गुरुवार, 26 जनवरी 2012

हैप्पी गणतंत्र दिवस !

आप सभी भारतवासियों को गणतंत्र दिवस पर बहुत-बहुत बधाई । इसके अलावा और हम कर भी क्या सकते हैं, आजकल महज औपचारिकताएं भर शेष हैं । भारतीय गणतंत्र की 63वीं वर्षगांठ पर संसदीय लोकतंत्र के भविष्य पर विचार करते हुए को आशातीत तस्वीर नज़र नहीं आती ।
औपनिवेशवादी गुलामी से मुक्त हुए देशों में शायद यह अकेला देश है जिसने लम्बे 6 दशकों से भी अधिक समय से अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाये रखा है। यह अपने को दुनिया को सबसे बड़ा बड़ा लोकतांत्रिक कहलाने का गौरव भी हासिल किये हुए है । यह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे बड़ी सामरिक शक्ति में भी दुनिया में चौथा स्थान रखती है । बावजूद इसके हमारा गणतंत्र फूटतंत्र और लूटतंत्र में तब्दील होता जा रहा है । इसके ऱखवाले ही ही इसे जाति,धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर छिन्न-भिन्न करने में लगे हैं ।
आज नौकरशाहों और राजनेताओं की विचारधारा में उनका स्वार्थीपन झलकता है । पहली पीढ़ी के  नेताओं ने देश के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किये थे लेकिन दूसरी पीढ़ी के नेताओं के हाथ में सत्ता आते ही नैतिक मूल्यों और आदर्शों के पतन का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अभी तक जारी है । कहने को हम तो कह सकते हैं कि भाषा,जाति और संस्कृति अर्थात अनेकता में एकता हुए भी देश में लोकतंत्र बना हुआ है । पिछले साठ सालों में हमारी लोकतांत्रिक राजनीति का इतना पतन हो गया है कि अपराधी और माफिया जिनके पूरे हाथ खून से रंगे हैं जो आकंठ तक अपराधों में डूबे हुए हैं, विभिन्न दलों में प्रवेश करके जनता के भविष्य निर्माता बन बैठे हैं । सत्ता उनके पास चली गई है जिन्होने अभी तक आम आदमी का खून ही चूसा है,उन्ही के कंधों पर जनता की जिम्मेदारी है । जिन्होने अभी तक जनता में भय ही फैलाया है जनता को लूटा ही है उन्ही पर जनता को भयमुक्त करने की जिम्मेदारी है । आज के लोकतंत्र को बेईमान लोगों ने राहु की तरह ग्रसित किया हुआ है और जो येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल कर निजी स्वार्थों को पूरा करने में लगे हुए हैं । कहने को तो जनता के हैं पर जनता की पहुंच से दूर कमांड़ोज के घेरे में रहते हैं, इन अवसरवादी लोगों का जनता के साथ दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है । सबसे खतरनाक स्थिति तो यह है कि जो लोग कायदे कानून से अपनी बात शांतिपूर्वक कहना चाहते हैं उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती है कोई भी उनकी समस्याओं को सुनने वाला नहीं है, इसी लिए लोग छोटी बड़ी बातों पर भी हिंसा के लिए उतारू हो जाते हैं । इस लगातार बढ़ते सामाजिक असंतोष का फायदा नक्सली,आतंकवादी और असामाजिक तत्व बखूबी उठा रहे हैं ।
