गुरुवार, 4 जनवरी 2024

ठंड की ठिठुरन, बारिश, कोहरा और मेरी यात्रा

 वैसे तो अब तक मेरे कई सफर चुनौतीपूर्ण रहे हैं लेकिन लम्बे समय बाद एक यात्रा ने जमकर इम्तिहान लिया। यह यात्रा थी यूपी के फतेहपुर की, जहां एक ट्रेनिंग के सिलसिले में मुझे जाना था। यह यात्रा मुश्किल एक और वजह से हो जाती है और वह है हिट एंड रन को लेकर प्रस्तावित नया कानून, जिसके विरोध में ट्रक ड्राइवर्स की हड़ताल के बाद रोडवेज बस के भी पहिये थम गये। नतीजन मुझे ट्रेन से यात्रा करनी पड़ी। ऐसा नहीं है कि मुझे रेल यात्रा पसंद नहीं है, लेकिन फतेहपुर के लिए सीधी रेल सेवा कम है। इसलिए यूपी परिवहन से सफर करना मुनासिब रहता है। 

आप कह सकते हैं कि मेरा इससे क्या लेना-देना, मैं क्यूं पढ़ूं? सही भी है, पर मुझे लगा कि इस पर लिखना चाहिए और इस दौरान मैंने जो गलतियां की हैं, वह आप न दोहराएं।



चलिए इस यात्रा के बारे में थोड़ा विस्तार से बात करते हैं। दरअसल बजाज अलियांज लाइफ के साथ मैं कंसल्टेंट ट्रेनर के तौर पर जुड़ा हूं। मेरे पास एक रीजन लखनऊ अपकंट्री जिसमें 7 ब्रांचेस आती हैं, इनमें एक फतेहपुर भी है। लखनऊ के अलावा सीतापुर, रायबरेली और लालगंज तो मैं कई बार जा चुका हूँ ट्रेनिंग के सिलसिले में लेकिन अब तक फतेहपुर नहीं गया। कमोबेश सभी ब्रांचों में महीने की शुरुआत में इंश्योरेंस कंसल्टेंट की मीटिंग बुलाई जाती है। फतेहपुर के ब्रांच मैनेजर से मैंने शेड्यूल पूछा और बुलाने की गुजारिश की तो वह सहर्ष तैयार हो गए। मैंने भी जाने का कमिटमेंट कर दिया। इस सम्बंध में मैंने अपने रीजनल ट्रेनिंग मैनेजर व रीजनल हेड को जानकारी दी। शुभचिंतक होने के नाते सबने हड़ताल और मौसम का हवाला दिया पर मेरा जोश देखकर मान गए। अब समस्या थी कि जाया कैसे (परिवहन) जाए? क्योंकि बसें तो बंद थीं लिहाज़ा तय हुआ कि ट्रेन से जाऊंगा।

ऑफिस से घर निकला तो बाइक रिजर्व में लग चुकी थी जबकि सुबह मुझे निकलना था। रास्ते मे पेट्रोल पंप लर लम्बी-लम्बी लाइन देखकर घर जाना ही उचित समझा। बाइक के पेट्रोल की टंकी खोलकर देखा तो सुकून मिला। आश्वस्त हुआ कि चारबाग तक पहुंच जाएंगे। घर में बताया कि तीन जनवरी को फतेहपुर जाना है। गोमती एक्सप्रेस सुबह 5:45 पर थी, देर रात बॉस (आरटीएम) का फोन आया, कहा कि हर हाल में सुबह 5:30 बजे तक स्टेशन पहुंच जाना बेहतर रहेगा।

पत्नी ने रात में सब्जी काट ली, ताकि सफर के लिए खाना के जा सकूं। सोने से पहले मैंने कानपुर जाने वाली ट्रेनों की डिटेल खंगाली, तय किया कि अब गोमती से ही जाना है। इस बीच आईआरसीटीसी का पुराना अकाउंट भी सक्रिय कर लिया जरूरत न होने की वजह से जिसे मैं भुल चुका था। लम्बे समय बाद खुद ही अपना टिकट बुक किया। हालांकि, पेटीएम से बुक करने पर 75 रुपए का टिकट 113 रुपए में पड़ा। आमतौर पर रात 9:30 बजे सो जाता हूं, पर आज एक घंटा लेट था। निश्चिंत था क्योंकि पत्नी से सुबह 4:30 बजे नींद से जगाने को कहा था, जो रोजाना हमसे पहले ही उठती है। आज उसने 15 मिनट पहले ही उठा दिया था। आनन-फानन में सेविंग की, क्यूंकि यह काम मैं रविवार, बुधवार और शुक्रवार को ही करता हूं। इस सबके चलते टाइम अपनी स्पीड से भागा जा रहा था। श्रीमती जी ने टिफिन पैक कर दिया था। जब तक चाय पी उन्होंने बैग भी सेट कर दिया। यात्रा का असली ट्विस्ट तो यहीं से शुरू हुआ।

