शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

ऐसा कब तक चलेगा..

पिछले कई महीनों से मैं हैदराबाद में जॉब कर रहा हूँ, यहां आये दिन अलग तेलंगाना प्रदेश बनाने की मांग को लेकर हंगामा होता रहता है । लगभग हर माह दस से पन्द्रह दिनों में औसतन एक बार बन्द हो ही जाता है ।
ऐसा पिछले कितने ही वर्षों से चला आ रहा है, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात । प्रदर्शनकारियों की तेलंगाना को आन्ध्रप्रदेश से अलग राज्य बनाने की मांग से सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती।
आये दिन यहाँ पर आन्दोलन होते रहते हैं, पता चला कभी बस बन्द है तो कभी ऑटो सेवा,कभी कर्मचारियों की हड़ताल तो कभी किसी की हड़ताल ।
कहने का मतलब अगर आप राजनेता हैं,बड़े व्यवसायी हैं या फिर सभी साधनों से संपन्न हैं तो आप पर बन्द का कोई असर नहीं पड़ने वाला । आपको पता भी नहीं चलेगा कि आज बन्द है, हां यह जरुर है कि आपको शायद दौड़ते-भागते किसी बस का इन्तजार करते सामान्य लोग न दिखाई पड़ें ।
जहां तक मेरा मानना है,आप ऐसे कितने ही प्रदर्शन करते रहेंगे पर शायद किसी पर प्रभाव पड़े । हां अगर प्रभाव पड़ेगा भी आम जनमानस पर । बन्द से परेशानी तो आम लोगों को ही होती है,सारे निजी वाहन चलते रहते हैं,केलल पब्लिक ट्रांसपोर्ट प्रभावित होता है ।
ये कैसा बन्द है भाई ,रोज-रोज बन्द करने से अच्छा है एक ही बार में पूरी तरह से बन्द कर दो । क्योकि मेरा मानना है कि बार-बार मरने से एक ही बार में मर जाना अच्छा होता है ।
मैं उत्तरप्रदेश का रहने वाला हूं,मुझे याद है कि जिस दिन हमारे यहां बन्द होता है उस दिन सड़क,बाजार,हाट सब कुछ बन्द रहता है चारों तरफ सन्नाटा ही सन्नाटा दिखाई देता है । अगर कहीं कुछ दिखता है तो केवल आंदोलनकारी और पुलिस ही दिखती है । उन आन्दोलनकारियों में एक दृढ निश्यय होता है अन्ना हजारे की तरह, न कि बाबा रामदेव की तरह । मांगे पूरी होने तक पुलिस के डन्डे खाते हैं या फिर जेल जाते हैं,मगर ड़टे रहते हैं
 मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि एक घटना का मैं खुद प्रत्यक्षदर्शी था ,18 सितम्बर को बन्द के दौरान मैं बस से ऑफिस जा रहा था,रास्ते में एक जगह कुछ तेलंगाना समर्थक प्रदर्शनकारी जाम लगाये हुए थे । तभी वहां सॉयरन बजाती एक पुलिस जिप्सी तेजी से आई और उसमें से ड़ण्डे लेकर दस-बारह जवान बाहर कूदते ही प्रदर्शनकारियों पर झपट पड़े । देखते ही देखते कुछ ही देर में सारे प्रदर्शनकारी पानी की काई की भांति,पता नहीं चला कहां गायब हो गये ।हम सबकी हंसी छूट गयी प्रदर्शनकारियों के हौसले को देखकर ।
मुझे लगता है अगर आप प्रदर्शन किसी भी सामान्य मुद्दे को लेकर तो भी आपको संगठित एवं गृढ निश्चयी होना चाहिए फिर तेलंगाना तो इतना बड़ा मुद्दा है । कुछ ऐसा करो कि इस रोज-रोज के बन्द से लोगों को मुक्ति मिल सके और सामान्य जीवन निर्बाध रूप से चल सके । इससे सरकार पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ता अगर कोई प्रभावित होती है तो बस लुटी-पिटी जनता ही,जिसके लिए आप यह सब करना चाहते हैं ।कुछ लोग तो ऐसे हैं जो रोज काम करके ही अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं,बन्द के कारण सबसे ज्यादा दिक्कत उन्हे और देश के भविष्य कहे जाने वाले मासूम बच्चों को ही होती है, उनका स्कूली जीवन प्रभावित होता है ।
यही कारण है पिछले कई दिनों से तेलंगाना की मांग जोर पकड़ तो रही है पर कोई निष्कर्ष नहीं निकल पा रहा है ।
मेरे गुरूजी कहा करते थे-
                  अगर डूब के मरना ही है तो समुद्र में ड़ूबों न कि तालाब में, अर्थात पूरे एक बार में पूरे मनोबल के साथ प्रदर्शन करो,नहीं तो छोड़ो यह सब और खुद जियो और जीने दो ।

