मंगलवार, 24 जनवरी 2012

रुश्दी पर खेल

भारतीय मूल के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी जयपुर के साहित्य सम्मेलन में शिरकत नहीं कर सके या करने नहीं दिया गया अलग बात है । लेकिन भारत यात्रा को लेकर देश के मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा खड़ा किया गया विवाद और राज्य सरकार या कहिए चुनावी राजनीति के चलते भारत सरकार की प्रतिक्रिया ने पूरी दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा को गिराया है ।
रुश्दी को मिडनाइट चिल्ड्रेन उपन्यास के लिए प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है,लेकिन उनकी 1988 में प्रकाशित द सैटेनिक वर्सेज के कारण पूरी दुनिया के मुस्लिम समुदायों के कोप का भाजन बनना पड़ा है । यह बात अलग है उनकी अन्तर्राष्टट्रीय प्रसिद्ध के लिए इस विवादित उपन्यास की महती भूमिका रही है ।
इस उपन्यास के प्रकाशन के तुरंत बाद ही ईरान के सर्वोच्च इस्लामिक नेता अयोतुल्लाह खुमैनी ने उनकी मौत का फतवा जारी कर दिया था । तब से आज तक रुश्दी का थोड़ा बहुत विरोध भारत में भी होता रहा है ।यह बात अलग है कि प्रतिबंध के बावजूद 2002 और 2007 में भारत की यात्रा कर चुके हैं, वो भी 2007 में तो इन्होने बाकायदा जयपुर के ही साहित्य सम्मेलन में शिरकत की थी । तब उनकी यात्रा का विरोध नहीं हुआ था क्यो....
 क्योंकि अब 2012 में देश के 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं जिसमें उत्तरप्रदेश जैसा राज्य भी है जहां से होकर ही केन्द्र का रास्ता जाता है, और जहां पर मुस्लिम वोटों का खासा महत्व है ।
इस राजनीति का ही चक्कर है कि देश के सर्वोच्च इस्लामिक संगठन दारुल उलूम देवबंद के मुखिया मौलाना अब्दुल कासिम नोमानी ने मौका देखते हुए केन्द्र सरकार से मांग की, रुश्दी को साहित्य सम्मेलन में आने से रोका जाए , इस मांग से सरकार सकते में आ गयी लेकिन चुनावी समीकरणों को देखते हुए इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाई कि मौलाना साहब से पूछे यदि 2002 और 2007 में रुश्दी के भारत आने से भारतीय मुसलमानों को कोई तकलीफ नहीं हुई थी तो फिर अब क्यूं है...
इस संवेदनशील मुद्दे को लेकर गहलोत समेत सभी कांग्रेसी दिग्गजों ने दिल्ली में इकट्ठे होकर समस्या पर विचारकिया कि क्या किया जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। क्योंकि केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के युवराज राहुल गांधी की प्रतिष्ठा इस बार उत्तरप्रदेश के चुनाव में पूरी तरह से दांव पर लगी है ।
तभी खबर आती है कि रुश्दी ने सुरक्षा कारणों से खुद ही अपनी यात्रा रद कर दी,उन्हे राजस्थान पुलिस के गुप्त सूत्रों ने बताया कि कुछ माफिया संगठनों ने उनकी हत्या के लिए भाड़े के हत्यारों को सुपारी दे रखी है । मेरी समझ से परे है जब आतंकी हमले या कोई अन्य बड़ी वारदात हो जाती है तबतक सोनेवालीं गुप्तचर एजेंसियां इतनी सजग... भाई कमाल है...।  
यहां पर उल्लेखनीय है कि एक तरफ तो गुप्तचर एजेंसियों ने रुश्दी को उनकी हत्या की सूचना देकर डराने की कोशिश की जिससे वे इस मेले से दूर ही रहें, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस के महासचिव दिग्गी राजा कहते हैं रुश्दी को भारत में आने से रोका किसने...अब यदि वे ड़र के कारण आयोजन में नहीं आये तो इसमें सरकार की क्या गलती...। उनके इसी बयान के बाद मुंबई पुलिस का कहना है कि सुपारी के मामले में उसे कोई जानकारी नहीं है। जाहिर है यह सब केन्द्र सरकार की योजना का ही कमाल है कि वह रुश्दी को रोकने का कोई स्पष्ट आदेश तो नहीं देना चाहती थी, पर उसकी मंशा मुसलमानों तक यह संदेश अवश्य पहुंचाना था कि देखो सरकार तुम्हारा कितना ख्याल रखती है ।
खासकर अब जब रुशदी ने यह आरोप लगाते हुए ट्विटर पर लिखा है कि उन्होने इसकी जांच कर ली है और उन्हे पता चला है कि सुपारी वाली बात बिल्कुल ही कल्पित थी जिसके लिए उन्होने राजस्थान पुलिस को दोषी ठहराया है ।
खैर अब यह सम्मेलन तो समाप्त हो चला है किन्तु अभी भी एक असल सवाल मुंह बाये खड़ा है कि रुश्दी को भारत में आने से रोकने में मुख्य भूमिका किसकी थी...किसके इशारे पर रुश्दी की हत्या के खतरे का नाटक रचा गया... सारा का सारा आरोप राजस्थान पुलिस के मत्थे मढ़ा जा रहा है,लेकिन यह बात समझ से परे है कि पुलिस अपने स्तर पर इतना बड़ा कदम कैसे उठा सकती है वह तो राज्य सरकार का हथियार है । वह अकेले इतना बड़ा निर्णय कैसे ले सकती है वो भी ऐसे समय में जब सारी दुनिया की नज़रें राजस्थान पर लगी हों । ऐसे मामले में उंगली गहलोत सरकार की तरफ़ घूमना स्वाभाविक है । संभव है केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा उत्तरप्रदेश के चुनावों के मद्देनज़र यह निर्णय लिया गया हो  ।