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गेट खोलकर बाहर देखा तो रोंगटे खड़े हो गए। भयंकर कोहरा पड़ रहा था। फिलहाल जाना तो था ही। कोहरा इतना था कि बार-बार चश्मे के ग्लास साफ करने पड़ रहे थे। स्टैंड पर बाइक खड़ी करने और स्टेशन तक पहुंचते-पहुंचते 5:40 बज चुके थे, पर निशिन्त था कि टिकट लेने का चककर नहीं है। रेलवे का इन्क्वायरी बोर्ड देखा तो पता चला कि ट्रेन करीब ढाई घंटे बाद छूटने वाली थी। उससे ज्यादा कोफ्त खुद पर हुई कि निकलने से पहले एसएमएस क्यों नहीं देखा, तीन बजे ही रेलवे ने सूचित कर दिया था कि आपकी ट्रेन पौने छह पर नहीं बल्कि 8.20 पर छूटेगी। अब मरता क्या न करता वहीं बैठा रहा। बैठे-बैठे फेसबुक और इंटाग्राम पर सेल्फी पोस्ट भी कर दी। 7 बजे मेमू निकलने वाली थी उसी से कानपुर तक जाने का निर्णय लिया, जबकि पिछले हफ्ते ही कानपुर गयी पत्नी ने इस ट्रेन को बैलगाड़ी की संज्ञा दी थी। ट्रेन तय समय पर रवाना हुई तो काफी खुश थी। मेरे साथ जो सहयात्री बैठे थे। एक ऊंघ रहा था। दो पॉलिटिकल बहस में व्यस्त थे। न चाहकर मुझे भी उनकी सहमति-असहमति पर सिर हिलाना पड़ रहा था। उनको हंसता देखकर बीच-बीच में झूठी स्माइल मैं भी मार देता था। रास्ते में बारिश भी खूब हो रही थी, जिसके चलते ठंड सिहरा रही थी।

उन्नाव तक तो ट्रेन सही समय पर पहुंची लेकिन वहां से लखनवी अंदाज़ से दूसरी गाड़ियों को पहले आप-पहले आप की तर्ज पर पास देने लगी। इतने से भी काम नहीं चला तो आउटर पर खड़ी हो गयी। मेरे अलावा अब अन्य सहयात्रियों का धैर्य जवाब दे रहा था। लोग पैदल ही गंतव्य की ओर निकलने लगे। बारिश भी हो रही थी। मैं इस उहापोह में था कि ट्रेन चलने का इंतज़ार करूँ या पैदल जाऊं। करीब 20 मिनट बाद मैंने भी पैदल जाने का निर्णय लिया। बारिश थम गई थी, लेकिन अचानक मेरा पैर फिसला, बैलेंस बिगड़ते ही मैँ पटरी के बीच पड़ी गिट्टियों पर गिर गया, लेकिन फुर्ती में उठ खड़ा हुआ। चोट की वजह से घुटना दर्द कर रहा था। एकबारगी ख्याल आया कि चलो कानपुर से घर लौट चलते हैं। फिर मन ने कहा नहीं हमें फतेहपुर जाना चाहिए। क्योंकि फतेहपुर के ब्रांच हेड लगातार मेरी यात्रा की जानकारी ले रहे थे। वैसे भी कमिटमेंट नाम की कोई चीज होती है।