एक बहुत बड़ा प्रश्न हमारे लोकतंत्र के सामने मुँह उठाये खड़ा है कि हमें कैसा भारत चाहिए कैसा लोकतंत्र चाहिए...जिसमें नागिरक अपने द्वारा ही चुने गये लोगों से ड़रें या वह भारतीय लोकतंत्र चाहिए जिसमें सभी को समानता का अधिकार,सभी को उचित न्याय सभी की आवश्यक जरूरतों को पूरा किया जा सके ।
मुझे लगता है राजनीतिक लोकतंत्र का तब तक कोई मतलब नहीं जब तक कि आर्थिक लोकतंत्र न हो । लोकतंत्र के पिछले वर्षों में देश ने तरक्की की जिन बुलंदियों को छुआ, हमारे नौकरशाहों और राजनेताओं ने उससे कहीं ऊंची-ऊंची भ्रष्टाचार की मीनारें खड़ी की हैं । लेकिन दुखद आश्चर्य यह है कि अब भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को जरा भी शर्म नहीं आती है जो निश्चय ही समाज के क्षयग्रस्त होने का परिचायक है ।
किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की सफलताओं और असफलताओं का मापदंड़ तो आम आदमी के लिए रोटी,कपड़ा,मकान,शिक्षा और रोजगार की उपलब्धता ही होगी । स्वार्थी लोगों के चलते हमारे देश की जनता इन मूलभूत सुविधाओं से कोसो दूर है,आज भी लोग चिकित्सा,गरीबी और भुखमरी के चलते तड़प-तड़प कर मरने को विवश हैं ।
इन सबके जिम्मेदार नौकरशाहों और राजनेताओं को इन समस्याओं से कोई मतलब नहीं है उनका तो पूरा ध्यान भ्रष्टाचार के नये-नये रिकॉर्ड कायम करना है । आज स्थिति ऐसी है आम नागरिक भ्रमित है किसे चुने किसे अपना कहे, वह समझ नहीं पा रहा है कि मौजूदा समय में राजनीति में लोकतंत्र के ज्यादा पक्षधर हैं या लूटतंत्र के ।हर कोई मौका मिलते ही अपनी औकात से बड़ा घोटाला करने को तैयार बैठा है कि कब मौका मिले कब दूसरे से बेहतर और बड़ा घोटाला कर सके ।
आज हमारे लोकतांत्रिक देश के सामने अंदरूनी के साथ-साथ बाहरी समस्याएं सुरसा की तरह मुँह फैलाये खड़ी हैं । पड़ोसी मुल्को से लगातार भारत विरोधी आतंकी साजिश होती रहती हैं चाहे वह पाकिस्तान हो या बांग्लादेश कोई भी पीछे नहीं है । उधर चीन अक्सर अपनी कुटिल चालों व सैनिक कार्यवाही कार्यवाई से हमारे जख्मों को कुरेदते रहता है लेकिन हम चुपचाप एक कमजोर,कायर की भांति कुंड़ली मारे बैठे रहते हैं क्यों ..
दरअसल हमारी सरकार आपस के ही मुद्दों में इतनी उलझी रहती है कि वह गणतंत्र को बचाये या अपने गठतंत्र को, कभी गठबंधन टूटने का खतरा तो कभी सहयोगी मिलकर इतना बड़ा घोटाला करते हैं कि सरकार उसी में लगी रहती है कि क्या करें । इन सबसे अलग उसे सोचने का समय ही नहीं मिलता कि वो पड़ोसियों के बारे में कोई ठोस रणनीति बनाये । अगर सोचने की कोशिश भी करता है तो अपने और विपक्षी दल टांग खींचने को तैयार बैठे हैं ।
आज हमारे लोकतंत्र के सामने विदेशी रणनीति के अलावा कई तरह की बुनियादी समस्यायें जैसे शिक्षा,गरीबी,चिकित्सा,बेरोजगारी,कुपोषण,आतंकवाद और नक्सलवाद  जैसी समस्याएं मुंह बाये खड़ी हैं । जब तक हम इन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने करने के प्रयास नहीं किये जाते तथा भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई जाती तब तक लोकतंत्र की बधाई देना महज औपचारिकता भर है, केवल झंड़े फहराने भर से कुछ नही हो सकता ।