अब यह पूरी तरह से अनुमान का विषय है कि रुश्दी को रोकने में अपवाह फैलाने का निर्णय किसके इशारे पर दिया गया था ।
लेकिन इस तरह की राजनीतिक व प्रशासनिक चालें देश और उसकी प्रतिष्ठा के लिए बहुत घातक और विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाने वाली हैं ।
आज रुशदी की वीडियो कांफ्रेंसिंग होनी थी जो कि विरोध के कारण टल गयी है, जिसमें उम्मीद की जा रही थी कि वे साहित्य सम्मेलन में न आ पाने का दर्द बयां करेंगे और बताएंगे कि उनको कैसे आने से रोका गया ।



सोमवार, 23 जनवरी 2012

जयपुर मैराथन

मैने पहली बार किसी मैराथन में डरते-डरते भाग लिया था वो भी हैदराबाद मैराथन में । मुझे पता नहीं था कि मैं दौड़ भी पाउंगा या नहीं, क्योंकि मैने नेट पर देखा था हैदराबाद मैराथन में देश-विदेश से आये कई एथिलीटों ने रजिस्ट्रेशन करवाया हुआ था ।मुझे ऑफिस के बाद इतना समय नहीं मिलता है कि किसी प्रकार से तैयारी कर सकूं,एक तो 11 घंटे ऑफिस के लिए ऊपर से अलग-अलग शिफ्टों का झंझट ।मेरे टाइम मैनेटमेंट की इस समस्या को मेरे वो साथी आसानी से समझ सकते हैं जो यहां काम कर रहे हैं या कर चुके हैं । फिर भी मैने जैसे-तैसे थोड़ा समय निकाल  ही लेता था क्योंकि मैने ठान लिया था कि मुझे दौड़ना है भले मैं निर्धारित दूरी तय न कर सकूं,फिर भी हिस्सा जरूर लूंगा, और इसमें मेरा साथ दिया मेरे सीनियर,रूम पार्टनर संतोष पंत ने ।
खैर वो दिन आ ही गया जब मुझे दौड़ने जाना था,मैने नेट पर ही रनिंग रूट देख लिया था ।एक दिन पहले ही ऑफिस जाकर मैंने बीआईबी नंबर और किट ले लिया था ।दौड़ चौमहला पैलेस से होकर कुतुबशाही तक जानी थी,चौमहला पैलेस तक ले जाने के लिए आयोजकों ने सुबह 3 बजे ही बस भेज दिया था जो हमें गंतव्य स्थान तक लेकर गयी थी ।जब मैं वहां पहुंचा तो शानदार आयोजन व्यवस्था के देखकर दंग रह गया ।क्या शानदार आयोजन था जिसमें देश-विदेश से आये प्रतिभागियों के लिए कई जगह फ्रूट,जूस,टी,काफी,वाटर आदि के काउंटर लगे हुए थे ।  मध्यम-मध्यम ध्वनि में मधुर-मधुर विदेशी संगीत बज रहा था । चौमहला पैलेस को चारों तरफ से अच्छी तरह से सजाया गया था । हर तरफ खूबसूरत देशी-विदेशी युवक-युवतियां वार्मअप करते हुए दिखाई दे रहे थे,वहां पहुंचकर मैने सोचा मैने सोचा कि मैं दौड़ पाउँ या न कम से कम ऐसी प्रतियोगिता में पार्टिसिपेट ही किया । क्योंकि मैं उन प्रोफेशनल प्रतिस्पर्धियों  के मुकाबले अपने को कहीं भी नहीं पा रहा था ।
दौड़ सुबह 6 बजे से शुरू होनी थी ठीक 5.30 पर माइक से एनाउंस हुआ कि सभी लोग वार्मअप करने के लिए मंच के सामने आ जाएं । वार्मअप करीना के छम्मकछल्लो गाने की पार्श्व ध्वनि के साथ माईक के सहारे एक खूबसूरत सी पूर्व एथलीट(धावक) करवा थी । रनिंग ठीक छह बजे शुरू हो गयी,सारे लोग हमसे आगे-आगे भागने लगे मैने सुन रखा था कि मैराथन में धीरे-धीरे ही भागना चाहिए । मेरे पास कोई अनुभव तो था नहीं मैं बस उसी को फालो किये जा रहा था । लेकिन एक चीज जो मुझे रोमांचित किये जा रही थी वो थी आयोजन कमेटी की व्यवस्था । हर एक किलोमीटर पर पानी और हर दो किलोमीटर बाद फ्रूट,सॉफ्ट ड्रिंक,जूस आदि की वयव्स्था थी वो भी खड़े सदस्य हौंसला बढ़ाते हुए हाथ में सामग्री लिए दौड़ते हुए आप तक पहुंचा रहे थे । केवल इतना ही नहीं ट्रैफिक व्यवस्था को इस कदर हैंडिल किया गया था किसी प्रकार से धावकों को कोई परेशानी न हो । हर पांच किलोमीटर पर आला दर्जे के प्राथमिक उपचार की भी व्यवस्था थी और धावकों के साथ एंबुलेंस की गाड़ियां पेट्रोलिंग करती नजर आ रहीं थीं ताकि किसी आपात स्थिति से निपटा जा सके