फिलहाल पटरियां क्रॉस कर मैं बाहर आ चुका था। बाहर का नजारा देखकर फैसले पर अफसोस हुआ। वहां कोई वाहन नही था और रोड पर पानी भरा था। एक दो ई-रिक्शा आ भी रहे थे जो देखते ही भर जा रहे थे। सोचा कि पैदल ही चलते है इसी बहाने स्टेप्स भी कवर हो जाएंगे। आपको बता दें कि मैंने तय किया है कि 40 हार्ट प्वॉइंट्स के साथ रोजाना 10 हजार स्टेप चलूं। इसकी दो वजह हैं। एक स्वस्थ रहूं दूसरा अपनी हेल्थ पॉलिसी से हेल्थ रिटर्न (प्रीमियम) ले सकूं। मैं बढ़ता जा रहा था। रास्ते में जगह-जगह भरा पानी सरकार के गड्ढामुक्त दावों की पोल कह रहा था। आधी दूर ही पहुंचे होंगे कि मेरी ट्रेन सीटी बजाकर मुझे चिढ़ाती हुई निकल गयी। बारिश में भीगने से बचने के लिए तेज-तेज चल रहा था। माथे पर पसीना छलछला आया था जबकि जूतों के अंदर भीगे मोजे उंगलियों को ठिठुरा रहे थे।

उस समय कानपुर से फतेहपुर के लिए कोई ट्रेन नहीं थी। ब्रांच मैंनेजर की सलाह पर बस से जाना तय किया। ई-रिक्शा से टाटमिल चौराहा पहुंचा, जहाँ फतेहपुर की बस खड़ी दिखी तो चैन मिला। कहते हैं कि भूखे भजन न होहिं गोपाला.. बस में बैठते ही सबसे पहला काम ये किया कि पत्नी के बनाये हुए पराठे और फूल गोभी की सब्जी खाकर पेट की भूख शांत की। क्योंकि मेरी आदता 10 बजे तक खाना खा लेने की है।



11 बजे पहुंचना था, पर 12 बजे फतेहपुर पहुंच पाया। बस स्टैंड से सेल्स मैनेजर सुयस जी मुझे ऑफिस तक ले गये जहां मेरे स्टूडेंट जिनमें कुछ सीनियर सिटीजन वह गृहणियां भी थीं जो मेरा इंतजार कर रहे थे। सभी से अभिवादन का आदान-प्रदान हुआ। ब्रांच हेड से मिला जो क्लास में थे, मैं भी उसमें शामिल हो गया। ट्रेनिंग सेशन करीब 4 बजे तक चला। इसके बाद शाम को स्थानीय रेस्टोरेंट में फाइनेंशियल एडवाइजर्स व सेल्स मैनेजर्स के साथ डिनर था। बेहतरीन आयोजन था। ब्रांच हेड ने मेहमाननवाजी का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया।

आधी रात से ठीक दो घंटे पहले अचानक तय हुआ कि मुझे रात में ही लखनऊ के लिए निकलना है। यात्रा का असली ट्विस्ट तो यहां से शुरू हुआ। लखनऊ आने के दो रास्ते थे। एक लालगंज, बछरावां होते हुए और दूसरा कानपुर से घूमते हुए लखनऊ आना। इत्तेफाक से एक बस मिल गई जो लखनऊ के लिए निकल रही थी। मेरी तो बांछें खिल गईं। चट से उसमें जा बैठा। अंदर छह या सात यात्री ही होंगे। बस ड्राईवर किसी से झगड़ रहा था। उसको गरियाते हुए गाड़ी लेकर निकला। अनुमान था कि दिन में बारिश हुई है इसलिए रात में कोहरा नहीं होगा, लेकिन मेरा मौसम विज्ञान गड़बड़ा गया। भयंकर कोहरा छाया हुआ था। ड्राइवर गाड़ी को ऐसे दौड़ा रहा था जैसे किसी कम्पटीशन में भाग ले रहा हो। इस दौरान दो-तीन अवसर ऐसे आये जब लगा कि गाड़ी अब लड़ी की तब। हम सभी अपने-अपने आगे वाली सीट को कसकर थामे हुए थे। लग रहा था कि आज कहीं न कहीं यह लड़ा ही देगा। कोहरे में वह गाड़ी को ऐसा दौड़ा रहा था कि जैसे उसने उल्लू वाला सूरमा लगा लिया हो।