                             

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

रुश्दी पर खेल

भारतीय मूल के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी जयपुर के साहित्य सम्मेलन में शिरकत नहीं कर सके या करने नहीं दिया गया अलग बात है । लेकिन भारत यात्रा को लेकर देश के मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा खड़ा किया गया विवाद और राज्य सरकार या कहिए चुनावी राजनीति के चलते भारत सरकार की प्रतिक्रिया ने पूरी दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा को गिराया है ।
रुश्दी को मिडनाइट चिल्ड्रेन उपन्यास के लिए प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है,लेकिन उनकी 1988 में प्रकाशित द सैटेनिक वर्सेज के कारण पूरी दुनिया के मुस्लिम समुदायों के कोप का भाजन बनना पड़ा है । यह बात अलग है उनकी अन्तर्राष्टट्रीय प्रसिद्ध के लिए इस विवादित उपन्यास की महती भूमिका रही है ।
इस उपन्यास के प्रकाशन के तुरंत बाद ही ईरान के सर्वोच्च इस्लामिक नेता अयोतुल्लाह खुमैनी ने उनकी मौत का फतवा जारी कर दिया था । तब से आज तक रुश्दी का थोड़ा बहुत विरोध भारत में भी होता रहा है ।यह बात अलग है कि प्रतिबंध के बावजूद 2002 और 2007 में भारत की यात्रा कर चुके हैं, वो भी 2007 में तो इन्होने बाकायदा जयपुर के ही साहित्य सम्मेलन में शिरकत की थी । तब उनकी यात्रा का विरोध नहीं हुआ था क्यो....
 क्योंकि अब 2012 में देश के 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं जिसमें उत्तरप्रदेश जैसा राज्य भी है जहां से होकर ही केन्द्र का रास्ता जाता है, और जहां पर मुस्लिम वोटों का खासा महत्व है ।
इस राजनीति का ही चक्कर है कि देश के सर्वोच्च इस्लामिक संगठन दारुल उलूम देवबंद के मुखिया मौलाना अब्दुल कासिम नोमानी ने मौका देखते हुए केन्द्र सरकार से मांग की, रुश्दी को साहित्य सम्मेलन में आने से रोका जाए , इस मांग से सरकार सकते में आ गयी लेकिन चुनावी समीकरणों को देखते हुए इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाई कि मौलाना साहब से पूछे यदि 2002 और 2007 में रुश्दी के भारत आने से भारतीय मुसलमानों को कोई तकलीफ नहीं हुई थी तो फिर अब क्यूं है...
इस संवेदनशील मुद्दे को लेकर गहलोत समेत सभी कांग्रेसी दिग्गजों ने दिल्ली में इकट्ठे होकर समस्या पर विचारकिया कि क्या किया जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। क्योंकि केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के युवराज राहुल गांधी की प्रतिष्ठा इस बार उत्तरप्रदेश के चुनाव में पूरी तरह से दांव पर लगी है ।
तभी खबर आती है कि रुश्दी ने सुरक्षा कारणों से खुद ही अपनी यात्रा रद कर दी,उन्हे राजस्थान पुलिस के गुप्त सूत्रों ने बताया कि कुछ माफिया संगठनों ने उनकी हत्या के लिए भाड़े के हत्यारों को सुपारी दे रखी है । मेरी समझ से परे है जब आतंकी हमले या कोई अन्य बड़ी वारदात हो जाती है तबतक सोनेवालीं गुप्तचर एजेंसियां इतनी सजग... भाई कमाल है...।  
यहां पर उल्लेखनीय है कि एक तरफ तो गुप्तचर एजेंसियों ने रुश्दी को उनकी हत्या की सूचना देकर डराने की कोशिश की जिससे वे इस मेले से दूर ही रहें, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस के महासचिव दिग्गी राजा कहते हैं रुश्दी को भारत में आने से रोका किसने...अब यदि वे ड़र के कारण आयोजन में नहीं आये तो इसमें सरकार की क्या गलती...। उनके इसी बयान के बाद मुंबई पुलिस का कहना है कि सुपारी के मामले में उसे कोई जानकारी नहीं है। जाहिर है यह सब केन्द्र सरकार की योजना का ही कमाल है कि वह रुश्दी को रोकने का कोई स्पष्ट आदेश तो नहीं देना चाहती थी, पर उसकी मंशा मुसलमानों तक यह संदेश अवश्य पहुंचाना था कि देखो सरकार तुम्हारा कितना ख्याल रखती है ।
खासकर अब जब रुशदी ने यह आरोप लगाते हुए ट्विटर पर लिखा है कि उन्होने इसकी जांच कर ली है और उन्हे पता चला है कि सुपारी वाली बात बिल्कुल ही कल्पित थी जिसके लिए उन्होने राजस्थान पुलिस को दोषी ठहराया है ।
खैर अब यह सम्मेलन तो समाप्त हो चला है किन्तु अभी भी एक असल सवाल मुंह बाये खड़ा है कि रुश्दी को भारत में आने से रोकने में मुख्य भूमिका किसकी थी...किसके इशारे पर रुश्दी की हत्या के खतरे का नाटक रचा गया... सारा का सारा आरोप राजस्थान पुलिस के मत्थे मढ़ा जा रहा है,लेकिन यह बात समझ से परे है कि पुलिस अपने स्तर पर इतना बड़ा कदम कैसे उठा सकती है वह तो राज्य सरकार का हथियार है । वह अकेले इतना बड़ा निर्णय कैसे ले सकती है वो भी ऐसे समय में जब सारी दुनिया की नज़रें राजस्थान पर लगी हों । ऐसे मामले में उंगली गहलोत सरकार की तरफ़ घूमना स्वाभाविक है । संभव है केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा उत्तरप्रदेश के चुनावों के मद्देनज़र यह निर्णय लिया गया हो  ।