सबसे मजेदार बात यह थी कि हर चौराहे और रास्ते पर लोग सड़क के किनारे  खड़े होकर प्रतिभागियों का हौंसला आफजाई कर रहे थे, खासकर ट्रैफिक और आंध्रा पुलिस के जवान तालियां बजाते हुए हौंसला बढ़ा रहे थे ।
मुझे पता नहीं चला कि मैने कब दौड़ पूरी कर ली वो श्रेष्ठ 20 धावकों में से आया था । मैं बहुत खुश था मेरी खुशी बिल्कुल वैसी ही थी जैसे एक कमजोर छात्र अच्छे नंबरों से पास हो जाए ।
गणमान्य व्यक्तियों द्वारा पुरस्कार वितरण का समय आ गया, शीर्ष दस विजेताओं को नगद पुरस्कार भी दिया जाना था,मुझे एक मैडल और सर्टिफिकेट देकर सम्मानित किया गया । मैं बहुत खुश था हमें घर तक छोड़ने के लिए बसों की भी वयवस्था थी ।
आप परेशान न हों मैं मेन मुद्दे की तरफ ही आ रहा हूं लेकिन मुझे लगा कि बिना इस आयोजन की बात किये हम जयपुर मैराथन की बात नहीं कर सकते ।
कुछ दिन बाद मुझे पता चला कि जयपुर में भी मैराथन दौड़ आयोजित की जा रही है, मैने सोचा मैं भी भाग लूंगा क्योंकि मेरे हौंसले पहले से ही बुलंद हो चुके थे,मुझे लग रहा था कि मैं भी दौड़ पाउंगा। दौड़ बाईस जनवरी को आयोजित होनी थी लेकिन मैं चाहकर भी इसमें भाग नहीं ले सकता था क्योकि फरवरी में मेरी छोटी बहन की शादी में मुझे घर जाना था बार-बार छुट्टी कैसे मिल पाती । मेरा कार्यक्षेत्र राजस्थान ही था इसलिए बड़ी लालसा थी जयपुर जाने की और दौड़ने की,क्योंकि एक बार पहले भी मैं जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भाग लेने के लिए जा चुका था और मुझे जयपुर शहर काफी पसंद आया था । मैने अपने मन को जैसे-तैसे समझा लिया और सोचा ऑफिस में ही फीड़ देख लूंगा ।
जयपुर को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने का संदेश लेकर सुबह 8 बजे रामनिवासबाग से शुरू हुई जयपुर मैराथन ने देशी और विदेशी एथलीटों को बहुत निराश किया । हॉफ मैराथन में शामिल हुए धावकों के सुबह 7 बजे से ही कड़ाके की सर्दी में कपड़े खुलवा कर खड़ा कर दिया गया,वॉलीवुड स्टारों के आने के इंतजार में इन्हे 8.10 मिनट रवाना किया गया । पहले 4 किमी तक केवल पानी की व्यवस्था की गई थी लेकिन बाकी सत्रह किमी. तक धावकों को पानी भी नसीब नहीं हुआ बेचारे बिना पानी के ही दौड़ते रहे ।इसके साथ ही रास्ते में मैराथन के दौरान कई रिक्शा चालक और ऑटो चालक नजर आये जिसके कारण धावकों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा ।
इन सबसे तंग आकर प्रतिभागियों ने मंच के सामने करीब दस मिनट तक हाय-हाय के नारे लगाकर जयपुर को मैराथन के सहारे वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने के सपने पर सवाल खड़ा कर दिया । धावकों ने आरोप लगाया कि पदक योग्यता के अनुसार नहीं दिए गये,और तो और सबसे पहले दौड़ पूरी करने वालों को यह कह दिया गया कि कार्यालय पर आ जाना,  वहां पदक मिलेगा ।
ऐसा आयोजन देखकर मुझे लगा कि चलो मैं नहीं गया तो ही अच्छा था वरना ऐसी अव्यवस्था ......
मुझे अकस्मात ही हैदराबाद मैराथन के शानदार आयोजन की याद आ गई क्या आयोजन था,जहां एथलीटों की सुविधा का खास ध्यान रखा गया था,वहीं जयपुर में मैराथन का आयोजन बाप रे ।
क्या जरूरत है ऐसे आयोजनों की जिसमें आप उचित व्यवस्था नहीं कर सकते, ऐसे कैसे आप वर्ल्ड क्लास बन सकते हो ।
मैं आशा करता हूं कि अगर अगली बार आयोजन होगा तो इन सारी कमियों को दूर कर लिया जाएगा ताकि अधिक से अधिक प्रतिभागी आ सकें और सच में हम वर्ल्ड क्लास सिटी की तरफ मजबूती से कदम बढ़ायें ।