कंडक्टर से आपत्ति जाहिर की तो ड्राइवर उससे भी लड़ने लगा। बातों ही बातों में पता चला कि रात को वह बस लेकर लखनऊ नहीं जाना चाहता था, पर उसे जबरन भेजा गया। इसके लिए वह सीनियर को खूब गालियां बक रहा था। कुछ हद तक उसका गुस्सा वाजिब भी था। फतेहुपर से लखनऊ के जाने वाले मुझे मिलाकर सिर्फ दो पैसेंजर ही थे और उस पर कोहरा भी भयंकर। इतना ही नहीं लखनऊ से उसे फिर 4 बजे सुबह फतेहपुर आना था। मैंने उसे खूब समझाया कि ड्राइवर साहब आपके और मेरे बच्चे हमारा इंतजार कर रहे हैं। आराम से चलिए क्योंकि दुर्घटना से देर भली। लेकिन वह अपनी धुन में गाड़ी दौड़ाता रहा। लालगंज के बाद हम सिर्फ दो यात्री ही बस में बचे थे, कुल मिलाकर चार लोग। गुरुबक्श गंज के अचानक उसने बस एक ढाबे पर खड़ी कर दी। कहा कि अब आगे नहीं जाऊंगा। उसने खाना खाया। चाय मैंने पी और उसे भी पिलाया। इस दौरान उसे समझाया कि भाई हम लोग तुम्हारे ही सहारे हैं। धमकाया भी कि अगर बस नहीं जाएगी तो अभी ट्विटर पर शिकायत करूंगा। आखिरकार वह चलने को तैयार हो गया। इस बार वह थोड़ा नॉर्मल था, इसकी वजह है कि उसे अहसास दिलाने में सफल रहा था कि मैं तुम्हारा दर्द समझ सकता हूं। 

इसके बाद वह नॉर्मल गति से बस चला रहा था। बछरावां से एनएच-31 पर गाड़ी आ चुकी थी। अब गाड़ी टकराने का डर नहीं था, डर था कि कहीं बस रोड से उतर न जाए। ड्राइवर सतर्क था, बावजूद कई बार ऐसी स्थिति आई कि जब बस रोड से किनारे की ओर भागी, लेकिन उसने कंट्रोल किया। पीजीआई पहुंचने पर मेरा सहयात्री उतर चुका था। अब पैसेंजर के नाम पर बस में मैं ही अकेला बचा था। करीब चार बजे हम चारबाग बस स्टैंड पहुंचे, वहां से बाइक ली और घर पहुंचा। सकुशल यात्रा के लिए मैंने ड्राइवर और ईश्वर को दिल से धन्यवाद किया और प्रण कर लिया कि इस तरह की यात्रा दोबारा नहीं करूंगा। आखिरी लाइन तक पढ़ने के लिए धन्यवाद। क्या मुझे ऐसा कुछ लिखना चाहिए या फिर नहीं, प्लीज बतायें जरूर। धन्यवाद।



गुरुवार, 5 नवंबर 2020

मां की कोख से अब संस्कारी बच्चे ही पैदा होंगे, BHU में गर्भवती को दी जा रही है Garbh Sanskar Therapy





- गर्भवती महिलाओं के लिए बीएचयू में शुरू हुई Garbh Sanskar Therapy

- गर्भवती महिलाओं को संगीत थेरेपी, वेद थेरेपी, ध्यान थेरेपी और पूजापाठ थेरेपी दी जा रही है

- प्रेग्नेंसी में जो भी मां ग्रहण करती है, शिशु भी उसे ग्रहण करता है, चाहे वह खाने की चीज हो या फिर संस्कार


लखनऊ. वाराणसी के काशी हिंदू विश्वविद्यालय का आयुर्वेद विज्ञान विभाग एक नई थेरेपी शुरू कर दी है। इस अनोखी थेरेपी के तहत अब गर्भ में बच्चों को संस्कार (Garbh Sanskar Therapy) की शिक्षा दी जा रही है। इसके तहत गर्भवती महिलाओं को संगीत थेरेपी, वेद थेरेपी, ध्यान थेरेपी और पूजापाठ थेरेपी दी जा रही है। ताकि होने वाला शिशु जन्म के बाद समाज की कुरीतियों से लड़ने में खुद को सक्षम पाये। भजन और मंत्रोच्चार के बीच अल्ट्रासाउंड के माध्यम से गर्भवती महिलाओं के गर्भ में शिशु के हलचलों पर डॉक्टर नजर रख रहे हैं। इस थेरेपी से आने वाले रिजल्ट को देखकर डॉक्टर के साथ-साथ गर्भवती महिलाएं भी खुश हैं।

