रविवार, 22 जनवरी 2012

कैसी सदभावना

शुक्रवार को गुजरात में जो भी हुआ वो पूरी तरह से अलोकतांत्रिक था । उसे किसी भी कीमत पर सदभावना का नाम नहीं दिया जा सकता ।सारा घटनाक्रम शर्मनाक और असंवैधानिक है । एक तरफ गुजरात में नरेन्द्र मोदी जी के सदभावना उपवास की तैयारियां जोरों पर थीं तो दूसरी  तरफ सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी के खिलाफ साजिश का ताना-बाना बुना जा रहा था । 
दरअसल शबनम नरेन्द्र मोदी के सदभावना उपवास के विरोध में विरोधस्वरूप शांतिपूर्वक धरना देना चाहती थीं,जिसके लिए उन्होने प्रशासन से पहले ही इजाजत ले ली थी ।शबनम का कहना था कि 2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों में बारह सौ से अधिक निरपराध लोग मारे गये थे जिनमें अधिकतर मुसलमान थे । उन दंगों की जिम्मेदारी नरेन्द्र मोदी की थी इसलिए उन्हे कोई अधिकार नहीं कि वे वहां जाकर सदभावना उपवास का ड्रामा करें । जिसके विरोधस्वरूप शबनम उपवास के विरोध में धरना देना चाहती थीं ।
बडे आश्चर्य की बात है कि गुजरात सरकार उनसे इतना क्यों डर गयी शबनम से जो उन्हे रास्ते में ही गिरफ्तार कर लिया गया । गिरफ्तारी को लेकर शबनम का कहना था ये किसी भी तरह से लोकतांत्रिक नही ये तो पूरी तरह से फासीवाद है ।उन्होने बताया कि मोदी नहीं चाहते थे कि शबनम मीडिया के सामने आये ताकि गुजरात के लोगों को भी पता चल सके कि कोई सदभावना उपवास का विरोध क्यों कर रहा है ।लेकिन फिर भी गुजरात सरकार इस पूरे मामले को मीडिया की नजरों से नहीं बचा सकी ।
वहीं सामाजिक कार्यकर्ता,भारतीय वैज्ञानिक,मशहूर उर्दू शायर और एवार्ड विनर डाक्यूमेंटरी फिल्म मेकर गौहर रजा कहते हैं  कि ये वाकया लोकतंत्र का गला घोंटने जैसा है उनके अनुसार मोदी गुजरात मे में शान्ति नहीं सन्नाटा चाहते हैं वो भी मरघट  जैसा सन्नाटा ।  
फिलहाल बात कुछ भी हो राज्य सरकार द्वारा विरोध को दबाने और मीडिया में बात न फैल पाने  की शर्मनाक और असंवैधानिक कोशिश पूरी तरह से नाकाम हो गयी, और सदभावना उपवास का असली चेहरा सबके सामने आ गया ।
इस गिरफ्तारी से शबनम को वो मिला जो शायद धरने पर बैठकर नहीं मिल पाता, शबनम यही चाहती थीं कि गोधरा के सदभावना की असलियत सबके सामने आये और इस प्रकरण से गुजरात ही नहीं पूरे देश के सामने असलियत सामने आ गयी ।
इसका फायदा शबनम को वैसे ही मिला जैसे यूपी चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को ।यूपी चुनाव में आयोग द्वारा हाथियों को ढके जाने के फैसले से जितना फायदा मायावती को हुआ, उतना शायद खुले हाथियों की मूर्तियों से न हो पाता ।
कुल मिलाकर गुजरात सरकार और पुलिस की इस कारस्तानी को किसी भी कीमत पर ज़ायज़ नहीं ठहराया जा सकता,किसी भी तरह से इसे लोकतांत्रिक नही कहा जा सकता ।

आईए अब हम आपको पूरा घटनाक्रम दिखाते हैं कि कैसे क्या हुआ....
कृपया इस लिक पर क्लिक करें

http://youtu.be/f_gl033V09A



ये फुटेज गुजरात के ही एक दोस्त के सहयोग से मिल सकी है, मैं उसका आभार प्रकट करता हूं ।


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