसे मैनेज होगी ये सारी जिम्मेदारी रस्तोगी ही निभाता था। रस्तोगी जब दूसरी टीमों से मैच ले आता, हमें बताता। हम सब उसकी बहुत खिंचाई करते, उसको खूब परेशान करते कि मैं नहीं खेलूंगा, जबकि मन में खेलने के नाम से ही लड्डू फूटते। खेलने का लाख मन होने के बावजूद उसको बुरा-भला कहते। साले तेरे पास मैच खेलने के अलावा और कुछ नहीं है मैं नहीं जाउंगा आदि तरीके से उसको कहकर परेशान करते। वो हमारी खुशामद करता भाई चलो मैंने मैच ले लिया है। शर्त के पैसे भी मैं ही दे दूंगा। अब कैसे होगा चलो प्लीज आदि।

आखिरकार हमें तो मानना ही होता था और हम मान ही जाते। उसके बाद भी शर्त रखते हम लोग को कैसे ले जाओगे ग्राउंड तक, वो बेचारा पूरी टीम के लिए बाईक की व्यवस्था करता और खुद बाईक पर लटककर बैठता। कभी-कभी वह हांफता हुआ पीछे से साईकिल से आता। लेकिन मजाल उसके चेहरे पर शिकन तक आ जाए। वो मेरा कप्तान होता जबतक वह नहीं आता टॉस नहीं होता। अक्सर हम लोग टीम कांबिनेशन की दुहाई देते हुए उसको ही बाहर बिठा देते और वह खुशी-खुशी बाहर बैठकर टीम का हौसला आफजाई करता। इतना ही नहीं वह ग्राउंड में दौड़कर पूरी टीम को पानी भी पिलाता था।

वह हमारे बल्ले से निकलने वाले एक-एक रन के लिए उछल-उछलकर तालियां बजाता। यहां तक कि हमारे हर चौके और छक्के पर पारले बिस्किट का पैकेट देता। वह क्रिकेट के नये-नये नियमों का हम सबसे अधिक जानकार था। बात-बात पर विपक्षी टीम से बहस करने लगता उसके होते कोई बेईमानी नहीं कर सकता था। वो आला दर्जे कि अंपायरिंग भी करता था। अंपायरिंग करते समय वह भूल जाता था कि हम उसके दोस्त हैं। एक बार हल्की स्निक लगने पर उसने कांटे के फंसे मैच में वेल सेटेल्ड रिंकू को आउट दे दिया परिणामस्वरूप हम लोग मैच हार गये। बाद में हम लोगों ने उसकी बहुत खिंचाई की।

एक दूसरे के पारिवारिक मसलें हों या प्राइवेट हम तीनों हमेशा ही एक-दूसरे के से खुलकर बात करते और परिवारों की भलाई के लिए अपना सबकुछ लगा देते। हमारे यहां कोई भी फंक्शन होता हम तीनों की उपस्थिति अनिवार्य थी। खासकर रस्तोगी काम में ऐसा व्यस्त हो जाता कि जैसे मेरा घर नहीं उसका है। कुल मिलाकर रस्तोगी बहुत ही जिम्मेदार और प्यारा दोस्ता था। इसीलिए हम लोग उस पर अपनी जान तक लुटाने को हमेशा तैयार रहते थे। किसी एक के भी न होने पर रिंकू अपने भाई पुष्पेंद्र या पंकज को भेजता वे दोनों बहुत ही आज्ञाकारी भाई हैं। अगर रिंकू उन दोनों से कुछ कह देता मजाल कि वो मना कर दें, और हम भी उनको अपने भाइयों जैसा ही मानते थे और अभी भी मानते हैं।

ये सब संस्कारों के ही नतीजे थे जो उनके दादाजी ने दिये थे। दादाजी जिन्हें सारा इलाका ही बाबाजी कहता है, बहुत उच्च आदर्शवादी और विचारवादी व्यक्ति हैं। वे अपने जमाने के जिला स्तर पर कुश्ती चैंपियन थे। दादाजी हमलोग को इतना प्यार करते थे जितना कि रिंकू को।

तू टीवी का बीमार है, जल्दी मरेगा आदि तरह-तरह के मजाक से अक्सर हम रस्तोगी को परेशान करते, उसको दौड़ाते, पीटते लेकिन वह कभी बुरा नहीं मानता। बाद में जब हमें लगता ज्यादा हो गया है सॉरी के साथ आई लव यू बोलकर उसे खुश कर देते।