बीएचयू के सर सुंदरलाल अस्पताल के मेडिकल सुपरिण्टेंडेंट एसके माथुर कहते हैं कि आधुनिक अस्पतालों ने इसे बंद कर दिया है, लेकिन आयुर्विज्ञान में यह क्रिया पहले ही चली आ रही है। इसे हमारा विभाग फिर से शुरू कर रहा है। उन्होंने बताया कि विज्ञान कहती है कि गर्भस्त शिशु तीन महीने बाद हलचल करना शुरू कर देता है। प्रेग्नेंसी के दौरान जो भी मां ग्रहण करती है, शिशु भी उसे ग्रहण करता है। चाहे वह खाने की चीज हो या फिर संस्कार।

यह है पूरी प्रोसेस

इस अनोखी थेरेपी के बारे में आयुर्वेद विभाग की हेड डॉ. सुनीता सुमन बताती हैं कि गर्भवती महिलाओं को वेद पढ़ाए जा रहे हैं। साथ ही उन्हें पूजा-पाठ करने के लिए प्रेरित किया जाता है। उन्हें कर्णप्रिय संगीत भी सुनने को मिल रहा है और महापुरुषों के आचरण के बारे में भी सुनाया जा रहा है। वह बताती हैं कि बच्चे के हाव-भाव का पता लगाया जाता है कि वह वह खुश है या फिर डरा हुआ। उसे पांच वर्षों तक फालो किया जायेगा, जिससे उनके मानसिक और शारीरिक विकास का अध्ययन किया जा सके। डॉ. सुनीता सुमन ने कहा कि गर्भस्थ शिशु के लिए ऐसा माहौल किसी वरदान से कम नहीं साबित होगा। फिलहाल, यहां आने वाली महिलाओं को यह खासा पसंद आ रहा है। महिलाओं का कहना है कि उन्हें काफी सुकून मिल रहा है।

लखनऊ में भी कोर्स

'गर्भ संस्कार' पर सर्टिफिकेट और डिप्लोमा कोर्स लखनऊ यूनिवर्सिटी में भी शुरू होने जा रहा है। पाठ्यक्रम में गर्भवती महिला को क्या पहनना चाहिए, क्या खाना चाहिए, कैसा व्यवहार करना चाहिए, खुद को कैसे फिट रखना चाहिए और मातृत्व के बारे में पढ़ाया जाएगा। लखनऊ विवि के अलावा डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विवि अयोध्या में भी गर्भ संस्कार में सर्टिफिकेट कोर्स शुरू किया गया है।


मंगलवार, 3 नवंबर 2020

Nautanki : खत्म होता यूपी का लोकनृत्य, नगाड़े का नाद और तबले की ताल अब नहीं सुनाई देती

 


- पहले वीसीआर-टीवी ने और फिर मोबाइल ने खत्म किया Nautanki का क्रेज

- प्रेरणादायक कहानियों की बजाय बढ़ती फूहड़ता और अश्लीलता ने कम की नौटंकी की लोकप्रियता

- राजा हरिश्चंद्र, श्रवण कुमार, आल्हा-ऊदल, सुल्ताना डाकू और फूलन देवी जैसे पात्रों की कहानियां दिखाई जाती थीं

- नौटंकी में कविता और साधारण बोलचाल की भाषा इस्तेमाल की जाती थी, संवाद में तुकबंदी भी

- नौटंकी में सारंगी, तबले, हारमोनियम और नगाड़े जैसे वाद्य यंत्र इस्तेमाल होते हैं।

- अब नौटंकी न तो नौटंकी के कलाकार बचे हैं और न ही कद्रदान


Nautanki. नौटंकी उत्तर प्रदेश का लोकनृत्य (Uttar Pradesh Folk dance Nautanki) है जो अब विलुप्त सा होता जा रहा है। आज से दो दशक पहले नौटंकी ही लोगों के मनोरंजन का महत्वपूर्ण साधन हुआ करती थी। शादी-बारात हो या फिर कोई अन्य मांगलिक कार्यक्रम लोग अपनी खुशियां सेलिब्रेट करने के लिए नौटंकी का आयोजन करवाते थे। सहालग पर ग्रामीण इलाकों में कोई ऐसा दिन नहीं होता था, जब दो-चार कोस पर हर दिन नौटंकी के नगाड़े नहीं गूंजते हों। इसके अलावा भी लोग चंदा जमाकर हफ्ते भर के लिए नौटंकी का आयोजन करवाते थे। राजा हरिश्चंद्र, श्रवण कुमार, आल्हा-ऊदल के अलावा सुलताना डाकू और फूलन देवी जैसे कई पात्रों की कहानियां विशेष शैली में गा-गाकर दिखाई जाती थीं। लोग मजे-मजे लेकर नौटंकी देखा करते थे। हरदोई जिले के कोथावां ब्लॉक निवासी राम खेलावन बताते (55) हैं कि बचपन में अक्सर नौटंकी देखने जाते थे। पुराने दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं कि शाम होते ही जैसे नगाड़े की आवाज कानों में गूंजती, उनसे रहा नहीं जाता था। दोस्तों के साथ वह चुपके से निकल जाते थे नौटंकी देखने, फिर चाहे वह कितनी ही दूर क्यों न हो। सुबह खत्म होते ही वह घर लौट आते थे।