बुधवार, 14 सितंबर 2011

यात्री और रेलवे

क्या भारत में रेलवे यात्रियों को अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षा मुहैया हो पायेगी । इसकी दिलासा तो सभी जिम्मेदार लोग दिलाते है कि अब ऐसा नहीं हो पायेगा,पर लगभग महीने में एक न एक हादसा हो ही जाता है। जो रेलवे व्यवस्था की पोल खोलते नजर आते हैं । आजकल रेलवे में यात्रा करना बहुत ही भयावह लगता है,ड़र लगा रहता है कि हम गंतव्य तक सुरक्षित पहुँच भी पायेंगे या नहीं,पता नहीं किसकी लापरवाही के चलते एक भयानक हादस हो जाये ।
अभी कुछ दिन पहले ही यूपी में भयंकर रेल हादसा हुआ था जिसमें कई यात्रियों की मौत हो गयी थी ।
मंगलवार को फिर से चेन्नई में रेल हादसा हुआ जिसमें 30 से ज्यादा लोग मौत के गाल में समा गये और 90 से ज्यादा घायल हो गये ।
आखिर कब तक रेलवे यात्रियों के खून से रेलवे का इतिहास लिखा जाता रहेगा,कब ऐसी कोई व्रयवस्था आयेगी जब हर रेल यात्री और उसका परिवार यात्रा करने से पहले कम से कम यह तो सोंच सके कि वह या यात्रा कर रहा उसका परिवार सुरक्षित है और सकुशल अपनी मंजिल तक पहुँच सकेगा....।