समय अपनी गति से चलता रहा है लेकिन हमारी दोस्ती में और प्रगाढ़ता आती गई। अब हम लोगों को जॉब की जरूरत थी मैंने एक दुकान खोली थी साथ ही एलआईसी में एजेंट के तौर पर काम करने लगा था, जिसमें रस्तोगी ने मेरी बहुत मदद की थी। उसने अपनी सभी रिस्तेदारियों में मुझे ले जाकर अपने रिश्तेदारों के बीमे करवाये थे। इस बीच उसकी शादी भी हो गई थी। रिंकू भी लखनऊ शिफ्ट हो गया था और शेयर मार्केट में जॉब करने लगा था। इस तरह हम तीनों थोड़ा व्यस्त रहने लगे थे लेकिन हमारी दोस्ती में मिठास की कमी नहीं थी। एक-दूसरे से मिलने का कोई भी मौका हम लोग नहीं चूकते।

रस्तोगी के एक लड़का और एक लड़की भी थी। उसकी पत्नी रेनु का स्वभाव भी बहुत अच्छा था। हम सब कभी-कभी जब साथ होते उसके घर जाकर चाय-नाश्ता भी करते। कुल मिलाकर हमारे पास सबसे बड़ी जमापूंजी हमारी दोस्ती ही थी, जिस पर हमें किसी कुबेर के ख़जाने से कम गुमान नहीं था।

बरसात का मौसम था कई दिनों से हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। रस्तोगी के घर के पास दीवार से सटी एक नाली थी, जिसे वह सुबह-सुबह कचड़ा फंसा होने के कारण साफ कर रहा था कि अचानक कुदरत का कहर बनकर दीवार उस पर गिर गई। आनन-फानन में उसके उपचार की व्यवस्था की गई उसे लखनऊ ले जाया जा रहा था कि रास्ते में ही मेरे दोस्त मेरे हमसफर ने इस दुनिया से और हमसे अपना नाता तोड़ लिया था। रस्तोगी के मौत की खबर सारे इलाके में जंगल में आग की तरह फैल गई। खबर सुनकर मुझ पर तो मानों बज्रपात सा हो गया था, क्योंकि हम तीनों अगली शाम को ही मिले थे। दरअसल रिंकू के घर में रामायण का आयोजन था जिसमें हम सभी थे और खाने-पीने का सारा इंतजाम रस्तोगी ही देख रहा था। रिंकू सुबह ही लखनऊ चला गया था, जैसे उसे पता चला वह भी तुरंत लखनऊ से घर भाग पड़ा। उसने मुझे भी फोन किया और रोते हुए बोला राजन, अपना दोस्त रस्तोगी हमें छोड़कर चला गया।

हम वहां पहुंचे देखा हमारा दोस्त ज़मीन पर चुपचाप लेटा हुआ है। उसका तीन वर्षीय बेटा अपनी मां को रोता देख रोये जा रहा था और छोटी बहन अपने पापा की लाश से खेल रही थी। मेरे आंसू लगातार बहे जा रहे थे। क्रूर काल ने हमसे हमारा सबसे अजीज दोस्त छीन लिया था। जिसने भी उसकी मौत की खबर सुनी भागा चला आया। वहां पर हजारों लोगों की भीड़ लगी हुई थी। मुझे अपनी गलती का अहसास हो रहा था कि हम लोग उसे बुरा भला कहा करते थे और शायद हमारी ही बद्दुआ उसे लग गई थी। कुछ भी हो भगवान ने हमसे हमारा जान से प्यारा दोस्त छीन लिया था जिस हकीकत पर हम आज तक विश्वास नहीं कर सके कि सच में वो हमसे दूर चला गया। उसके परिवार को देखकर दिल फटा जा रहा था उसकी पत्नी रेनू जिसकी उम्र पच्चीस के आस-पास ही रही होगी उसका क्या होगा, बच्चों का क्या होगा, मां को कौन देखेगा और उसके पागल भाई का इलाज कौन करवाएगा आदि कई सवाल मेरे दिमाग में कांटे की तरह चुभ रहे थे।

हमारे अलावा हमारे परिवार के सभी लोग वहां मौजूद थे। उसका पार्थिव शरीर गोमती के तट पर ले जाया गया। हम लगातार बह रही अश्रुधारा से अपनी दोस्त की जलती चिता को नदी में विसर्जित होते देखते रहे। हम अपना सब कुछ खोकर वापस लौट आये। थोड़ी देर उनके घर पर ही रुककर रेनू के साथ उसकी मां को दिलासा दिलाने का असफल प्रयास करता रहा। उन्हें उनके हाल पर छोड़ हम अपने घर लौट गये।