रविवार, 22 जनवरी 2012

कैसी सदभावना

शुक्रवार को गुजरात में जो भी हुआ वो पूरी तरह से अलोकतांत्रिक था । उसे किसी भी कीमत पर सदभावना का नाम नहीं दिया जा सकता ।सारा घटनाक्रम शर्मनाक और असंवैधानिक है । एक तरफ गुजरात में नरेन्द्र मोदी जी के सदभावना उपवास की तैयारियां जोरों पर थीं तो दूसरी  तरफ सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी के खिलाफ साजिश का ताना-बाना बुना जा रहा था । 
दरअसल शबनम नरेन्द्र मोदी के सदभावना उपवास के विरोध में विरोधस्वरूप शांतिपूर्वक धरना देना चाहती थीं,जिसके लिए उन्होने प्रशासन से पहले ही इजाजत ले ली थी ।शबनम का कहना था कि 2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों में बारह सौ से अधिक निरपराध लोग मारे गये थे जिनमें अधिकतर मुसलमान थे । उन दंगों की जिम्मेदारी नरेन्द्र मोदी की थी इसलिए उन्हे कोई अधिकार नहीं कि वे वहां जाकर सदभावना उपवास का ड्रामा करें । जिसके विरोधस्वरूप शबनम उपवास के विरोध में धरना देना चाहती थीं ।
बडे आश्चर्य की बात है कि गुजरात सरकार उनसे इतना क्यों डर गयी शबनम से जो उन्हे रास्ते में ही गिरफ्तार कर लिया गया । गिरफ्तारी को लेकर शबनम का कहना था ये किसी भी तरह से लोकतांत्रिक नही ये तो पूरी तरह से फासीवाद है ।उन्होने बताया कि मोदी नहीं चाहते थे कि शबनम मीडिया के सामने आये ताकि गुजरात के लोगों को भी पता चल सके कि कोई सदभावना उपवास का विरोध क्यों कर रहा है ।लेकिन फिर भी गुजरात सरकार इस पूरे मामले को मीडिया की नजरों से नहीं बचा सकी ।
वहीं सामाजिक कार्यकर्ता,भारतीय वैज्ञानिक,मशहूर उर्दू शायर और एवार्ड विनर डाक्यूमेंटरी फिल्म मेकर गौहर रजा कहते हैं  कि ये वाकया लोकतंत्र का गला घोंटने जैसा है उनके अनुसार मोदी गुजरात मे में शान्ति नहीं सन्नाटा चाहते हैं वो भी मरघट  जैसा सन्नाटा ।  
फिलहाल बात कुछ भी हो राज्य सरकार द्वारा विरोध को दबाने और मीडिया में बात न फैल पाने  की शर्मनाक और असंवैधानिक कोशिश पूरी तरह से नाकाम हो गयी, और सदभावना उपवास का असली चेहरा सबके सामने आ गया ।
इस गिरफ्तारी से शबनम को वो मिला जो शायद धरने पर बैठकर नहीं मिल पाता, शबनम यही चाहती थीं कि गोधरा के सदभावना की असलियत सबके सामने आये और इस प्रकरण से गुजरात ही नहीं पूरे देश के सामने असलियत सामने आ गयी ।
इसका फायदा शबनम को वैसे ही मिला जैसे यूपी चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को ।यूपी चुनाव में आयोग द्वारा हाथियों को ढके जाने के फैसले से जितना फायदा मायावती को हुआ, उतना शायद खुले हाथियों की मूर्तियों से न हो पाता ।
कुल मिलाकर गुजरात सरकार और पुलिस की इस कारस्तानी को किसी भी कीमत पर ज़ायज़ नहीं ठहराया जा सकता,किसी भी तरह से इसे लोकतांत्रिक नही कहा जा सकता ।

आईए अब हम आपको पूरा घटनाक्रम दिखाते हैं कि कैसे क्या हुआ....
कृपया इस लिक पर क्लिक करें

http://youtu.be/f_gl033V09A



ये फुटेज गुजरात के ही एक दोस्त के सहयोग से मिल सकी है, मैं उसका आभार प्रकट करता हूं ।


शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

ऐसा कब तक चलेगा..