सोमवार, 12 सितंबर 2011

कहीं खुशी कहीं गम

    कल का दिन भारतीय खेल प्रेमियों के लिए " कहीं ख़ुशी कहीं गम " भरा रहा | एक तरफ भारतीय हाकी टीम,जिसने अपने चिर-प्रतिद्वंदी पाकिस्तान को ४-२ से रौंदकर एशियाई चैम्पिंशिप की ट्राफी अपने नाम कर  ली |वहीँ दूसरी ओर भारतीय क्रिकेट टीम एक के बाद एक मैच हारकर अपनी इज्जत का फालूदा बनाने पर तुली है |जब भारतीय टीम इंग्लैंड दौरे पर गयी थी,टेस्ट रैंकिंग में नम्बर एक टीम थी, लेकिन इंग्लैंड ने भारतीय टीम की लुटिया डुबोने में कोई कसर नही छोड़ी |
   टेस्ट सीरीज में टेस्ट सीरीज में इंग्लैण्ड ने भारतीय टीम से  ताज के साथ-साथ लाज भी लूट ली,इस सीरीज में भारतीय टीम कोई भी मैच जीतना तो दूर की बात है किसी भी मैच में संघर्ष तक नहीं कर सकी । इंग्लैण्ड दौरे से पहले किसी ने सोचा भी नही था कि विश्व चैम्पियन टीम का यह हस्र होगा,ऐसा शर्मनाक प्रदर्शन करेगी । हार का सिलसिला यहीं पर नहीं थमा,एक मात्र ट्वेन्टी मैच में भी हराने के साथ ही एकदिवसीय श्रंखला भी इंग्लैण्ड ने अपने नाम कर ली ।
भारतीय हॉकी टीम ने एशियाई चैम्पियनशिप जीतकर खेलप्रेमियों को खुश होने का सुनहरा अवसर दिया ।हालांकि हॉकी राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद वह सम्मान हासिल नहीं कर सकी जिसकी वह हकदार है,ऐसे भी कह सकते हैं हम कि भारतीय हॉकी खेल का हाल अपनी राजभाषा जैसा हो गया है। राजनीति और भेदभाव से ग्रसित अपनी खोई पहचान को तलाशती हॉकी टीम ने चीन में चल रही एशियन चैम्पियनशिप जीतकर अपनी क्षमता का लोहा मनवाया है । यह अजीब बिडम्बना ही है कि हॉकी टीम के खिलाड़ी देश के लिेए खेलकर भी वह शोहरत नहीं हासिल कर पा रहें हैं,जिसके वे सही मायनों में हकदार हैं ।
राष्ट्रीय हॉकी टीम  के सारे खिलाड़यों को बहुत कम लोग ही जानते होंगे जबकि वहीं क्रिकेट टीम खिलाड़ियों यहां तक कि बेंच स्ट्रेथ को बहुतायत संख्या में लोग जानते हैं । अगर हम यह कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि दर्शक हर खिलाडी के बारे में इतना  जानता है कि वह खुद बिना चयनकर्ताओं से अच्छी टीम चुन लेगा ।
इसका मतलब यह है नहीं कि मुझे क्रिकेट या क्रिकेट खिलाड़ियों से कोई भेदभाव है बल्कि मुझे भी क्रिकेट बहुत पसंद है ।
आज जरुरत यह है कि जैसे हम क्रिकेट खिलाड़ियों को सर आंखों पर बिठाते हैं वैसे ही इनको भी बैठाने की जरुरत है,तब देखना हॉकी टीम कहां से कहां से पहुंच जाती है ।
इस विषय पर मीड़िया को ध्यान देना होगा,उसे भी लोगों के बीच में हॉकी टीम के खिलाड़ियों और उनके प्रदर्शन को हाईलाइट करना पड़ेगा । पता चला कहीं हॉकी मैच हो रहें हैं लोगों को पता तक नहीं एक बार खेल प्रष्ठ पर बॉटम स्टोरी छप गयी तो छप गयी । जबकि वहीं क्रिकेट टीम कहीं अगर पैक्टिस मैच भी खेलती है तो चार दिन पहले से खबर आने लगती है ।
आज हमारे हॉकी टीम,हॉकी प्लेयर को वही सब जरुरत है ताकि आगे आने वाली पीढ़ी एक नये जोश के साथ तैयार हो सकें । सरकार को भी हॉकी की दशा सुधारने के लिेए उचित ध्यान देने की जरुरत है तभी हम अपने राष्ट्रीय खेल को आगे ले जा सकेंगे ।