अब यह पूरी तरह से अनुमान का विषय है कि रुश्दी को रोकने में अपवाह फैलाने का निर्णय किसके इशारे पर दिया गया था ।
लेकिन इस तरह की राजनीतिक व प्रशासनिक चालें देश और उसकी प्रतिष्ठा के लिए बहुत घातक और विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाने वाली हैं ।
आज रुशदी की वीडियो कांफ्रेंसिंग होनी थी जो कि विरोध के कारण टल गयी है, जिसमें उम्मीद की जा रही थी कि वे साहित्य सम्मेलन में न आ पाने का दर्द बयां करेंगे और बताएंगे कि उनको कैसे आने से रोका गया ।



सोमवार, 23 जनवरी 2012

जयपुर मैराथन

मैने पहली बार किसी मैराथन में डरते-डरते भाग लिया था वो भी हैदराबाद मैराथन में । मुझे पता नहीं था कि मैं दौड़ भी पाउंगा या नहीं, क्योंकि मैने नेट पर देखा था हैदराबाद मैराथन में देश-विदेश से आये कई एथिलीटों ने रजिस्ट्रेशन करवाया हुआ था ।मुझे ऑफिस के बाद इतना समय नहीं मिलता है कि किसी प्रकार से तैयारी कर सकूं,एक तो 11 घंटे ऑफिस के लिए ऊपर से अलग-अलग शिफ्टों का झंझट ।मेरे टाइम मैनेटमेंट की इस समस्या को मेरे वो साथी आसानी से समझ सकते हैं जो यहां काम कर रहे हैं या कर चुके हैं । फिर भी मैने जैसे-तैसे थोड़ा समय निकाल  ही लेता था क्योंकि मैने ठान लिया था कि मुझे दौड़ना है भले मैं निर्धारित दूरी तय न कर सकूं,फिर भी हिस्सा जरूर लूंगा, और इसमें मेरा साथ दिया मेरे सीनियर,रूम पार्टनर संतोष पंत ने ।
खैर वो दिन आ ही गया जब मुझे दौड़ने जाना था,मैने नेट पर ही रनिंग रूट देख लिया था ।एक दिन पहले ही ऑफिस जाकर मैंने बीआईबी नंबर और किट ले लिया था ।दौड़ चौमहला पैलेस से होकर कुतुबशाही तक जानी थी,चौमहला पैलेस तक ले जाने के लिए आयोजकों ने सुबह 3 बजे ही बस भेज दिया था जो हमें गंतव्य स्थान तक लेकर गयी थी ।जब मैं वहां पहुंचा तो शानदार आयोजन व्यवस्था के देखकर दंग रह गया ।क्या शानदार आयोजन था जिसमें देश-विदेश से आये प्रतिभागियों के लिए कई जगह फ्रूट,जूस,टी,काफी,वाटर आदि के काउंटर लगे हुए थे ।  मध्यम-मध्यम ध्वनि में मधुर-मधुर विदेशी संगीत बज रहा था । चौमहला पैलेस को चारों तरफ से अच्छी तरह से सजाया गया था । हर तरफ खूबसूरत देशी-विदेशी युवक-युवतियां वार्मअप करते हुए दिखाई दे रहे थे,वहां पहुंचकर मैने सोचा मैने सोचा कि मैं दौड़ पाउँ या न कम से कम ऐसी प्रतियोगिता में पार्टिसिपेट ही किया । क्योंकि मैं उन प्रोफेशनल प्रतिस्पर्धियों  के मुकाबले अपने को कहीं भी नहीं पा रहा था ।