सुबह-सुबह मेरे पास रेनू का फोन आया बोली बिटिया की तबियत बहुत खराब है। रात से रो रही है। मैं तुरंत ही अपनी बाइक से उसको लेकर पास के कस्बे में जो हमारे घर से पांच किलोमीटर दूर है ले गये। हम उसे फेमस स्वदेशी डॉक्टर के पास ले गये। लेकिन हमें क्या पता था कि यहां पर भी भगवान रेनू को और रुलाने के मूड में है। उस नन्ही जान भी अपनी मां का साथ छोड़ अपने पापा के पास चली गई। इस दोहरे आघात ने तो रेनू को तोड़कर ही रख दिया था। उसके शरीर में तो जैसे जान ही नहीं बची थी। रेनू अपनी सुध-बुध विसराये दहाड़े मारकर रोये जा रही थी। असहाय मैं भी रोता हुआ भगवान की क्रूरता देखे जा रहा था।

धीरे-धीरे सब सामान्य होने लगा था लेकिन रेनू की मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही थीं। परिवार वाले उसका साथ नहीं दे रहे थे। हालांकि कई बार मैं उनके घर गया, सबसे बात करने की कोशिश की पर सब सुलझ नहीं सका और आये दिन रेनू की जिंदगी और मुश्किल होती जा रही थी। घर वाले उसका कोई सपोर्ट नहीं कर रहे थे। मैंने और रिंकू ने सलाह-मशविरा किया कि किसी प्रकार रेनू की अच्छा लड़का देखकर शादी करा देना चाहिए और प्रण किया कि हम उसकी मां का ख्याल रखेंगे। उसके बच्चों को पढ़ाएंगे।

रेनू का अपनी ससुराल में रहना मुश्किल हुआ जा रहा था। कोई भी उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा था, वो अपने भाई के घर भी गई, पर कब तक रुकती कौन उसे सहारा देता। मैं अक्सर उसके घर चला जाता बेटे से मिलता जिसमें मुझे मेरे दोस्त की छवि नजर आती। उसके लिए कुछ न कुछ लेकर जाता। लेकिन रेनू के घर में न तो राशन था और न ही उसके पास पैसे थे कि वो अपना जीवन यापन कर सके। मैंने कई बार कोशिश की समझाने की कि तुम मेरे स्वर्गीय दोस्त की बीवी जरूर हो पर मेरे लिए मेरे बहन जैसी ही हो। मैंने कहा कि मैं राशन अपने घर से ला दूं पर उस खुद्दार ने मना कर दिया।

वयस्तता के कारण कई दिनों तक उधर नहीं जा सका। गया तो पता चला कि रेनू बच्चे को लेकर मौसी के घर सीतापुर चली गई है। मैंने फोन से बात की एक बार गया भी वह वहां ठीक थी बच्चा भी पढ़ रहा था। आखिरकार मौसी ने जाति का ही लड़का देखकर रेनू की शादी कर दी।

रेनू की शादी हो जाने से हम दोनों दोस्त काफी निश्चिंत हो गये और तबसे उसके गांव ही जाना छूट गया। हम दोनों भी अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हो गये। मैं भी कोर्स करने के बाद जॉब के लिए हैदराबाद चला आया और रिंकू भी लखनऊ में ही रहने लगा।

लेकिन फ्रैंडशिप डे पर फिर से मेरे सूखते जख्म ताजा हो गये हैं, फिर से मेरे दोस्त का मुस्काराता हुआ चेहरा मुझे रुला गया। मुझे लगता है दोस्ती के कुछ ऐसे फर्ज हैं जिन्हें शायद मैं निभा नहीं सका। मसलन हैदराबाद आने के बाद मेरी रेनू से या रस्तोगी की मां से एक बार भी बात नहीं हो सकी। यहां तक कि मैं अपने प्यारे दोस्त की आखिरी निशानी उसके बेटे के बारे में कोई कुशलक्षेम तक नहीं जान सका।

तबसे लेकर आज तक मुझे दोस्ती के नाम से डर लगता है। दोस्त के नाम से ही मेरी अंदर तक रुह कांप जाती है। आज मेरे पास गिने-चुने दोस्त हैं जिनमें मेरा अनमोल दोस्त रिंकू भी है। मैं भगवान से हमेशा यही प्रार्थना करता हूं कि भगवान मेरे दोस्तों और उनके परिवार वालों को हमेशा खुश रखे और उन्हें दुनिया के सारे ऐश्वर्य प्रदान करे। आई लव यू मेरे दोस्तों आई लव यू वेरी मच यू आर माई लाईफ ।