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

भारत तेरी यही कहानी

आज एक बार फिर से वही कहानी दोहराई गयी,एक और बम धमाका,एक और दर्दनाक हादसा,एक बार और असहाय सरकार का असहाय बयान,झूठी सहानुभूति । सब कुछ पुराने जैसा देखने को मिला । लेकिन इस बार मृतकों और घायलों की संख्या में थोड़ा परिवर्तन देखने मिला ,इस बार ग्यारह बेगुनाहों को अपनी जान गंवानी पड़ी और लगभग सौ लोग घायल हो गये । उनका कसूर केवल इतना था कि वे उस भारत में रहते थे (जहाँ लोगों को अतिथि समझकर उनको सम्मान किया जाता ऱहा है अपनी जान देकर उनकी सुरक्षा की जाती रही है,आज उसी भारत की लगभग परिभाषा बदल सी गई है ,लोगों को खुद की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं रह गयी है ।)
वह भी दिल्ली में । जहां एक के बाद एक हादसे होते रहते हैं कभी राजनीतिक घोटाला तो कभी कभी आतंकी हमला । सरकारी नुमाइंदे,जिन पर सरकारी खजाने को लूटने के अलावा,लोगों के जान-माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी है ,उसके मंत्री,नेता धमाकों के समय कोई कैबरे में मस्त होता है तो कोई कैटवाक के मजे ले रहा होता है,तो कहीं कोई नये तरीके से देश के सबसे बड़े घोटाले को अंजाम देने की योजना बना रहा होता है ।
दूसरे शहरों की भला बात ही क्या है दिल्ली तो राजधानी है भारत की,या कहें दिल है भारत का,या फिर यह कहें दिल्ली वह शहर है जहाँ एक से बढ़कर एक छोटे-बड़े नेता सुरक्षा के कसीदे पढ़ते मिल जायेंगे ।
ये तो भला हो आतंकियों का कि हर बार दिल्ली,मुंबई जैसे महानगरों को ही निशाना बनाते हैं,या फिर दूसरे शब्दों में यह कहें कि हर बार सीने पर आकर वार करते हैं । क्योंकि यदि आप दिल्ली,मुंबई जैसे सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत शहरों की सुरक्षा नहीं कर सकते तो आम शहरों की बिसात ही क्या है..ऐसा लगता है जैसे आतंकी हर बार हमें मुँह चिढ़ाकर चले जाते है्ं और हम छोटे बच्चों की तरह पड़ोस वाले अंकल के घर शिकायत लेकर पहुँच जाते है । हमारे स्वायम्भू कर्णधार हमले में हुई चूक ढ़ूढ़ने के बजाय दूसरों पर आरोप लगाने से नहीं चूकते ।
पक्ष हो या विपक्ष आतंकी हमले पर केवल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिेए एक दूसरे पर आरोप लगाते रहते है्ं । शासन की तरफ से एक रटा-रटाया थका सा भाषण दे दिया जाता है,घायलों और मृतकों के परिजनों को चन्द पैसों का झुनझुना पकड़ा दिया जाता है और हम फिर से एक नये हमले, एक नये घोटाले का इन्तजार करने लगते हैं ।
आखिर कब तक यू्ं ही भारत का सीना छलनी होता रहेगा,कब तक आतंकी बेधड़क यूं ही भारत में मौत का नंगा नाच खेलते रहेंगे और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे,कब तक 'मुझे बचाओ-मुझे बचाओ' कहकर पश्चिचमी देशों के तलवे चाटते रहेंगे और कब हमारे खेवनहारों में इतनी हिम्मत आयेगी कि वे आतंक के खिलाफ कोई ठोस कदम उठा सकें । क्या सचमुच हम इतने कमजोर हो गये हैं कि अपनी सुरक्षा खुद नहीं कर सकते,या फिर जंग लग गयी है हमारे पूरे सिस्टम को या फिर कर्णधारों के पास फुरसत नहीं है देश की तरफ सोचने,देखने की ।
राजनीतिज्ञों के संबंध में बचपन में मेरा एक मित्र कहा करता था जो अब सही लगती है..
     रुपयों की लूट है लूट सके तो लूट
    अंत समय पछतायेगा जब कुर्सी जायेगी छूट ।
आतंकी हमलों के समय हमारे गृहमंत्री जी सोते रहते हैं,कभी रामदेव और उनके निरपराध समर्थकों को आधी रात के समय पीट-पीटकर भगा दिया जाता है,तो कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने वाले अन्ना और उनके समर्थकों को जेल में भर दिया जाता है । लेकिन जब सरेआम दिनदहाड़े आतंकी हमला होता है,कई मासूमों को अपने परिवारों से और जान से हाथ धोना पड़ता है,कईयों के सुहाग मिट जाते हैं और कई बूढे मां-बाप अपने जीवन के इकलौते सहारे को खो देते हैं । तब कहां चले जाते हैं हमारे सियासी शेर,आखिर कब तक हम इन निरपराध बेगुनाहों के खून से धरती को लाल होते देखते रहेंगे, कौन है इस सबका असली जिम्मेदार,'आतंकी' या सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार हमारे अधिकारी और नेतागण । आखिर कब हमारे गृहमंत्री साहब जागेंगे और कोई ठोस रणनीति बनाने की  कोशिश करेंगे ।
आज अगर भारत जैसा विशाल लोकतांत्रिक देश आतंकी हमलों से जूझ रहा है तो इसका श्रेय हमारे शासन तंत्र या कह लीजिए भ्रष्ट तंत्र को ही जाता है न कि आतंकियों को,वो तो हमे आईना दिखा रहें हैं और हमारी सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोल रहे हैं ।
हमारे देश में भ्रष्टाचार की मुहिम चलाने वाले अन्ना को गिरफ्तार कर,रामदेव और उनके समर्थकों को आधी रात में मार भगाना बहुत आसान है । लेकिन सरकार कई लोगों की सरेआम जान लेने वाले आतंकियों का बाल-बांका भी नहीं कर पाती । कसाब,अफजल गुरू और खूंखार आतंकियों के खिलाफ भारत सरकार कितनी मजबूर है,उन पर सालों से मुकदमें चल रहें हैं,आज भी उन पर आम कैदियों की अपेक्षा कई गुना ज्यादा पैसे खर्च कर उन्हे सरकारी दामाद बनाये हुए है । वो कई बेगुनाह भारतीयों की जान लेकर भी भारत की ही जेल में मजे कर रहें हैं,उन्हे देखकर हमारा खून क्यों नहीं खौलता,क्यों इतने लाचार हो गये हैं हम.. 
यहाँ पर लक्ष्मण जी द्वारा कही एक चौपाई चरितार्थ होती है--- 
                           कादर मन कहुँ एक अधारा
                           दैव-दैव आलसी पुकारा ।।
जब तक हम खुद से कुछ नहीं करेंगे,कोई ठोस कदम नहीं उठायेंगे तब तक यूं ही खूनी खेल खेला जाता रहेगा,और हम लाचार मूक-दर्शक की भांति केवल देखते भर रहेंगे । जो देश या प्रशासन अपने नागरिकों की हिफाजत नहीं कर सकता उसे सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है ।
जिनके पास हम अपना दुखड़ा लेकर रोने जाते हैं क्या हमें उनसे सीख नहीं लेनी चाहिेए ।अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर एक बार हमला होता है,एक ही हमले से अमेरिकी सरकार,जो अपने नागरिकों के प्रति संवेदनशील है,बदले में अमेरिका ने ऐसी कार्रवाई की जिसे हम सब जानते हैं ।
आज हममें इतनी हिम्मत क्यों नहीं कि हम खुद अपने दुश्मनों को सबक सिखा सकें । अगर हमने शीघ्र ही कोई ठोस कदम नहीं उठाये तो वह दिन भी दूर नहीं जब हमारी हालत पाकिस्तान,अफगानिस्तान जैसी हो जायेगी ।
आज हमारा भारत देश बाहरी और भीतरी दोनो ही तरह के दुश्मनों के मकड़जाल में फंसता जा रहा है । ऐसा लगता है जैसे यह तन्त्र देश और नागरिक सुरक्षा के मामले में बिल्कुल ही संवेदनहीन हो गया है या फिर नपुंसक...