पिछले कई महीनों से मैं हैदराबाद में जॉब कर रहा हूँ, यहां आये दिन अलग तेलंगाना प्रदेश बनाने की मांग को लेकर हंगामा होता रहता है । लगभग हर माह दस से पन्द्रह दिनों में औसतन एक बार बन्द हो ही जाता है ।
ऐसा पिछले कितने ही वर्षों से चला आ रहा है, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात । प्रदर्शनकारियों की तेलंगाना को आन्ध्रप्रदेश से अलग राज्य बनाने की मांग से सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती।
आये दिन यहाँ पर आन्दोलन होते रहते हैं, पता चला कभी बस बन्द है तो कभी ऑटो सेवा,कभी कर्मचारियों की हड़ताल तो कभी किसी की हड़ताल ।
कहने का मतलब अगर आप राजनेता हैं,बड़े व्यवसायी हैं या फिर सभी साधनों से संपन्न हैं तो आप पर बन्द का कोई असर नहीं पड़ने वाला । आपको पता भी नहीं चलेगा कि आज बन्द है, हां यह जरुर है कि आपको शायद दौड़ते-भागते किसी बस का इन्तजार करते सामान्य लोग न दिखाई पड़ें ।
जहां तक मेरा मानना है,आप ऐसे कितने ही प्रदर्शन करते रहेंगे पर शायद किसी पर प्रभाव पड़े । हां अगर प्रभाव पड़ेगा भी आम जनमानस पर । बन्द से परेशानी तो आम लोगों को ही होती है,सारे निजी वाहन चलते रहते हैं,केलल पब्लिक ट्रांसपोर्ट प्रभावित होता है ।
ये कैसा बन्द है भाई ,रोज-रोज बन्द करने से अच्छा है एक ही बार में पूरी तरह से बन्द कर दो । क्योकि मेरा मानना है कि बार-बार मरने से एक ही बार में मर जाना अच्छा होता है ।
मैं उत्तरप्रदेश का रहने वाला हूं,मुझे याद है कि जिस दिन हमारे यहां बन्द होता है उस दिन सड़क,बाजार,हाट सब कुछ बन्द रहता है चारों तरफ सन्नाटा ही सन्नाटा दिखाई देता है । अगर कहीं कुछ दिखता है तो केवल आंदोलनकारी और पुलिस ही दिखती है । उन आन्दोलनकारियों में एक दृढ निश्यय होता है अन्ना हजारे की तरह, न कि बाबा रामदेव की तरह । मांगे पूरी होने तक पुलिस के डन्डे खाते हैं या फिर जेल जाते हैं,मगर ड़टे रहते हैं
 मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि एक घटना का मैं खुद प्रत्यक्षदर्शी था ,18 सितम्बर को बन्द के दौरान मैं बस से ऑफिस जा रहा था,रास्ते में एक जगह कुछ तेलंगाना समर्थक प्रदर्शनकारी जाम लगाये हुए थे । तभी वहां सॉयरन बजाती एक पुलिस जिप्सी तेजी से आई और उसमें से ड़ण्डे लेकर दस-बारह जवान बाहर कूदते ही प्रदर्शनकारियों पर झपट पड़े । देखते ही देखते कुछ ही देर में सारे प्रदर्शनकारी पानी की काई की भांति,पता नहीं चला कहां गायब हो गये ।हम सबकी हंसी छूट गयी प्रदर्शनकारियों के हौसले को देखकर ।
मुझे लगता है अगर आप प्रदर्शन किसी भी सामान्य मुद्दे को लेकर तो भी आपको संगठित एवं गृढ निश्चयी होना चाहिए फिर तेलंगाना तो इतना बड़ा मुद्दा है । कुछ ऐसा करो कि इस रोज-रोज के बन्द से लोगों को मुक्ति मिल सके और सामान्य जीवन निर्बाध रूप से चल सके । इससे सरकार पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ता अगर कोई प्रभावित होती है तो बस लुटी-पिटी जनता ही,जिसके लिए आप यह सब करना चाहते हैं ।कुछ लोग तो ऐसे हैं जो रोज काम करके ही अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं,बन्द के कारण सबसे ज्यादा दिक्कत उन्हे और देश के भविष्य कहे जाने वाले मासूम बच्चों को ही होती है, उनका स्कूली जीवन प्रभावित होता है ।
यही कारण है पिछले कई दिनों से तेलंगाना की मांग जोर पकड़ तो रही है पर कोई निष्कर्ष नहीं निकल पा रहा है ।
मेरे गुरूजी कहा करते थे-
                  अगर डूब के मरना ही है तो समुद्र में ड़ूबों न कि तालाब में, अर्थात पूरे एक बार में पूरे मनोबल के साथ प्रदर्शन करो,नहीं तो छोड़ो यह सब और खुद जियो और जीने दो ।