दौड़ सुबह 6 बजे से शुरू होनी थी ठीक 5.30 पर माइक से एनाउंस हुआ कि सभी लोग वार्मअप करने के लिए मंच के सामने आ जाएं । वार्मअप करीना के छम्मकछल्लो गाने की पार्श्व ध्वनि के साथ माईक के सहारे एक खूबसूरत सी पूर्व एथलीट(धावक) करवा थी । रनिंग ठीक छह बजे शुरू हो गयी,सारे लोग हमसे आगे-आगे भागने लगे मैने सुन रखा था कि मैराथन में धीरे-धीरे ही भागना चाहिए । मेरे पास कोई अनुभव तो था नहीं मैं बस उसी को फालो किये जा रहा था । लेकिन एक चीज जो मुझे रोमांचित किये जा रही थी वो थी आयोजन कमेटी की व्यवस्था । हर एक किलोमीटर पर पानी और हर दो किलोमीटर बाद फ्रूट,सॉफ्ट ड्रिंक,जूस आदि की वयव्स्था थी वो भी खड़े सदस्य हौंसला बढ़ाते हुए हाथ में सामग्री लिए दौड़ते हुए आप तक पहुंचा रहे थे । केवल इतना ही नहीं ट्रैफिक व्यवस्था को इस कदर हैंडिल किया गया था किसी प्रकार से धावकों को कोई परेशानी न हो । हर पांच किलोमीटर पर आला दर्जे के प्राथमिक उपचार की भी व्यवस्था थी और धावकों के साथ एंबुलेंस की गाड़ियां पेट्रोलिंग करती नजर आ रहीं थीं ताकि किसी आपात स्थिति से निपटा जा सके
सबसे मजेदार बात यह थी कि हर चौराहे और रास्ते पर लोग सड़क के किनारे  खड़े होकर प्रतिभागियों का हौंसला आफजाई कर रहे थे, खासकर ट्रैफिक और आंध्रा पुलिस के जवान तालियां बजाते हुए हौंसला बढ़ा रहे थे ।
मुझे पता नहीं चला कि मैने कब दौड़ पूरी कर ली वो श्रेष्ठ 20 धावकों में से आया था । मैं बहुत खुश था मेरी खुशी बिल्कुल वैसी ही थी जैसे एक कमजोर छात्र अच्छे नंबरों से पास हो जाए ।
गणमान्य व्यक्तियों द्वारा पुरस्कार वितरण का समय आ गया, शीर्ष दस विजेताओं को नगद पुरस्कार भी दिया जाना था,मुझे एक मैडल और सर्टिफिकेट देकर सम्मानित किया गया । मैं बहुत खुश था हमें घर तक छोड़ने के लिए बसों की भी वयवस्था थी ।
आप परेशान न हों मैं मेन मुद्दे की तरफ ही आ रहा हूं लेकिन मुझे लगा कि बिना इस आयोजन की बात किये हम जयपुर मैराथन की बात नहीं कर सकते ।