गुरुवार, 23 जून 2011

गुफ़ाएँ




















































































भारतेंदु नाट्य कला एकेडमी में २२ जून २०११ को मुद्रा राक्षस द्वारा रचित नाटक "गुफाएं " का मंचन किया गया |
 जिसमे कलाकारों ने शानदार अभिनय किया , दर्शक भी खूब आये थे |इसके प्रबंधक मस्तो जी थे जिन्होंने बहुत मेहनत  की थी | जिसे देख कर लग रहा था कि फिर से लोक रंगमंच कि तरफ लौट रहे हैं |
 शो देखने का टिकट ३० रूपये था | हम सब लोग बीजू सर के साथ देखने गये थे 
लेकिन कथानक में कोई दम नही था लोग देखते-देखते थक सा गये थे ,शायद जिसका सबसे बड़ा कारण था 
केवल मंच पर दो कलाकारों द्वारा ही अभिनय करना | उन दोनों ने अभिनय बहुत ही शानदार किया 
पर एक कलाकार द्वारा बदल-बदल कर ४ रोल करना हजम नहीं हो रहा था |
 अंत में निष्कर्ष भी समझ में नही आया क्या सन्देश देना चाहते थे और कभी-कभी तो कन्फ्यूजन  इतना हो जाता था 
कि समझ में ही नहीं आता क्या चल रहा है स्टोरी में ?
 फ़िलहाल शानदार अभिनय किया कलाकारों ने जिसके लिए वो बधाई के पात्र हैं |
 लेकिन आयोजकों को यह सोचना होगा कि रंगमंच से विमुख होते  दर्शकों को हम कुछ ऐसा दिखाएँ जिससे वो रंगमंच से जुड़े रहें ,|



नोट  
         मेरे पास मेरा कैमरा था जिससे मैंने कुछ तस्वीरें लीं थी | पर मुझसे एक गलती हो गयी थी जिसके लिए मैं आप सबसे माफ़ी मांगता हूँ  |
         मैंने अपने कैमरे में गेन चेक नही किया था वापस आकर देखा तो पता चला गेन १६०० था | जैसी भी तस्वीरें हैं मैं इन्हे ब्लॉग पर डाल रहा हूँ |