बुधवार, 14 सितंबर 2011

यात्री और रेलवे

क्या भारत में रेलवे यात्रियों को अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षा मुहैया हो पायेगी । इसकी दिलासा तो सभी जिम्मेदार लोग दिलाते है कि अब ऐसा नहीं हो पायेगा,पर लगभग महीने में एक न एक हादसा हो ही जाता है। जो रेलवे व्यवस्था की पोल खोलते नजर आते हैं । आजकल रेलवे में यात्रा करना बहुत ही भयावह लगता है,ड़र लगा रहता है कि हम गंतव्य तक सुरक्षित पहुँच भी पायेंगे या नहीं,पता नहीं किसकी लापरवाही के चलते एक भयानक हादस हो जाये ।
अभी कुछ दिन पहले ही यूपी में भयंकर रेल हादसा हुआ था जिसमें कई यात्रियों की मौत हो गयी थी ।
मंगलवार को फिर से चेन्नई में रेल हादसा हुआ जिसमें 30 से ज्यादा लोग मौत के गाल में समा गये और 90 से ज्यादा घायल हो गये ।
आखिर कब तक रेलवे यात्रियों के खून से रेलवे का इतिहास लिखा जाता रहेगा,कब ऐसी कोई व्रयवस्था आयेगी जब हर रेल यात्री और उसका परिवार यात्रा करने से पहले कम से कम यह तो सोंच सके कि वह या यात्रा कर रहा उसका परिवार सुरक्षित है और सकुशल अपनी मंजिल तक पहुँच सकेगा....।

सोमवार, 12 सितंबर 2011

कहीं खुशी कहीं गम

    कल का दिन भारतीय खेल प्रेमियों के लिए " कहीं ख़ुशी कहीं गम " भरा रहा | एक तरफ भारतीय हाकी टीम,जिसने अपने चिर-प्रतिद्वंदी पाकिस्तान को ४-२ से रौंदकर एशियाई चैम्पिंशिप की ट्राफी अपने नाम कर  ली |वहीँ दूसरी ओर भारतीय क्रिकेट टीम एक के बाद एक मैच हारकर अपनी इज्जत का फालूदा बनाने पर तुली है |जब भारतीय टीम इंग्लैंड दौरे पर गयी थी,टेस्ट रैंकिंग में नम्बर एक टीम थी, लेकिन इंग्लैंड ने भारतीय टीम की लुटिया डुबोने में कोई कसर नही छोड़ी |
   टेस्ट सीरीज में टेस्ट सीरीज में इंग्लैण्ड ने भारतीय टीम से  ताज के साथ-साथ लाज भी लूट ली,इस सीरीज में भारतीय टीम कोई भी मैच जीतना तो दूर की बात है किसी भी मैच में संघर्ष तक नहीं कर सकी । इंग्लैण्ड दौरे से पहले किसी ने सोचा भी नही था कि विश्व चैम्पियन टीम का यह हस्र होगा,ऐसा शर्मनाक प्रदर्शन करेगी । हार का सिलसिला यहीं पर नहीं थमा,एक मात्र ट्वेन्टी मैच में भी हराने के साथ ही एकदिवसीय श्रंखला भी इंग्लैण्ड ने अपने नाम कर ली ।
भारतीय हॉकी टीम ने एशियाई चैम्पियनशिप जीतकर खेलप्रेमियों को खुश होने का सुनहरा अवसर दिया ।हालांकि हॉकी राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद वह सम्मान हासिल नहीं कर सकी जिसकी वह हकदार है,ऐसे भी कह सकते हैं हम कि भारतीय हॉकी खेल का हाल अपनी राजभाषा जैसा हो गया है। राजनीति और भेदभाव से ग्रसित अपनी खोई पहचान को तलाशती हॉकी टीम ने चीन में चल रही एशियन चैम्पियनशिप जीतकर अपनी क्षमता का लोहा मनवाया है । यह अजीब बिडम्बना ही है कि हॉकी टीम के खिलाड़ी देश के लिेए खेलकर भी वह शोहरत नहीं हासिल कर पा रहें हैं,जिसके वे सही मायनों में हकदार हैं ।
राष्ट्रीय हॉकी टीम  के सारे खिलाड़यों को बहुत कम लोग ही जानते होंगे जबकि वहीं क्रिकेट टीम खिलाड़ियों यहां तक कि बेंच स्ट्रेथ को बहुतायत संख्या में लोग जानते हैं । अगर हम यह कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि दर्शक हर खिलाडी के बारे में इतना  जानता है कि वह खुद बिना चयनकर्ताओं से अच्छी टीम चुन लेगा ।
इसका मतलब यह है नहीं कि मुझे क्रिकेट या क्रिकेट खिलाड़ियों से कोई भेदभाव है बल्कि मुझे भी क्रिकेट बहुत पसंद है ।
आज जरुरत यह है कि जैसे हम क्रिकेट खिलाड़ियों को सर आंखों पर बिठाते हैं वैसे ही इनको भी बैठाने की जरुरत है,तब देखना हॉकी टीम कहां से कहां से पहुंच जाती है ।
इस विषय पर मीड़िया को ध्यान देना होगा,उसे भी लोगों के बीच में हॉकी टीम के खिलाड़ियों और उनके प्रदर्शन को हाईलाइट करना पड़ेगा । पता चला कहीं हॉकी मैच हो रहें हैं लोगों को पता तक नहीं एक बार खेल प्रष्ठ पर बॉटम स्टोरी छप गयी तो छप गयी । जबकि वहीं क्रिकेट टीम कहीं अगर पैक्टिस मैच भी खेलती है तो चार दिन पहले से खबर आने लगती है ।
आज हमारे हॉकी टीम,हॉकी प्लेयर को वही सब जरुरत है ताकि आगे आने वाली पीढ़ी एक नये जोश के साथ तैयार हो सकें । सरकार को भी हॉकी की दशा सुधारने के लिेए उचित ध्यान देने की जरुरत है तभी हम अपने राष्ट्रीय खेल को आगे ले जा सकेंगे ।