कुछ दिन बाद मुझे पता चला कि जयपुर में भी मैराथन दौड़ आयोजित की जा रही है, मैने सोचा मैं भी भाग लूंगा क्योंकि मेरे हौंसले पहले से ही बुलंद हो चुके थे,मुझे लग रहा था कि मैं भी दौड़ पाउंगा। दौड़ बाईस जनवरी को आयोजित होनी थी लेकिन मैं चाहकर भी इसमें भाग नहीं ले सकता था क्योकि फरवरी में मेरी छोटी बहन की शादी में मुझे घर जाना था बार-बार छुट्टी कैसे मिल पाती । मेरा कार्यक्षेत्र राजस्थान ही था इसलिए बड़ी लालसा थी जयपुर जाने की और दौड़ने की,क्योंकि एक बार पहले भी मैं जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भाग लेने के लिए जा चुका था और मुझे जयपुर शहर काफी पसंद आया था । मैने अपने मन को जैसे-तैसे समझा लिया और सोचा ऑफिस में ही फीड़ देख लूंगा ।
जयपुर को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने का संदेश लेकर सुबह 8 बजे रामनिवासबाग से शुरू हुई जयपुर मैराथन ने देशी और विदेशी एथलीटों को बहुत निराश किया । हॉफ मैराथन में शामिल हुए धावकों के सुबह 7 बजे से ही कड़ाके की सर्दी में कपड़े खुलवा कर खड़ा कर दिया गया,वॉलीवुड स्टारों के आने के इंतजार में इन्हे 8.10 मिनट रवाना किया गया । पहले 4 किमी तक केवल पानी की व्यवस्था की गई थी लेकिन बाकी सत्रह किमी. तक धावकों को पानी भी नसीब नहीं हुआ बेचारे बिना पानी के ही दौड़ते रहे ।इसके साथ ही रास्ते में मैराथन के दौरान कई रिक्शा चालक और ऑटो चालक नजर आये जिसके कारण धावकों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा ।
इन सबसे तंग आकर प्रतिभागियों ने मंच के सामने करीब दस मिनट तक हाय-हाय के नारे लगाकर जयपुर को मैराथन के सहारे वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने के सपने पर सवाल खड़ा कर दिया । धावकों ने आरोप लगाया कि पदक योग्यता के अनुसार नहीं दिए गये,और तो और सबसे पहले दौड़ पूरी करने वालों को यह कह दिया गया कि कार्यालय पर आ जाना,  वहां पदक मिलेगा ।
ऐसा आयोजन देखकर मुझे लगा कि चलो मैं नहीं गया तो ही अच्छा था वरना ऐसी अव्यवस्था ......
मुझे अकस्मात ही हैदराबाद मैराथन के शानदार आयोजन की याद आ गई क्या आयोजन था,जहां एथलीटों की सुविधा का खास ध्यान रखा गया था,वहीं जयपुर में मैराथन का आयोजन बाप रे ।
क्या जरूरत है ऐसे आयोजनों की जिसमें आप उचित व्यवस्था नहीं कर सकते, ऐसे कैसे आप वर्ल्ड क्लास बन सकते हो ।
मैं आशा करता हूं कि अगर अगली बार आयोजन होगा तो इन सारी कमियों को दूर कर लिया जाएगा ताकि अधिक से अधिक प्रतिभागी आ सकें और सच में हम वर्ल्ड क्लास सिटी की तरफ मजबूती से कदम बढ़ायें ।