वैसे तो पूरे उत्तर प्रदेश में नौटंकी खूब देखी जाती, लेकिन कानपुर, इलाहाबाद और लखनऊ इसके प्रमुख केंद्र थे। धीरे-धीरे नौटंकी में फूहड़ता ने जगह बना ली। अब यहां प्रेरणादायक कहानियों की बजाय अश्लीलता परोसी जाने लगी। समाज के उच्च-दर्जे के लोग इसे 'सस्ता' और 'अश्लील' समझने लगे। वीसीआर (वीडियो कैसेट रिकॉर्डर) और टीवी (टेलिविजन) के अधिक चलन ने नौटंकी को हाशिये पर पहुंचा दिया। दूर संचार क्रांति और हर हाथ में मोबाइल के चलन की वजह लोग नौटंकी ही भूल गये। नौटंकी के सामानों के बड़े विक्रेताओं ने भी दुकानें बंद कर दीं। ऐसा ही एक नाम था लखनऊ के कुक्कू जी का, जिनके जिक्र के बिना अवध में नौटंकी के विकास या इतिहास की बात करना बेमानी था। स्व.कक्कू जी ने केवल भारत के विभिन्न स्थानों पर ही नहीं बल्कि विदेशों (लाहौर, करांची, नेपाल) में भी नौटंकी की है। नौटंकी विधा को लोकप्रिय बनाने व विकास करने के लिए भारत सरकार द्वारा कई पुरस्कार दिए गए। 

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एक-एक शो के लिए आते थे 20 हजार तक दर्शक

वर्ष 1920 में कक्कू जी ने लखनऊ के यहियागंज में नौटंकी के सामान की एक दुकान खोली। उनकी दुकान लगभग पिछले 100 वर्षों से भी अधिक समय से चल रही है। गांव हो या शहर नौटंकी का हर कलाकार या उससे जुड़ा व्यक्ति कक्कू जी और उनकी दुकान को जानता व पहचानता था। हालांकि, अब कोई नियमित तो वहां नहीं बैठता, लेकिन कस्टमर पहुंचने पर उनके बेटे सामान देने आ जाते हैं। 90 के दशक में कक्कू जी के स्वर्गवास के बाद उनके पुत्र बालकिशन जी दुकान चलाते हैं। बालकिशन जी बताते हैं कि पिताजी के समय पर ग्राहकों की लाइन लगी रहती थी अब तो कभी-कभी ही कोई ग्राहक आ जाता है। दुकान लगभग बंद कर दी है। अब उन्होंने बर्तन दुकान खोल ली है और नौटंकी के सामान को उठाकर घर में रख दिया है। जब कभी कोई ग्राहक आता है तो उसे घर ले जाकर सामान दे देते हैं। वह बताते हैं कि पिता जी के समय में लोगों के मनोरंजन का एकमात्र साधन नौटंकी ही था। दर्शक टिकट के लिए मारपीट तक कर देते थे। टिकटों की पहले ही बुकिंग हो जाती थी। एक शो के लिए 20,000 तक दर्शक आ जाते थे।

अब न कलाकर बचे और न ही कद्रदान

अब नौटंकी क्रेज खत्म हो गया है, जिसके चलते न तो कलाकार बचे हैं और न ही कद्रदान। कलाकारों ने नौटंकी की बजाय अब दूसरा पेशा चुन लिया। आखिर उन्हें भी तो अपनी रोजी-रोटी चलानी है। नौटंकी में कविता और साधारण बोलचाल की भाषा इस्तेमाल की जाती थी। तुकबंदी के जरिए संवाद किया जाता। नौटंकी में सारंगी, तबले, हारमोनियम और नगाड़े जैसे वाद्य इस्तेमाल होते हैं। तुकबंदी को उदाहरण से समझिए- सुल्ताना डाकू है बड़ा होशियार, पुलिस भी जाती है उससे हार..


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