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

भारत तेरी यही कहानी

आज एक बार फिर से वही कहानी दोहराई गयी,एक और बम धमाका,एक और दर्दनाक हादसा,एक बार और असहाय सरकार का असहाय बयान,झूठी सहानुभूति । सब कुछ पुराने जैसा देखने को मिला । लेकिन इस बार मृतकों और घायलों की संख्या में थोड़ा परिवर्तन देखने मिला ,इस बार ग्यारह बेगुनाहों को अपनी जान गंवानी पड़ी और लगभग सौ लोग घायल हो गये । उनका कसूर केवल इतना था कि वे उस भारत में रहते थे (जहाँ लोगों को अतिथि समझकर उनको सम्मान किया जाता ऱहा है अपनी जान देकर उनकी सुरक्षा की जाती रही है,आज उसी भारत की लगभग परिभाषा बदल सी गई है ,लोगों को खुद की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं रह गयी है ।)
वह भी दिल्ली में । जहां एक के बाद एक हादसे होते रहते हैं कभी राजनीतिक घोटाला तो कभी कभी आतंकी हमला । सरकारी नुमाइंदे,जिन पर सरकारी खजाने को लूटने के अलावा,लोगों के जान-माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी है ,उसके मंत्री,नेता धमाकों के समय कोई कैबरे में मस्त होता है तो कोई कैटवाक के मजे ले रहा होता है,तो कहीं कोई नये तरीके से देश के सबसे बड़े घोटाले को अंजाम देने की योजना बना रहा होता है ।
दूसरे शहरों की भला बात ही क्या है दिल्ली तो राजधानी है भारत की,या कहें दिल है भारत का,या फिर यह कहें दिल्ली वह शहर है जहाँ एक से बढ़कर एक छोटे-बड़े नेता सुरक्षा के कसीदे पढ़ते मिल जायेंगे ।
ये तो भला हो आतंकियों का कि हर बार दिल्ली,मुंबई जैसे महानगरों को ही निशाना बनाते हैं,या फिर दूसरे शब्दों में यह कहें कि हर बार सीने पर आकर वार करते हैं । क्योंकि यदि आप दिल्ली,मुंबई जैसे सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत शहरों की सुरक्षा नहीं कर सकते तो आम शहरों की बिसात ही क्या है..ऐसा लगता है जैसे आतंकी हर बार हमें मुँह चिढ़ाकर चले जाते है्ं और हम छोटे बच्चों की तरह पड़ोस वाले अंकल के घर शिकायत लेकर पहुँच जाते है । हमारे स्वायम्भू कर्णधार हमले में हुई चूक ढ़ूढ़ने के बजाय दूसरों पर आरोप लगाने से नहीं चूकते ।
पक्ष हो या विपक्ष आतंकी हमले पर केवल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिेए एक दूसरे पर आरोप लगाते रहते है्ं । शासन की तरफ से एक रटा-रटाया थका सा भाषण दे दिया जाता है,घायलों और मृतकों के परिजनों को चन्द पैसों का झुनझुना पकड़ा दिया जाता है और हम फिर से एक नये हमले, एक नये घोटाले का इन्तजार करने लगते हैं ।
आखिर कब तक यू्ं ही भारत का सीना छलनी होता रहेगा,कब तक आतंकी बेधड़क यूं ही भारत में मौत का नंगा नाच खेलते रहेंगे और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे,कब तक 'मुझे बचाओ-मुझे बचाओ' कहकर पश्चिचमी देशों के तलवे चाटते रहेंगे और कब हमारे खेवनहारों में इतनी हिम्मत आयेगी कि वे आतंक के खिलाफ कोई ठोस कदम उठा सकें । क्या सचमुच हम इतने कमजोर हो गये हैं कि अपनी सुरक्षा खुद नहीं कर सकते,या फिर जंग लग गयी है हमारे पूरे सिस्टम को या फिर कर्णधारों के पास फुरसत नहीं है देश की तरफ सोचने,देखने की ।
राजनीतिज्ञों के संबंध में बचपन में मेरा एक मित्र कहा करता था जो अब सही लगती है..
     रुपयों की लूट है लूट सके तो लूट