रविवार, 22 जनवरी 2012

कैसी सदभावना

शुक्रवार को गुजरात में जो भी हुआ वो पूरी तरह से अलोकतांत्रिक था । उसे किसी भी कीमत पर सदभावना का नाम नहीं दिया जा सकता ।सारा घटनाक्रम शर्मनाक और असंवैधानिक है । एक तरफ गुजरात में नरेन्द्र मोदी जी के सदभावना उपवास की तैयारियां जोरों पर थीं तो दूसरी  तरफ सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी के खिलाफ साजिश का ताना-बाना बुना जा रहा था । 
दरअसल शबनम नरेन्द्र मोदी के सदभावना उपवास के विरोध में विरोधस्वरूप शांतिपूर्वक धरना देना चाहती थीं,जिसके लिए उन्होने प्रशासन से पहले ही इजाजत ले ली थी ।शबनम का कहना था कि 2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों में बारह सौ से अधिक निरपराध लोग मारे गये थे जिनमें अधिकतर मुसलमान थे । उन दंगों की जिम्मेदारी नरेन्द्र मोदी की थी इसलिए उन्हे कोई अधिकार नहीं कि वे वहां जाकर सदभावना उपवास का ड्रामा करें । जिसके विरोधस्वरूप शबनम उपवास के विरोध में धरना देना चाहती थीं ।
बडे आश्चर्य की बात है कि गुजरात सरकार उनसे इतना क्यों डर गयी शबनम से जो उन्हे रास्ते में ही गिरफ्तार कर लिया गया । गिरफ्तारी को लेकर शबनम का कहना था ये किसी भी तरह से लोकतांत्रिक नही ये तो पूरी तरह से फासीवाद है ।उन्होने बताया कि मोदी नहीं चाहते थे कि शबनम मीडिया के सामने आये ताकि गुजरात के लोगों को भी पता चल सके कि कोई सदभावना उपवास का विरोध क्यों कर रहा है ।लेकिन फिर भी गुजरात सरकार इस पूरे मामले को मीडिया की नजरों से नहीं बचा सकी ।
वहीं सामाजिक कार्यकर्ता,भारतीय वैज्ञानिक,मशहूर उर्दू शायर और एवार्ड विनर डाक्यूमेंटरी फिल्म मेकर गौहर रजा कहते हैं  कि ये वाकया लोकतंत्र का गला घोंटने जैसा है उनके अनुसार मोदी गुजरात मे में शान्ति नहीं सन्नाटा चाहते हैं वो भी मरघट  जैसा सन्नाटा ।  
फिलहाल बात कुछ भी हो राज्य सरकार द्वारा विरोध को दबाने और मीडिया में बात न फैल पाने  की शर्मनाक और असंवैधानिक कोशिश पूरी तरह से नाकाम हो गयी, और सदभावना उपवास का असली चेहरा सबके सामने आ गया ।
इस गिरफ्तारी से शबनम को वो मिला जो शायद धरने पर बैठकर नहीं मिल पाता, शबनम यही चाहती थीं कि गोधरा के सदभावना की असलियत सबके सामने आये और इस प्रकरण से गुजरात ही नहीं पूरे देश के सामने असलियत सामने आ गयी ।
इसका फायदा शबनम को वैसे ही मिला जैसे यूपी चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को ।यूपी चुनाव में आयोग द्वारा हाथियों को ढके जाने के फैसले से जितना फायदा मायावती को हुआ, उतना शायद खुले हाथियों की मूर्तियों से न हो पाता ।
कुल मिलाकर गुजरात सरकार और पुलिस की इस कारस्तानी को किसी भी कीमत पर ज़ायज़ नहीं ठहराया जा सकता,किसी भी तरह से इसे लोकतांत्रिक नही कहा जा सकता ।

आईए अब हम आपको पूरा घटनाक्रम दिखाते हैं कि कैसे क्या हुआ....
कृपया इस लिक पर क्लिक करें

http://youtu.be/f_gl033V09A



ये फुटेज गुजरात के ही एक दोस्त के सहयोग से मिल सकी है, मैं उसका आभार प्रकट करता हूं ।