    अंत समय पछतायेगा जब कुर्सी जायेगी छूट ।
आतंकी हमलों के समय हमारे गृहमंत्री जी सोते रहते हैं,कभी रामदेव और उनके निरपराध समर्थकों को आधी रात के समय पीट-पीटकर भगा दिया जाता है,तो कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने वाले अन्ना और उनके समर्थकों को जेल में भर दिया जाता है । लेकिन जब सरेआम दिनदहाड़े आतंकी हमला होता है,कई मासूमों को अपने परिवारों से और जान से हाथ धोना पड़ता है,कईयों के सुहाग मिट जाते हैं और कई बूढे मां-बाप अपने जीवन के इकलौते सहारे को खो देते हैं । तब कहां चले जाते हैं हमारे सियासी शेर,आखिर कब तक हम इन निरपराध बेगुनाहों के खून से धरती को लाल होते देखते रहेंगे, कौन है इस सबका असली जिम्मेदार,'आतंकी' या सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार हमारे अधिकारी और नेतागण । आखिर कब हमारे गृहमंत्री साहब जागेंगे और कोई ठोस रणनीति बनाने की  कोशिश करेंगे ।
आज अगर भारत जैसा विशाल लोकतांत्रिक देश आतंकी हमलों से जूझ रहा है तो इसका श्रेय हमारे शासन तंत्र या कह लीजिए भ्रष्ट तंत्र को ही जाता है न कि आतंकियों को,वो तो हमे आईना दिखा रहें हैं और हमारी सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोल रहे हैं ।
हमारे देश में भ्रष्टाचार की मुहिम चलाने वाले अन्ना को गिरफ्तार कर,रामदेव और उनके समर्थकों को आधी रात में मार भगाना बहुत आसान है । लेकिन सरकार कई लोगों की सरेआम जान लेने वाले आतंकियों का बाल-बांका भी नहीं कर पाती । कसाब,अफजल गुरू और खूंखार आतंकियों के खिलाफ भारत सरकार कितनी मजबूर है,उन पर सालों से मुकदमें चल रहें हैं,आज भी उन पर आम कैदियों की अपेक्षा कई गुना ज्यादा पैसे खर्च कर उन्हे सरकारी दामाद बनाये हुए है । वो कई बेगुनाह भारतीयों की जान लेकर भी भारत की ही जेल में मजे कर रहें हैं,उन्हे देखकर हमारा खून क्यों नहीं खौलता,क्यों इतने लाचार हो गये हैं हम.. 
यहाँ पर लक्ष्मण जी द्वारा कही एक चौपाई चरितार्थ होती है--- 
                           कादर मन कहुँ एक अधारा
                           दैव-दैव आलसी पुकारा ।।
जब तक हम खुद से कुछ नहीं करेंगे,कोई ठोस कदम नहीं उठायेंगे तब तक यूं ही खूनी खेल खेला जाता रहेगा,और हम लाचार मूक-दर्शक की भांति केवल देखते भर रहेंगे । जो देश या प्रशासन अपने नागरिकों की हिफाजत नहीं कर सकता उसे सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है ।
जिनके पास हम अपना दुखड़ा लेकर रोने जाते हैं क्या हमें उनसे सीख नहीं लेनी चाहिेए ।अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर एक बार हमला होता है,एक ही हमले से अमेरिकी सरकार,जो अपने नागरिकों के प्रति संवेदनशील है,बदले में अमेरिका ने ऐसी कार्रवाई की जिसे हम सब जानते हैं ।
आज हममें इतनी हिम्मत क्यों नहीं कि हम खुद अपने दुश्मनों को सबक सिखा सकें । अगर हमने शीघ्र ही कोई ठोस कदम नहीं उठाये तो वह दिन भी दूर नहीं जब हमारी हालत पाकिस्तान,अफगानिस्तान जैसी हो जायेगी ।
आज हमारा भारत देश बाहरी और भीतरी दोनो ही तरह के दुश्मनों के मकड़जाल में फंसता जा रहा है । ऐसा लगता है जैसे यह तन्त्र देश और नागरिक सुरक्षा के मामले में बिल्कुल ही संवेदनहीन हो गया है या फिर नपुंसक...